अभिजीत सिंह ; लेख का प्रारम्भ अत्रि विक्रमार्क अन्तर्वेदी जी की श्रीसूक्त के पद की व्याख्या से करते हैं, फिर आगे बात करेंगे –
उपैतु मां देवसख: कीर्तिश्च मणिना सह।प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे।।अर्थात् हे देव, हमें देवों के सखा कुबेर, और उनकेमित्र मणिभद्र तथा दक्षप्रजापति की कन्या कीर्ति (यश)उपलब्ध करायें, जिससे हमें और राष्ट्रको कीर्ति-समृद्धि प्राप्त हो।ऋग्वेद के परिशिष्ट में प्राप्त श्रीसूक्त का यह सातवाँ मन्त्र है ।उपैतु मां देवसख : कीर्तिश्च मणिना सह ।प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे ॥७॥हे महादेव सखा कुबेर ! मुझे मणि के साथकीर्ति भी प्राप्त हो । मैं इस राष्ट्र मेंजन्मा हूँ । इसलिए यह मुझे कीर्ति और धन दें ।
प्रस्थला मद्रगान्धारा आरट्टा नामतः खशाः ।वसातिसिन्धुसौवीरा इति प्रायोऽतिकुत्सिताः॥–कर्णपर्व ४४. आरट्टा नाम ते देशा बाह्लीका नाम ते जनाः |वसातिसिन्धुसौवीरा इति प्रायो विकुत्सिताः ||(पाठान्तर)
धर्म हमारे राष्ट्र के कण-कण में संव्याप्त है इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद आध्यात्मिक राष्ट्रीयता केरूप में जाना जाता रहा है। यही कारण रहा हैकि हमारे ऋषियों ने भारत भूमि को माता कहा है। “माता भूमि पुत्रोहं पृथिव्याः” वाला यह राष्ट्र ही है जहाँ ऋषियों ने ब्रह्मज्ञान पाया व ब्रह्मसाक्षात्कार किया। विश्व को परिवार माननेकी सुंदर कल्पना भी इसी भूमि से उपजी है।राष्ट्र का शाब्दिक अर्थ है-रातियों का संगम स्थल। राति शब्द देनेका पर्यायवाची है। राष्ट्रभूमि औरराष्ट्रजनों की यह संयुक्त इकाई राष्ट्र ईसीलिए कही जाती हैकि यहाँ राष्ट्रजन अपनी-अपनी देन राष्ट्रभूमि के चरणों में अर्पित करते है।स्वामी विवेकानंद ने राष्ट्र को व्यष्टि का समष्टि में समर्पण कहते हुएइसकी व्याख्या की है। आध्यात्मिक राष्ट्रीयता के उद्घोषक श्री अरविंद ने कहा है-राष्ट्र हमारी जन्मभूमि है। मनुस्मृति हमारे देश की साँस्कृतिक यात्रा की ओर संकेत करती है। भगवान मनु कहते हैं कि भारतवर्ष रूपी यह पावन अभियान सरस्वती और दृषद्वती नामक दो देवनदियों के मध्य देव विनिर्मित देश ब्रह्मावर्त से आरंभहुआ। सरस्वतीदृषद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम् ।तं देवनिर्मितं देशं ब्रह्मावर्तं प्रचक्षते ।।तस्मिन्देशे य आचार: पारम्पर्यक्रमागत: ।वर्णानां सान्तरालानां स सदाचार उच्यते ।।एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन: ।स्वं स्वं चरित्रम् शिक्षेरन्पृथिव्यां सर्वमानवा: ।।–मनुस्मृति १/१३६,१३७,१३९
