अरुण उपाध्याय : पितर शब्द के अर्थ-वेद के आधार पर इसका विस्तृत वर्णन दो पुस्तकों में है-(१) पण्डित मधुसूदन ओझा की पितृ-समीक्षा-हिन्दी व्याख्या सहित जोधपुर विश्वविद्यालय के मौधुसूदन ओझा शोध प्रकोष्ठ से प्रकाशित। (२) ओझा जी के शिष्य पण्डित मोतीलाल शर्मा का श्राद्ध विज्ञान, खण्ड-२, राजस्थान पत्रिका, जयपुर से प्रकाशित।
श्रुति में पितर शब्द कई अर्थों में प्रयुक्त हुआ है-१. अग्नि (सघन ताप या तेज, सीमाबद्ध पिण्ड अग्नि है), २. सोम (विरल फैला हुआ तेज या पदार्थ), ३. ऋतु (समरूप परिवेश या क्षेत्र), ४. संवत्सर (पृथ्वी कक्षा, कक्षा में पृथ्वी का परिक्रमा काल, सौर-चान्द्र मास का समन्वय जिसके अनुसार समाज चलता है, गुरु का मध्यम गति से १ राशि का भ्रमण काल, सौर मण्डल जहां तक १ वर्ष में सूर्य किरण पहुंचती है), ५. विट् (समाज, उसका पालक वैश्य), ६. मास, ७. ओषधि (जो वृक्ष फल पकने पर समाप्त होता है, बाकी वनस्पति हैं), ८. यम (अष्टाङ्ग योग का प्रथम अङ्ग, निषेध के नियम, नियन्त्रण, भारतवर्ष की पश्चिमी सीमा के राजा, शनि का अन्धकार भाग, दक्षिण दिशा), ९. अपराह्ण (दिन का अन्तिम भाग), १०. कूप (पानी के लिये खोदा गया गड्ढा, खाली स्थान जैसे रोमकूप, नदी के बीच वृक्ष), ११. नीवि (वस्त्र को कमर में बान्धने का नाड़ा, मूलधन या सम्पत्ति), १२. मघा (इस नक्षत्र के पितर देवता हैं), १३. मन, १४. ह्लीक (लज्जा या संकोच, पिता, नेवला, दीवाल की नींव या आधार), १५. ऊष्मा (पितरों का एक गण जो यमसभा में यमराज की उपासना करता है। महाभारत, सभा पर्व ८/३०-अग्निष्वात्ताश्च पितरः फेनपाश्चोष्मपाश्च ये। स्वधावन्तो वर्हिषदो मूर्तिमन्तस्तथापरे॥, गीता, ११/२२, महाभारत सभापर्व, १०९/२ के अनुसार दक्षिण दिशा में ऊष्मपा पितर रहते हैं-अत्र लोकत्रयस्यास्य पितृपक्षः प्रतिष्ठितः। अत्रोष्मपाणां देवानां निवासः श्रूयते द्विज॥), १६. ऊम (मित्र, सहचर), १७. ऊर्व (वड़वानल = समुद्र के भीतर की अग्नि, जल का पात्र, या समुद्र, मेघ, पशु रखने का स्थान, एक प्रकार के पितर, और्व ऋषि द्वारा सगर का जन्म), १८. काव्य (सृष्टि रचना, रसात्मक वाक्य, किसी तात्कालिक घटना का वर्णन वाक्य, उसका शाश्वत रूप काव्य), १९. देव (आकाश, पृथ्वी या शरीर के भीतर प्राण, एक मनुष्य जाति जो अपने यज्ञ या उत्पादन पर निर्भर है, असुर लूट पर निर्भर, जिस प्राण से सृष्टि होती है वह देव प्राण, निष्क्रिय असुर प्राण), २०.-प्राण (ऊर्जा, गति या क्रियात्मक शक्ति, जीवन), २१. रात्रि (शान्त अवस्था में सृष्टि या निर्माण होता है), २२. अवान्तर दिशायें (एक दिशा में गति होने से निर्माण नहीं होता, सांख्य अनुसार सञ्चर-प्रतिसञ्चर दोनों होना चाहिये, ईशावास्योपनिषद् का सम्भूति-असम्भूति), २३. तिर (तिरछा, पार करना, ऋग्वेद १०/१२९/५ के नासदीय सूक्त में सृष्टि का प्रकार-तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषा), २४. सुप्त भाव (शान्त अवस्था में सृष्टि), २५. अग्नि से खाया जाने वाला तत्त्व (अग्निष्वात, निर्माण स्थान में ऊर्जा द्वारा कुछ वस्तु का उपयोग होने से नया निर्माण), २६. मर्त्य तत्त्व (निर्माण के लिये पुराना रूप नष्ट होकर नया बनता है), २७. प्रजापति (प्रजा का पालन, उसके लिये निर्माण), २८. गृहपति (यह भी परिवार का पालन करता है), २९. वाक्-मन का समुच्चय (वाक् = क्रिया या उसका क्षेत्र, मन -निर्माण के लिये चेतन तत्त्व), ३०. अन्न-मूल कृषि यज्ञ के प्रसंग में गीता ३/११-१३ में इसका प्रयोग है-यज्ञ से पर्जन्य तथा पर्जन्य से अन्न होता है। बाकी यज्ञों में कोई भी दृश्य या अदृश्य उत्पाद अन्न है, उत्पादन के साधन पर्जन्य हैं, एक यज्ञ के अन्न से अन्य यज्ञ में उत्पादन-पुरुष सूक्त-यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः)। ३१. मित्र, वरुण-अर्यमा (इनकी व्याख्या नीचे है)। अन्य भी कई अर्थ हैं।
