पं बद्री प्रसाद शास्त्री : श्रीमद्भागवत महापुराण की कथा में एसा क्या है जो लोग अपने सारे जगत के प्रपंचों को छोड, भागवत का नाम मात्र सुनते ही कथा सुनने के लिए दौडकर चले जाते हैं | पर एसा भी केवल वही करते हैं जिन्हें “प्रभु-कृपा” का अनुभव हो चुका हो | आइये जानते हैं इस महापुराण के विषय में | द्द्वापरे समनुप्राप्ते तृतीये युगपर्यये | जात: पराशराधोगी वासव्यां कलय हरे: || इस वर्तमान चतुर्युगी के तीसरे युग द्वापर में महर्षि पराशर के द्वारा वसु-कन्या सत्यवती के गर्व से भगवान के कलावतार योगिराज व्यास जी का जन्म हुआ | यमुनाजी के द्वीप में जन्म होने के कारण व्यास जी को कृष्ण द्वेपायान तथा बदरीवन में तपस्या करने के कारण बादरायण भी कहा जाता है | जन्म लेते ही इन्होने अपने माता-पिता से जंगल में जाकर तपस्या करने की इच्छा प्रकट की | प्रारम्भ में इनकी माता सत्यवती ने इन्हें रोकने का प्रयास किया, किन्तु लौट आने का वचन देने पर उन्होंने इनको वन जाने की आज्ञा दे दी | आज्ञा मिलने पर ब्यास जी सीधे बदरीवन जहाँ सरस्वती नदी का उद्गमस्थान, {सम्यप्रास आश्रम} “बदरीविशाला-धाम” को चले गये | चौबीस अवतारों में ब्यासजी भगवान नारायण के अठारहवें अवतार हैं | ब्यासजी भगवान नारायण के कलावतार माने गये हैं | कलावतार उन्हें कहते है जब भगवान जीवों को उपदेश देकर “मार्ग-दर्शन” करते हैं | जैसे कपिल भगवान और ब्यासजी हुए | इन्होने जोवों का “पथ-प्रदर्शन” किया, मानों भगवान कहना चाहते हैं कि हे जीव, हमने तुम्हें “प्रभु-प्राप्ति” का मार्ग बता दिया है उस पर चलना न चलना, मानना न मानना तेरा काम है | ब्यासजी को बदरीवन में जाकर अलौकिक “दिब्य-दृष्टि”, “भूत-वर्तमान-भविष्य” तीनों कालों का ज्ञान, अंगोंसहित “सम्पूर्ण-वेद”, “पुराण”, “इतिहास” और “परमात्मतत्व” का ज्ञान स्वत: ही प्राप्त हो गया | एक दिन वे सूर्योदय के समय सरस्वती नदी के पवित्र जल में स्नानादि करके बैठे हुए थे तो उन्होंने अपनी अचूक दिब्य-दृष्टि “भविष्य” आनेवाले समय पर डाली, तो देखा कि कलियुग में “जीवों” का कैसे कल्याण होगा, क्योंकि लोगोंकी बुद्धि भी मंद, भाग्य भी मंद | कोई बुद्धि से हीन हो, पर भाग्यवान है, तो काम चल जायेगा, या कोई भाग्यहीन हो, पर बुद्धिमान है, तो भी काम चल जायेगा, पर जो बुद्धि और भाग्य दोनों से मंद हों तो उनका क्या होगा | बस इसी चिंता का चिंतन करने लगे ब्यासजी, एसे जीवों का कैसे कल्याण होगा, तब व्यासजी महाराज ने एक वेद के चार-भाग कर दिए ॠग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद | एक वेद के चार-भाग कर तो दिए पर चित को शांति नही मिली | क्योंकि वेदों के श्लोक सभी के समझ में नही आते |……..१