इस प्रकार मनु महाराज द्वारा सदाचार, नैतिकता देवत्व के सम्वर्द्धन प्रचार प्रसार में विश्वास रखने वाली भारतीय संस्कृति को बताया गया है। महाभारत के भीष्म पर्व में भारतकी यशोगाथा का वर्णन कुछ इस तरह हुआ है-अत्रतेकीर्तयिष्यामिवर्षभारतभारतम्।प्रिययमिंद्रस्यदेवस्यमनोवैंवस्वतस्यच॥अर्थात् “हे भारत! अब मैं तुम्हें उस भारतवर्ष की कीर्ति सुनाता हूँ, जो देवराज इन्द्र को प्यारा था, जिस भारत को वैवस्वत मनु ने अपना प्रियपात्र बनाया था, भारतीय राष्ट्रवाद की व्याख्या करते हुए विष्णुपुराण में लिखा है- उत्तरम् यत् समुद्रस्य हिमाद्रे: चैव दक्षिणम्। वर्षम् तद्भारतम् नाम भारती यत्र संतति:’ (२,३,१)।इस प्रकार हमारे देश का प्राचीन नाम ब्रह्मावर्त और भारतवर्ष है ।✍🏻अत्रि विक्रमार्क अन्तर्वेदी
अर्थववेद में ऋषियों ने कहा- भद्रं इच्छन्तः ऋषयः स्वर्विदः / तपो दीक्षां उपसेदु: अग्रे/ ततो राष्ट्रं बलं ओजश्च जातम्/ तदस्मै देवाः उपसं नमन्तु यानि आत्मज्ञानी ऋषियों ने जगत का कल्याण करने की इच्छा से सृष्टि के आरंभ में जो दीक्षा लेकर तप किया था, उससे राष्ट्र-निर्माण हुआ, राष्ट्रीय बल और ओज भी प्रकट हुआ। इसलिये सब विबुध होकर इस राष्ट्र के सामने नम्र होकर इसकी सेवा करें।
इस राष्ट्र का सीमांकन करते हुये ऋग्वेद में ऋषि में कहा था- यस्य इमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रंरसया सह आहुः। यस्येंमे प्रदिशो यस्य तस्मै देवा हविषा विधेम।। अर्थात् हिमवान हिमालय जिसका गुण गा रहा है, नदियों समेत समुद्र जिसके यशोगान में निरत है, बाहु सदृश दिशाएं जिसकी वन्दना कर रही है, उस राष्ट्र-देव को हम अपना हविष्य अर्पित करें।
ऋषियों ने बार-बार जिस राष्ट्र-देव के आराधना और सेवा की बात की उसकी भगौलिक सीमाओं के बारे में जानने का सबसे अच्छा तरीका ये है कि वेदों में वर्णित नगर, नदी और स्थान जहाँ भी पायें जायें उसे ही हम वृहत्तर भारत की सीमा मान लें और अगर हम ऐसा करते हैं तो पश्चिम में हमें मिलता है आज का अफगानिस्तान जो कम से कम सातवीं-आठवीं सदी तक वृहत्तर भारत का हिस्सा था और पूर्ण हिन्दू था और जहाँ के अफ़रीदी और पख्तून लोगों का विशद वर्णन हमारे ऋग्वेद में मिलता है, जहाँ की नदियों, शहरों और पहाड़ों के नाम हमारे वेदों में बहुतायत से आयें हैं। जिन नदियों को आजकल हम आमू और काबुल नामों से जानते हैं, उन्हें वेदों में वक्षु और कुभा नदी कहा गया है। आमू दरिया वही है जिसे पार कर ह्वेनसांग भारत आये थे। इसी तरह वर्तमान काबुल संस्कृत साहित्य में कुभा नाम से जाना जाता था, आज का कांधार कभी गांधार था और स्वात को हम सुवास्तु नाम से जानते थे। बुद्ध अफगानिस्तान में लगभग 6 माह ठहरे थे। 843 ईस्वी में कल्लार नामक राजा ने अफगानिस्तान में हिन्दूशाही की स्थापना की थी और उन हिन्दू राजाओं को ‘काबुलशाह’ या ‘महाराज धर्मपति’ कहा जाता था। इन राजाओं में जयपाल और आनंदपाल का नाम तो इतिहास में रूचि रखने वाले लोग अवश्य जानते होंगे क्योंकि इन राजाओं ने लगभग 350 साल तक अरब आततायियों से मोर्चा लिया और उनको कभी सिंधु नदी पार करके भारत में घुसने नहीं दिया, लेकिन 1019 में महमूद गजनी से त्रिलोचनपाल की हार के साथ अफगानिस्तान का हिन्दू इतिहास समाप्त हो गया और आज हालत ये है कि कभी हिन्दू राज्य रहे अफगानिस्तान में आज कुछेक हज़ार हिन्दू भी नहीं बचे हैं। देवी-देवताओं की भव्य-प्रतिमाएं किसी अजायबघर की धूल फाँक रहीं हैं तो बामियान की बुद्ध प्रतिमायें तालिबान के ध्वंस चिन्हों को सजाये अपनी संततियों को लज्जित कर रही है।
