राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चतुर्थ सरसंघचालक प्रो. राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैय्या) का जन्म 29 जनवरी, 1922 को ग्राम बनैल (जिला बुलन्दशहर, उत्तर प्रदेश) के एक सम्पन्न एवं शिक्षित परिवार में हुआ था. उनके पिता कुँवर बलबीर सिंह अंग्रेज शासन में पहली बार बने भारतीय मुख्य अभियन्ता थे. इससे पूर्व इस पद पर सदा अंग्रेज ही नियुक्त होते थे. राजेन्द्र सिंह को घर में सब प्यार से रज्जू कहते थे. आगे चलकर उनका यही नाम सर्वत्र लोकप्रिय हुआ.
रज्जू भैय्या बचपन से ही बहुत मेधावी थे. उनके पिता की इच्छा थी कि वे प्रशासनिक सेवा में जाएं. इसीलिए उन्हें पढ़ने के लिए प्रयाग भेजा गया, पर रज्जू भैय्या को अंग्रेजों की गुलामी पसन्द नहीं थी. उन्होंने प्रथम श्रेणी में एमएससी उत्तीर्ण की और फिर वहीं भौतिक विज्ञान के प्राध्यापक हो गए.
उनकी एमएससी की प्रयोगात्मक परीक्षा लेने नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ. सीवी रमन आए थे. वे उनकी प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुये तथा उन्हें अपने साथ बंगलौर चलकर शोध करने का आग्रह किया, पर रज्जू भैय्या के जीवन का लक्ष्य तो कुछ और ही था.
प्रयाग में उनका सम्पर्क संघ से हुआ और वे नियमित शाखा जाने लगे. संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी से वे बहुत प्रभावित थे. 1943 में रज्जू
भैय्या ने काशी से प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण लिया. वहाँ
श्री गुरुजी का ‘शिवाजी का पत्र, जयसिंह के नाम’ विषय पर जो बौद्धिक हुआ,
उससे प्रेरित होकर उन्होंने अपना जीवन संघ कार्य हेतु समर्पित कर दिया. अब
वे अध्यापन कार्य के अतिरिक्त शेष सारा समय संघ कार्य में लगाने लगे.
उन्होंने घर में बता दिया कि वे विवाह के बन्धन में नहीं बंधेंगे.
प्राध्यापक रहते हुये रज्जू भैय्या अब संघ कार्य के लिये पूरे उत्तर प्रदेश में प्रवास करने लगे. वे अपनी कक्षाओं का तालमेल ऐसे करते थे, जिससे
छात्रों का अहित न हो तथा उन्हें सप्ताह में दो-तीन दिन प्रवास के लिये मिल जाएं. पढ़ाने की रोचक शैली के कारण छात्र उनकी कक्षा के लिए उत्सुक रहते
थे. रज्जू भैय्या सादा जीवन उच्च विचार के समर्थक थे. वे सदा तृतीय श्रेणी
में ही प्रवास करते थे तथा प्रवास का सारा व्यय अपनी जेब से करते थे. इसके
बावजूद जो पैसा बचता था, उसे वे चुपचाप निर्धन छात्रों की फीस तथा पुस्तकों पर व्यय कर देते थे. 1966 में उन्होंने विश्वविद्यालय की नौकरी से
त्यागपत्र दे दिया और पूरा समय संघ को ही देने लगे.
अब उन पर उत्तर प्रदेश के साथ बिहार का काम भी आ गया. वे एक अच्छे गायक भी थे. संघ शिक्षा वर्ग की गीत कक्षाओं में आकर गीत सीखने और सिखाने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता था. सरल उदाहरणों से परिपूर्ण उनके बौद्धिक ऐसे होते थे, मानो कोई अध्यापक कक्षा ले रहा हो.
उनकी योग्यता के कारण उनका कार्यक्षेत्र क्रमशः बढ़ता गया. आपातकाल के समय भूमिगत संघर्ष को चलाए रखने में रज्जू भैय्या की बहुत बड़ी भूमिका थी. उन्होंने प्रोफेसर गौरव कुमार के छद्म नाम से देश भर में प्रवास किया. जेल में जाकर विपक्षी नेताओं से भेंट की और उन्हें एक मंच पर आकर चुनाव लड़ने को प्रेरित किया. इसी से इन्दिरा गांधी की तानाशाही का अन्त हुआ.
1977 में रज्जू भैय्या सह सरकार्यवाह, 1978 में सरकार्यवाह और 1994 में सरसंघचालक बने. उन्होंने देश भर में प्रवास कर स्वयंसेवकों को कार्य विस्तार की प्रेरणा दी. बीमारी के कारण उन्होंने सन् 2000 में श्री सुदर्शन जी को यह दायित्व दे दिया. इसके बाद भी वे सभी कार्यक्रमों में जाते रहे. अन्तिम समय तक सक्रिय रहते हुये 14 जुलाई, 2003 को कौशिक आश्रम, पुणे में रज्जू भैय्या का देहान्त हो गया