पितृ शब्द की उत्पत्ति पा रक्षणे (धातुपाठ २/४९) धातु से है। जो पालन या रक्षण करे वह पितृ है। इसका एकवचन रूप पिता = जन्म या पालन करने वाला पुरुष है। द्विवचन पितरौ का अर्थ माता-पिता है। बहुवचन पितरः का अर्थ सभी पूर्वज हैं। व्यापक अर्थ में पितर के लिये जितने शब्द प्रयुक्त हैं, वे किसी न किसी प्रकार सृष्टि की उत्पत्ति या पालन करते हैं। ऋषिभ्यः पितरो जाताः पितृभ्यो देवदानवाः। देवेभ्यश्च जगत् सर्वं चरं स्थाण्वनुपूर्वशः॥ (मनुस्मृति, ३/२०१)
= ऋषियों से पितर हुए, पितरों से देव-दानव, देवों से पूरा जगत् हुआ। जगत् में अनुपूर्वशः चर और स्थाणु लिखा है। यह निश्चित रूप से मनुष्य या अचर नहीं है जो आगे पीछे के क्रम से हों (अनुपूर्वशः)। इसमें चर-अचर का कोई निश्चित क्रम नहीं है। जो आज चर है, वह प्राण या शक्ति समाप्त होने पर अचर हो जायेगा। यहां केवल अचर नहीं, स्थाणु अर्थात् धुरी जैसा स्थिर कहा है। ये ३ प्रकार के परमाणु के कण हैं। स्थाणु = भारी, परमाणु की नाबि के कण, जिनको संयुक्त रूपसे बेरिओन (भारी) कण कहते हैं। हलके चक्कर लगाने वाले सभी कणों को लेप्टान कहते हैं। विभिन्न कणों को जोड़ने वाले कण मेसोन (राज मिस्त्री) हैं। यह जगत् का सूक्ष्म रूप है। इनकी उत्पत्ति देवों से हुई। दानव या असुर प्राण उत्पादक नहीं हैं। देव-दानव पितरों से हुए, इनको आज की भाषा में क्वार्क कहा जा सकता है। यहां पितर का अर्थ हुआ प्रोटो-टाईप, निर्माणाधीन अवस्था।
मनुष्य से छोटे विश्व के ७ स्तर क्रमशः १-१ लाख भाग छोटे हैं-१. कलिल (सेल), २. जीव (अणु, श्वेताश्वतर उपनिषद् ५/९ के अनुसार यह बालाग्र का १०,००० भाग, अर्थात् परमाणू है जो कल्प या रासायनिक क्रिया में नष्ट नहीं होता है), ३. कुण्डलिनी (परमाणु की नाभि), ४. जगत्-परमाणु के ३ प्रकार के कण, ५. देव-दानव, ६. पितर, ऋषि (रस्सी, दो कणों को जोड़े, ब्रह्म-मनुष्य को जोड़े, वंश क्रम को जोड़े)।
वालाग्र शत साहस्रं तस्य भागस्य भागिनः। तस्य भागस्य भागार्धं तत्क्षये तु निरञ्जनम् ॥ (ध्यानविन्दु उपनिषद् , ४)
= (मनुष्य से छोटे स्तर ७ हैं) वालाग्र १०० हजार भाग है, इतना ही भाग पुनः ६ बार करें।
वालाग्रमात्रं हृदयस्य मध्ये विश्वं देवं जातरूपं वरेण्यं (अथर्वशिर उपनिषद् ५)
अनाद्यनन्तं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्रष्टारमनेकरूपम् ।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्व पाशैः ॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद्, ५/१३) = कलिल भी विश्व का एक रूप है।
वालाग्र शत भागस्य शतधा कल्पितस्य च ॥
भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते ॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद्, ५/९)
षट्चक्र निरूपण, ७-एतस्या मध्यदेशे विलसति परमाऽपूर्वा निर्वाण शक्तिः कोट्यादित्य प्रकाशां त्रिभुवन-जननी
