“क्यों श्रवण करते हैं श्रीमद्भागवत कथा” पाठकों के लिय उपयोगी सिद्ध करने के लिए हम इसे क्रम-वद्ध प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहें हैं | आज देवर्षि नारदजी के भीतर भगवान बैठकर वेदब्यास जी को “भगवत-नाम-गुणानुवाद” का उपदेश प्रदान कर रहें हैं | आइये जानते हैं कि ‘त्रिलोकी” में देवर्षि नारदजी और वेदब्यासजी के बिषय लोगों की क्या सोच हैं | देवर्षि नारदजी का नाम सुनते ही “इधर-उधर” बिचरण करने वाले ब्यक्ति कि अनुभूति होती है | आम धारणा यही है कि देवर्षि नारदजी यैसी “विभूति” हैं जो इधर की उधर करते रहते हैं | नारद इधर-उधर घूमते हुए “संवाद-संकलन” का कार्य करते हैं | इस प्रकार एक घुमक्कड़ किन्तु सही और सक्रिय-सार्थक संवाददाता कि भूमिका निभाते हैं और अधिक स्पष्ट शब्दों में कहें तो नारदजी देवर्षि ही नहीं “दिव्य-पत्रकार” भी हैं, जिस प्रकार संवाददाता जो खवर देतें हैं संपादक उन्हें ही छापतें है, यही बात यहाँ पर स्पष्ट है | देवर्षि नारदजी संवाददाता और महर्षि वेदब्यासजी संपादक की भूमिका में “जगत-कल्याण” के लिए प्रस्तुत है | महर्षि वेदब्यासजी विश्व के पहले संपादक है क्योंकि उन्होंने वेदों का संपादन करके यह निश्चित किया कि कौन-सा “मन्त्र” किस वेद में जायेगा अर्थात ऋग्वेद में कौन से मन्त्र होंगे, यजुर्वेद में कौन से, सामवेद में कौन से और अथर्ववेद कौन से | वेदों के श्रेणीकरण और सूचीकरण का कार्य भी वेदव्यासजी ने किया | वेदों के संपादन का यह महत्वपूर्ण कार्य “महाभारत” के लेखन से भी अधिक कठिन और महत्वपूर्ण था | देवर्षि नारदजी इस दुनियाँ के ही नही बल्कि पूरी “त्रिलोकी” के प्रथम संवाददाता हैं क्योंकि देवर्षि नारदजी ने इस लोक से उस लोक में परिक्रमा करते हुए संवादों के “आदान-प्रदान” द्वारा पत्रकारिता का प्रारम्भ किया इस प्रकार देवर्षि नारदजी पत्रकारिता के प्रथम-पुरुष, पुरोधा-पुरुष, पितृ-पुरुष और भागवतजी के अनुसार भगवान नारायण के ऋषियों कि सृष्टि में तीसरे अवतार माने गये हैं | जिन्होनें “सत्वत तंत्र” का उपदेश दिया कि किस प्रकार कर्मों के द्वारा “कर्म-बंधन” से मुक्ति मिलती है जिसे “नारद-पांच-रात्र” कहते हैं | तो देवर्षि नारदजी का प्रत्येक संवाद “जीव-के-कल्याण” का सेतु ही बनाते हैं | जब सेतु बनाया जाता है तो दो बिंदुओं या दो सिरों को मिलाने का कार्य किया जाता है दरअसल देवर्षि नारदजी भी इधर से उधर के दो बिंदुओं के बीच संवाद का सेतु स्थापित करने के लिए संवाददाता का कार्य करते हैं | इस प्रकार नारदजी संवाद का सेतु जोड़ने का कार्य करते हैं, तोड़ने का नहीं परन्तु अपने ही पिता ब्रह्माजी की “आदि-सृष्टि” विस्तार में नारदजी ने जब कुछ बाधा उपस्थित की तो दक्ष ने शाप देदिया:- अहो असाधो साधुनां सधुलिंगेन नस्त्वया | असाध्वकार्यर्भकाणां भिक्षोमार्ग: प्रदर्शित: || तन्तुकृन्तन यन्नस्त्वमभद्रमचर: पुन: | तस्माल्लोकेशु ते मूढ़ न भवेद् भ्रमत: पदम् || हे नारद तुमने हमारे भोले-भाले बालकों को भिक्षुकों का मार्ग दिखा कर बड़ा उपकार किया | अरे तुम तो हमारे वंश परम्परा का उच्छेदन करने पर ही उतारू हो रहे हो | इसलिए मूढ़ !! जाओ, लोक-लोकान्तरों में भटकते रहो | संत-शिरोमणि देवर्षि नारदजी ने “बहुत-अच्छा” कहकर दक्ष का शाप स्वीकार किया | संसार में बस, “साधुता-सजन्नता -महानता” इसी का नाम है कि बदला लेने कि शक्ति रहने पर भी दूसरों का “अपकार” सह लिया जाय | नारदजी चाहते तो बदले में दक्ष को भी शाप दे सकते थे पर अपनी महानता का परिचय देते हुए दक्ष का शाप स्वीकार कर लिया:-एतावान साधुवादो हि तितिक्षेतेश्वर: स्वयम् || आज देवर्षि नारदजी ब्यासजी के मार्ग-दर्शन के लिए अपने पिछले जन्म का वृतांत सुनते हुए कहते है कि मै पिछले एक जन्म में दासी पुत्र होते हुए भी आज ब्रह्मा जी का मानस-पुत्र हूँ ब्यासजी बोले:- वह कैसे !! तब नारदजी ने विस्तार से अपने पूर्व जन्म का इतिहास सुनते हुए बोले:-व्यासजी मैं पिछले जन्म में एक दासी-पुत्र था पर मेरी माँ संत-ब्राह्मणों पर बहुत विश्वास और बहुत श्रद्धा रखती थी | संत ब्राह्मणों की बड़ी भक्त थी मेरी माँ | जब मैं पांच वर्ष का था, जब से मैने होश सम्भाली तो अपनी माँ के साथ ही जाता था, माँ संतों की सेवा में जाती तो मै भी जाता, माँ संतो के कपड़े धोती तो मैं भी धोता, जंगल में लकड़ी को जाती तो मैं भी साथ जाता, माँ बर्तन धोती तो मै भी बर्तन धोता, माँ जब खाती तो मै भी बचा-खुचा खाता | माँ कथा सुनती तो मै भी कथा सुनता था, संत लोग जब कथा सुनते-सुनते नाचते थे, तो मै भी ताली बजा-बजकर नाचता था | एकवार चातुर्मास में मेरा मन भी उन संत-महात्माओं के संग रम् गया, जब चातुर्मास खत्म हुआ तो संत-महात्मा लोग अपने-अपने आश्रमों को चल पड़े, तो मै भी उनके संग चल पड़ा, लेकिन संतों ने डाट दिया, ऐ बालक ! तुम कहाँ जा रहे हो ! तुम्हें अगर हमारे साथ चलना है तो पहले अपनी माँ की आज्ञा लेकर आओ | संतों को पता था कि इसकी माँ इसको हमारे साथ चलने कि आज्ञा कभी नही देगी, मैं लौटने लगा तो संतों ने मुझे समझाया बेटा ! तुम अपनी माँ के इकलौते बेटे हो, तुम्हारी माँ ने हमारी कितनी सेवा करी, अब तुम्हें अगर हम साथ ले गये तो तुम्हारी माँ जिंदगीभर हमें गली देती रहेगी | इसलिए बेटा ! या तो अपनी माँ कि आज्ञा लेकर आओ या हम तुम्हें “मन्त्र” दे देतें है घर में ही बैठकर “जप-भजन” कर लिया करना | तो मैं, गुरु-मन्त्र” लेकर घर आ गया, और घर में ही बैठकर मैं भगवान का “मन्त्र-जप-भजन-संकीर्तन” करने लगा | मेरी माँ को मेरी यह स्थिति देखकर डर लगने लगा कि कहीं मेरा बेटा जोगी न बन जाय | अक्सर माताओं को इस बात की बड़ी चिंता रहती है कि कहीं मेरा बेटा “बाबा” न बन जाए | भलें हीं वह