ये सब लिखने का हेतू ये नहीं है कि अफगानिस्तान के लिये आँसू बहाये जाये बल्कि ये है कि उन बिन्दुओं पर विमर्श हो जिसने अफगानिस्तान का ये हाल कर दिया। हिन्दुशाही राजा वीर थे, राष्ट्रभक्त थे और उनका राज्य उन सब मानकों पर खड़ा उतरता था जिस आधार पर किसी राज्य को आदर्श राज्य कहा जाये। मुस्लिम इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार हिन्दूशाही राजाओं के खजाने को जब लूटा गया और लूट के माल को गजनी में प्रदर्शित किया गया तो पड़ोसी मुल्कों के राजदूतों की आंखें फटी की फटी रह गईं कि कोई राज्य इतना वैभवशाली भी हो सकता है। अलबरूनी और अल-उतबी ने लिखा है कि हिन्दूशाहियों के राज में मुसलमान, यहूदी, बौद्ध और हिन्दू सभी लोग मिल-जुलकर रहते थे और शासन द्वारा उनमें भेदभाव नहीं किया जाता था बल्कि उन्हें भी वो तमाम अधिकार प्राप्त थे जो किसी हिन्दू प्रजा को थे।
ये सब लिखने का हेतू ये है कि हमें इन प्रश्नों के उत्तर तलाशने हैं कि क्या खंडित राष्ट्रदेव की प्रतिमा की उपासना की जा सकती है? क्या राष्ट्र के अंदर सभी नागरिकों को भले ही उसकी राष्ट्रीय निष्ठा कुछ भी हो एक समान माना जा सकता है? क्या राष्ट्र-हित में स्वजन और परकीय मानसिकता का भेद नहीं मानना चाहिये? अगर सबके विकास और सबके हित की भावना से राष्ट्र की जड़े और उसके मूल नागरिकों की सुरक्षा संदिग्ध होती हो तो भी केवल “पोलिटिकल करेक्टनेस” के चलते उसे करते चले जाना सही है? मुहम्मद बिन क़ासिम सिंध को लूटने नहीं आया था बल्कि राजा दाहिर की शरणागत वत्सलता ने उसे आने पर मजबूर किया था। खोखले आदर्शवाद, इतिहास में अमर होने की चाह और पोलिटिकल करेक्टनेस की बीमारी ने दाहिर को तो मृत्यु के मुख में पहुँचाया ही साथ ही उसकी मासूम बेटियों को न जाने कितने दर्द झेलने पड़े और भारत के लिये अनवरत आक्रमणों का द्वार खुल गया। यही गलती अफगानिस्तान के भी हिन्दू राजाओं ने की थी जिसने नतीजे में कभी हिन्दू सूर्य से आलोकित होने वाला अफगानिस्तान आज भारत जीतने की मंशा रखने वाले लोगों की पनाहगाह है और बुद्ध की विशाल प्रतिमाएं और भग्न मठ वहां तालिबान के बम-बारूदों से छलनी हमको हमारी क्लीवता का एहसास करा रहे हैं।
ऐसे में प्रश्न ये है कि क्या हम अतीत से कुछ सीखेंगे या फिर “पोलिटिकल करेक्टनेस” की बीमारी हमारा सम्पूर्ण नाश करके ही मानेगी? आज नहीं तो कल….कल नहीं तो परसों….परसों नहीं तो तरसों….शेष भारत की नियति भी अफगानिस्तान और सिंध हो जाना ही है….ये बात काल के कपाल पर लिखी इबारत है जिसे कोई न देखना चाहे तो क्या कहा जाये….हाँ ! चूहे के आँख बंद कर लेने से अगर बिल्ली भाग जाये तो और बात है.
माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या- महाभारत*******************************************ये धरती हमारी माता है और हम इसके पुत्र है।धरती माता हमारे जीवन के अस्तित्व का एक प्रमुख आधार है, हमारा पोषण करती है। इसलिए वेद आगे कहते है — “उप सर्प मातरं भूमिम् ” — हे मनुष्यो मातृभूमि की सेवा करो । अपने राष्ट्र से प्रेम करो , राष्ट्र के साथ द्रोह करना धर्म के साथ द्रोह करना ही है ।देश के प्रति इस तरह निष्ठा रखना, अपनी मातृभूमि के प्रति ऐसी श्रद्धा व प्रेमभाव रखना जैसे भाव केवल और केवल “सनातन वैदिक धर्म ” ही प्रकट करता है । अन्य किसी भी धर्म के ग्रंथ मे राष्ट्रभक्ति के लिए दो शब्द भी नहीं बोले गए है ।
वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः -यजुर्वेद
राष्ट्र संरक्षण का दायित्व सच्चे ब्राह्मणों पर ही हैं । राष्ट्र को जागृत और जीवंत बनाने का भार इनपर ही है ।
देशभक्त (हि) सचमुच (उग्रा:) तेजस्वी होते है।
अधि श्रियो दधिरे पृश्निमातर: ( ऋग्वेद 1/85/2)पृथ्वी को माता मानने वाले देशभक्त सम्मान को अपने अधिकार में रखतेहै।
वयं तुभ्यं बलिहृत: स्याम(अथर्ववेद 12/1/62)हम सब मातृभूमि के लिए बलिदान देने वाले हों।
*यतेमहि स्वराज्ये(ऋग्वेद 5/66/6) हम स्वराज्य के लिए सदा यत्न करें
यस्मान्नानयत् परमस्ति भुतम् (अथर्ववेद 10/7/31)स्वराज्य से बढ़कर और कुछ उत्तम नहीं है।
उग्रा हि पृश्निमातर:( ऋग्वेद 1/23/10) देशभक्त (हि) सचमुच (उग्रा:) तेजस्वी होते है
‘जननी-जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’जननी (माता) और जन्मभूमि का स्थान स्वर्ग से भी श्रेष्ठ एवं महान है । हमारे वेद,दर्शन धर्मग्रंथ सदियों से दोनों की महिमा का बखान करते रहे हैं ।
माता का प्यार, दुलार व वात्सल्य अतुलनीय है। इसी प्रकार जन्मभूमि की महत्ता हमारे समस्त भौतिक सुखों से कहीं अधिक है । लेखकों, कवियों व महामानवों ने जन्मभूमि की गरिमा और उसके गौरव को जन्मदात्री के तुल्य ही माना है ।
जिस प्रकार माता बच्चों को जन्म देती है तथा उनका लालन-पालन करती है, अनेक कष्टों को सहते हुए भी बालक की खुशी के लिए अपने सुखों का परित्याग करने में भी नहीं चूकती उसी प्रकार जन्मभूमि जन्मदात्री की भाँति ही अनाज उत्पन्न करती है ।
वह अनेक प्राकृतिक विपदाओं को झेलते हुए भी अपने बच्चों का लालन-पालन करती है । अत: किसी कवि ने सच ही कहा है कि वे लोग जिन्हें अपने देश तथा अपनी जन्मभूमि से प्यार नहीं है उनमें सच्ची मानवीय संवेदनाएँ नहीं हो सकतीं, मातृभूमि के लिए जीना-मरणा स्वर्ग फल देता है।
वेदों में राष्ट्रभक्ति
वयं तुभ्यं बलिहृत: स्याम(अथर्ववेद 12/1/62)हम सब मातृभूमि के लिए बलिदान देने वाले हों। अधि श्रियो दधिरे पृश्निमातर: ( ऋ. 1/85/2) पृथ्वी को माता मानने वाले देशभक्त सम्मान को अपने अधिकार में रखते है । उग्रा हि पृश्निमातर:( ऋ.1/23/10) (पृश्निमातर:) देशभक्त (हि) सचमुच (उग्रा:) तेजस्वी होते है।
यस्मान्नानयत् परमस्ति भुतम् (अथर्ववेद 10/7/31)स्वराज्य से बढ़कर और कुछ उत्तम नहीं है।
यतेमहि स्वराज्ये(ऋग्वेद 5/66/6)हम स्वराज्य के लिए सदा यत्न करें।
ये वेदों का दिशा निर्देश है जो वैदिक धर्मियों को सदैव राष्ट्रभक्त बनने की आज्ञा देता है ।