कोटिभागैकरूपा । केशाग्रातिगुह्या निरवधि विलसत .. ।९। अत्रास्ते शिशु-सूर्यकला चन्द्रस्य षोडशी शुद्धा नीरज
सूक्ष्म-तन्तु शतधा भागैक रूपा परा ।७। = बालाग्र का कोटि भाग। इसका १००वां भाग सूक्ष्म तन्तु, परमाणु की नाभि के बराबर है।
असद्वा ऽइदमग्र ऽआसीत् । तदाहः – किं तदासीदिति । ऋषयो वाव तेऽग्रेऽसदासीत् । तदाहुः-के ते ऋषय इति ।
ते यत्पुराऽऽस्मात् सर्वस्मादिदमिच्छन्तः श्रमेण तपसारिषन्-तस्मादृषयः (शतपथ ब्राह्मण, ६/१/१/१) = जो श्रम और तप से खींचते हैं (रस्सी की तरह) वे ऋषि हैं।
इस क्रम में ऋषि का आकार मनुष्य आकार १.३५ मीटर (लम्बाई चौड़ाई का औसत) का १० घात ३५ भाग छोटा होगा। यह आधुनिक भौतिक विज्ञान में सबसे छोटी दूरी है जिसे प्लाङ्क दूरी कहते हैं। भागवत पुराण (३/११/४) के अनुसार इस दूरी को प्रकाश जितने समय में पार करता है, वह काल का परमाणु है (१ सेकण्ड का १० घात ४३ भाग)-स कालः परमाणुर्वै यो भूङ्क्ते परमाणुताम्। इसी कालमान से स्टीफेन हाकिंस ने समय का इतिहास शुरु किया है (A Brief History of Time)।
आकाश के पितर-आकाश में ३ मुख्य धाम हैं-१०० अरब ब्रह्माण्डों का समूह दृश्य जगत् उत्तम धाम, हमारा ब्रह्माण्ड (आकाशगङ्गा) मध्यम धाम, सौर मण्डल (अवम धाम)। रस रूप अव्यक्त स्रोत परम धाम है। हर धाम में १ पृथ्वी (माता) तथा उसका आकाश (पिता) है। विष्णु पुराण (२/७/३-४) के अनुसार इनका विभाजन सूर्य-चन्द्र के प्रकाशित भाग से है। दोनों से प्रकाशित पृथ्वी ग्रह है। सूर्य द्वारा प्रकाशित भाग सौर मण्डल की पृथ्वी है। सूर्य प्रकाश की अन्तिम सीमा (विष्णु का परम पद) जहां वह विन्दु मात्र दीखता है वह तीसरी पृथ्वी ब्रह्माण्ड है। मनुष्य से पृथ्वी जितनी बड़ी है (१ कोटि गुणा), हर पृथ्वी से उसका आकाश उतना ही बड़ा है। अर्थात् अम्नुष्य से आरम्भ कर पृथ्वी, सौर पृथ्वी, ब्रह्माण्ड, दृश्य जगत् क्रमशः १-१ कोटि गुणा बड़े हैं। विश्व का मूल स्रोत आदित्य था जिससे ३ धामों का निर्माण का आदि हुआ। अभी प्रायः वैसा रूप अन्तरिक्ष (हर धाम में भूमि-द्यौ के बीच का स्थान) में दीखता है। उत्तम धाम का आदित्य अर्यमा (ब्रह्माण्डों के बीच का स्थान का पदार्थ) है। ब्रह्माण्ड का आदित्य वरुण (ताराओं के बीच का पदार्थ) है, यह मद्य है, अतः वारुणि का अर्थ मद्य है-ऋक् १/१५४/४)। सौर मण्डल का आदित्य मित्र है जो ग्रहों के बीच का पदार्थ है। आर्यमा, वरुण, मित्र-ये ३ धामों के पितर हुए। अतः सबसे बड़े धाम के पितर अर्यमा को भगवान् ने अपना रूप कहा है (गीता, १०/२९)। पृथ्वी पर इनके अलग अर्थ हैं-मित्र देश ईरान, वरुण देश इराक-अरब है। अर्यमा स्पष्ट नहीं है, पर इसका शाब्दिक अर्थ देश का प्रमुख है (अर्यमा = आजम)। मित्र का अर्थ निकट, वरुण क अर्थ दूर, अर्यमा = पूरा समाज। आकाश में पूर्व क्षितिज मित्र तथा पश्चिमी क्षितिज वरुण है। स्थिर आधार अर्यमा है। यज्ञ में स्थिर यूप दण्ड अर्यमा का प्रतीक है।
तिस्रो भूमीर्धारयन् त्रीरुत द्यून्त्रीणि व्रता विदथे अन्तरेषाम् ।
ऋतेनादित्या महि वो महित्वं तदर्यमन् वरुण मित्र चारु ॥ (ऋग्वेद २/२७/८)
या ते धामानि परमाणि यावमा या मध्यमा विश्वकर्मन्नुतेमा । (ऋग्वेद १०/८१/४)
रवि चन्द्रमसोर्यावन्मयूखैरवभास्यते । स समुद्र सरिच्छैला पृथिवी तावती स्मृता ॥
यावत्प्रमाणा पृथिवी विस्तार परिमण्डलात्। नभस्तावत्प्रमाणं वै व्यास मण्डलतो द्विज ॥ (विष्णु पुराण २/७/३-४)