बड़ा कठिन है वेद पढ़ना | वेद ज्ञान का भंडार तो है, पर सभी उसको समझ नही पाते | यहीं से संसार ब्यासजी को “भगवान-वेदब्यास” के नाम से जानने लगा | इसके पश्चात वेदब्यास जी महाराज ने वेदों को सरल कर पंचम-वेद “महाभारत” का निर्माण कर डाला | जिसकी गति वेदों में न हो, वो “महाभारत” का अध्यन करें | लेकिन फिर भी वेदब्यासजी के मन को संतोष नही मिला, तब पुराणों को लिखना प्रारम्भ किया | लिखते-लिखते “सत्रह-पुराण” लिख डाले, पर जो मन को संतोष मिलना चाहिए था नही मिला | मन में विचार चल रहा था कि इतना कुछ लिख दिया पर मेरे मन में ये असंतोष क्यों छाया हुआ है, अभी बिचार चल ही रहा था कि कानों में “श्रीहरि-नाम-संकीर्तन” कि ध्वनि सुनाई पड़ी, श्रीमन्-नारायण-नारायण-नारायण | लक्ष्मी नारायण-नारायण-नारायण, देवर्षि नारदजी अपनी वीणा पर “श्रीहरिनाम-संकीर्तन” करते हुए व्यासजी के सामने प्रगट होगये:-तमभिज्ञाय सहसा प्रत्युत्थायागतं मुनि: |पूजयामास विधिवन्नारदं सुरपूजितम् || उन्हें आया देख ब्यासजी तुरंत खड़े होगये और बड़े-बड़े देवताओं के द्वारा पूजित नारदजी की विधिवत पूजा की | अथिति का अथोचित पूजन किया, अथिति पूजन के पश्चात नारदजी को बिठाया | आसन पर बैठकर नारदजी बोले:-पाराशर्य महाभाग भवत: कच्चिदात्मना | परितुष्यति शारीर आत्मा मानस एव वा || हे पराशर नन्दन पाराशरजी आपका मुख मंडल थोड़ा मलिन सा दिख रहा है, आपका पूजा-पाठ ठीक तो चल रहा है, कोई दिक्कत तो नही है, आपका धर्म-कर्म ठीक तो चल रहा है | ब्यासजी बोले:- नारदजी जो आपने पूछा वो सब ठीक चल रहा है | मेरे काम में कोई “बिघ्न-बाधा” नही हैं, पर ये सब जीवों के कल्याण के लिए मैने बड़े-बड़े ग्रंथों की रचना कर दी, पर फिर भी न जाने मेरे चित को क्यों संतोष नही मिल रहा है, अभी मेरे मन को पूर्ण संतुष्टि नही मिली, न जाने मेरा मन अभी संतुष्ट क्यों नही हैं |
तब नारदजी बोले:- तो क्या हम बताएं कि आपको संतोष क्यों नही मिल रहा है | ब्यासजी बोले:-नारदजी बड़ी कृपा होगी आपकी मुझपर, आप बताएं महाराज, क्या लिखना शेष रह गया होगा | तब श्रीनारद उवाच:- श्रीनारदजी बोले | अब ध्यान देने वाली बात ये है कि पहले केवल “नारद-उवाच” कहा और अब कह रहे हैं “श्रीनारद-उवाच” तात्पर्य यह है कि पहले केवल नारदजी बोल रहे थे, पर अब नारदजी बोलते हुए दिखाई दे रहें हैं परन्तु प्रेरणा देने वाले स्वयं परमात्मा हैं नारदजी के भीतर से परमात्मा बोल रहे हैं | ब्यासजी के मार्ग-दर्शन करने के लिए, इसलिए “श्री” लगाया, “श्रीनारद-उवाच”, क्योंकि अब नारदजी “भागवत” का उपदेश दे रहे हैं | भागवत का मतलव “भगवता-प्रभूतं” भगवान ने जो कहा | सबसे पहले भगवान ने भागवत का उपदेश ब्रह्माजी को दिया और ब्रह्माजी के भीतर बैठकर नारदजी को दिया और नारदजी के भीतर……२