चोर बन जाये, डाकू बन जाए, जुआरी बन जाये पर “बाबा” न बन जाए | अगर थोड़ा भी टीका-चंदन कोई करने लगे तो माताओं को चिंता सताने लगती है | व्यासजी जो भी हमारे घर आता मेरी माँ एक ही बात करती अरे महाराज ! मेरे बेटे कि शादी करवा दो, मेरा बेटा “घर-गृहस्थी” सम्भाल ले तो मैं निश्चिन्त हो जाऊं | मैने अपनी माँ कि ऐसी बाते सुनी तो मै सोचने लगा, हे भगवान ! मै तो अपनी माँ को मरने का इंतजार कर रहा था और मेरी माँ मुझे किसी और के पल्ले बांधना चाहती है | मैं, माँ से छुटकारा चाहता हूँ और मेरी माँ एक और आफत घर लाना चाहती है | हे प्रभु ! फिर तो मेरा जीवन प्रतीक्षा करते-करते खत्म हो जायेगा ! क्या करूं, हे प्रभु आप ही कुछ करो !! ठाकुर जी ने यैसी कृपा करी कि मेरी माँ एकदिन सायंकाल के समय “गौ-दोहन” के लिए गयी, तो सांप के ऊपर पाँव पड़ गया, सांप ने काट दिया और मेरी माँ मर गयी | किसी ने आकर मुझे बताया कि तेरी माँ मर गयी, सांप ने काट लिया उसे | मैं सुनते ही खुश हो गया पर उपर से मैने दुःख मनाया क्योंकि उपर से भी खुश होता तो संसार के लोग मुझे बहुत गाली देते कि माँ के मरने की खुशी मनाता है | इसलिए मैं भी रोने लगा | और अपनी माँ के “क्रिया-कर्म” किये “क्रिया-कर्म” से निवृत होकर मैं उतर दिशा की ओर चल पड़ा जिधर वो ‘संत-महात्मा” गये थे, उधर चाल पड़ा | व्यासजी ! जब मैं उतर दिशा की तरफ चला तो उस वक्त मेरी एक आँख से गर्म आंसू आरहे थे और एक आँख से ठन्डे आंसू आ रहे थे, गर्म आंसू से यह दुःख हो रहा था कि मेरी माँ मर गयी, अब मेरा देख-भाल करने वाला इस दुनियाँ में कोई नही, और ठन्डे आंसुओ से ये सुख मिल रहा था कि अब इस नश्वर संसार में मुझे भजन करने से कोई नही रोकने वाला | अब मैं “स्वछन्द-भगवद-भजन” कर सकता हूँ | व्यासजी उतर दिशा की ओर मैने उन संत-महात्माओं को बहुत ढूंढा पर नही मिले | चलते-चलते एक दिन जब खूब थक्क गया तो मैने एक सरोवर देखा, उस सरोवर के पास जाकर पानी पीकर मैने प्यास बुझाई, स्नान किया, जब मेरी थकान दूर हो गई तो एक वृक्ष कि शीतल छाँव मे बैठकर मै “गुरु-प्रदत-मन्त्र” का जाप करने लगा, मैनें सोचा थोड़ा ध्यान करलूं, भजन करलूं फिर आगे चल दूँगा फिर ढूंढूगा, परन्तु वह दिव्य स्थान इतना पावन था कि मै जैसे माला लेकर भगवान का ध्यान कर रहा था भगवान के रूप का “हृध्या सीन्मे शनै: हरि:” धीरे से भगवान की सांवली-सलोनी सूरत मेरे हृदय में प्रगट हो गयी | जैसे ही मैनें ध्यान में भगवान की “वांकी-झांकी-आभा-प्रभा-शोभा” का दर्शन किया तो मेरे आनंद का परा-वार नहीं रहा | ओ ! हो ! मैं सिद्ध होगया, मेरी साधना सिद्ध हो गयी | मुझे भगवान के दर्शन हो गये | शेष भाग-३ में…………..
लेख:- कथा-वक्ता पं बद्री प्रसाद शास्त्री मूल-निवास:- ग्राम:-गैरी {ब्रहामणों की}, डाकघर:-रौणद, तह.:-प्रताप नगर, टिहरी गरवाल, उत्तराखण्ड 249165