बैठकर ब्यासजी को कहा और ब्यासजी के भीतर बैठकर सुकदेव को दिया, और भगवान ही सुकदेव के भीतर बैठकर परीक्षित को कहा | इसलिए बोलता हुआ कोई भी दिखाई पड़े पर वक्ता के भीतर बुलवाने वाले तो भगवान ही होते है | इसलिए “कथा-वक्ता” भगवत स्वरूप ही होते हैं | इसलिए अब नारदजी नही बोल रहे हैं | नारदजी के भीतर से भगवान बोल रहे हैं इसलिए “श्री” लगाया | नारदजी कहते हैं:- ब्यासजी आपने बहुत-कुछ लिखा, आपकी लेखनी ने बड़ा चमत्कार किया | कहीं-कहीं पर तो आपने एसा लिखा कि लोगों कि बुद्धि श्लोकों के अर्थ लगाने में चक्कर खा जाय और कहीं-कहीं पर आपने एसे-एसे वाक्य लिख दिए कि अर्थ का ही अनर्थ होगया | जैसे:- ‘हिंसा” पर रोक लगाने के लिए कहीं-कहीं पर हिंसा को ही नियम बना दिया | अमुक यज्ञ करते समय पर अमुक पशु का वलिदान कर दो | एक तरफ लिख रहे हो “अहिंसा परमो धर्म:” दूसरी तरफ लिख रहे हो “पशु-आलभ्येत” लोगों ने तो आपके वचन पकड़कर, “प्रमाण-पत्र” बनाकर, पशुओं को मारकर, “वली-प्रथा” ही बना दी | आपका उदेश्य तो यह नही था | आपने तो पशुओं के ऊपर दया करके यह लिखा था कि जो रोज-रोज पशु हत्या होती है वह काम हो जायेगी, जब कभी-कभार यज्ञ होगा तो एकाधा पशु ही मरेगा ९९ तो बच जायेंगे | रोज-रोज काटने वाले जीव बच जायेंगे, यह आपका उदेश्य था | आपका उदेश्य तो “निवृति-परक” था | कितना अच्छा आप बोल रहे थे, कितना अच्छा आप लिख रहे थे पर आपका “प्रतिपाध्य” विषय क्या है | आप बोल किसके बारे में रहे हो | आप कितना अच्छा बोल रहे हो, कितना ही व्याकरण सम्मत बोल रहे हो ये भगवान नही देखते | आप किस के विषय में बोल रहे हैं ये भगवान देखतें हैं, सुनते हैं | ब्यासजी जब तक आप भगवान कि “कीर्ति” का “गायन नही करोगे तब तक आपको संतोष प्राप्त नही होगा | न यद्वचशचित्रपदं हरेर्यशो जगत पवित्रं प्रगृणीत कर्हीचित् | तद वायसं तीर्थ मुशन्ति मानसा न यत्र हंसा निर्मन्त्यु शिक्क्षया: || हे ब्यासजी अपने कावों के लिए तो ठीक लिख दिया, आपने जो तालाव बनाया है उसमे कवे तो खूब गोते लगाएंगे पर जो मानसरोवर का हंस होगा वो तो आपके इस तालाव को छूएगा भी नही, कावों के साथ हंस थोड़े नही डूवकी लगाएंगे | आपने सब के बारे में बहुत अच्छा लिखा, आपने अपनी योग्यता का बहुत अच्छा परिचय दिया, पर जब तक आप गोविन्द के गुणानुवाद नही गायेंगे तब तक आपको संतोष प्राप्त नही होगा | क्योंकि ब्यासजी इन शास्त्रों को पढकर हमेंभी कोई शांति-संतोष नही मिलता | क्योंकि संसार का कोई भी कर्म हो, वह जबतक गोविन्द से न जुड़ा हो तो तब तक उसमे प्रेमानुभूति नही होती | उस ज्ञान की कोई शोभा नही जो गोविन्द से न जुड़ा हो | इसलिए ब्यासजी तब तक आपको शांति प्राप्त नही होगी |
लेखक पं बद्री प्रसाद शास्त्री, कथा वक्ता हैं उनका मूल-निवास:- ग्राम:-गैरी {ब्रहामणों की}, डाकघर:-रौणद, तह.:-प्रताप नगर, टिहरी गरवाल, उत्तराखण्ड , हाल-निवास:-रैत, काँगड़ा, हि.प्र.मो.
It is very good to know that we should attend the Bhagwaat session to feel the blessings of god. I thank to Pandit ji for enlighten us.