मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून। हम मनुष्य हैं और हमारा जन्म हुआ है। श्रीमद्भगवद्-गीता का प्रसिद्ध वचन है ‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु धु्रवं जन्म मृतस्य च’ अर्थात् जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है और जिसकी मृत्यु होती है उसका पुनर्जन्म भी निश्चित है। इस सत्य वेदोक्त सिद्धान्त के अनुसार हम सब की भी भविष्य में मृत्यु होनी निश्चित है और मृत्यु के बाद पुनर्जन्म होना भी तय है। वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन से यह सिद्धान्त विदित होता है कि मनुष्य आदि प्राणियों के जन्म व मरण का कारण उनके पूर्वजन्मों के कर्म होते हैं जिनका फल भोगने के लिये परमात्मा कर्मानुसार उन्हें मनुष्यादि योनियों में जन्म देता है। यह भी ज्ञात होता है कि मनुष्य योनि उभय योनि है जहां मनुष्य स्वतन्त्रतापूर्वक कर्म करता है व पूर्वजन्मों व इस जन्म के क्रियमाण कर्मों का फल भी भोगता है। मनुष्येतर पशु आदि योनियों में केवल पूर्वजन्मों के कर्मों का फल ही भोगा जाता है। वहां पशु-पक्षियों आदि प्राणियों को मनुष्यों की तरह से ज्ञान व विवेकपूर्वक कर्म करने की स्वतन्त्रता नहीं है। पशु आदि योनियों में जब पूर्व किये हुए कर्मों का भोग हो जाता है तो उनका पुनः मनुष्य योनि में जन्म होता हैं जहां वह शुभ-अशुभ कर्मों को करके अपनी उन्नति व अवनति करते हैं। कर्म पर आधारित जन्म व मृत्यु का सिलसिला कभी समाप्त नहीं होता। मृत्यु होने पर प्राणियों वा जीवात्माओं के शुभ व अशुभ कर्मों का जो खाता है, उसी के अनुसार उन्हें भावी जन्म प्राप्त होता है। इस प्रकार से जन्म के बाद मृत्यु व मृत्यु के बाद जन्म आते जाते रहते हैं।
हमारी यह सृष्टि परमात्मा ने जीवों के सुख व कर्मफल भोग के लिये ही बनाई है। सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने जीवों के सुख व उन्नति के लिए उन्हें कर्तव्य व अकर्तव्यों का ज्ञान कराने के लिये वेदों का ज्ञान दिया है। महाभारत काल तक देश में वेदों का ज्ञान अपने यथार्थ रूप से विद्यमान था। इसका कारण सृष्टि के आरम्भ से महाभारतकाल तक देश में ऋषि परम्परा चलती रही। ऋषि वेदों के पारदर्शी विद्वान होते थे। वह वेदों सहित सत्य व असत्य को यथार्थ रूप में जानते थे। उनके समय में कोई वेद विरुद्ध कार्य करता था तो वह राजा के द्वारा दण्डित होता था। सभी राजा भी वेद के विद्वानों व ऋषियों का आदर करते थे और उनके परामर्श से ही राज्य संचालन आदि कार्य किया करते थे। मन्त्री शब्द का अर्थ भी यही प्रतीत होता है कि जो वेद के मन्त्रों के अर्थों को जाननेवाला अर्थात् वेदों का ज्ञानी हो। मन्त्रियों का कार्य वेद के नियमों का ही राज्य में प्रचार करना व उनका पालन कराना होता था। वेदों का अध्ययन व उनकी शिक्षाओं का पालन ही सभी मनुष्यों का प्रमुख धर्म वा कर्तव्य है। वेदों का ज्ञान होने व उस पर दृणता से चलने से मनुष्य अशुभ कर्मों से बच जाता है। इसके साथ वेदों का विद्वान व अध्येता वेदाध्ययन से ईश्वर व जीवात्मा के सत्यस्वरूप को प्राप्त होकर मनुष्य जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य को जानने के साथ साथ ईश्वरोपासना, यज्ञ, माता-पिता-आचार्य-वृद्धों व देश की सेवा के महत्व को भी जानता है व इनका आचरण करता है। सच्चा वैदिक विद्वान व वेदों का श्रोता पाप कर्मों को छोड़ने से मृत्यु के बाद पशु आदि निम्न योनियों में जाने से बच जाता है। उसकी अगले जन्म में उन्नति होने से वह श्रेष्ठ मनुष्य योनि में जन्म धारण करता है। शुभ व वेद विहित कर्मों को करने व इसके साथ ईश्वरोपासना, ध्यान व समाधि का अभ्यास करने से वह ईश्वर साक्षात्कार करने में भी सफल हो सकता है व होता है। ईश्वर साक्षात्कार मनुष्य की जीवात्मा को मृत्योपरान्त मोक्ष अर्थात् बहुत लम्बी अवधि के लिये जन्म व मरण से अवकाश प्रदान कराती है। मोक्ष प्राप्त कर जीवात्मा ईश्वर के सान्निध्य में रहकर ईश्वर के आनन्द से युक्त होकर सृष्टि व लोक लोकान्तरों में अव्याहृत गति से भ्रमण कर ईश्वरीय रचना को देखकर आनन्दित रहता है। वैदिक मान्यतानुसार मोक्ष की अवधि 31 नील 10 खरब 40 अरब होती है। इतनी अवधि के लिये जीवात्मा का जन्म व मरण से अवकाश रहता है तथा वह ईश्वर के सान्निध्य से पूर्ण आनन्द की अवस्था में रहता है।
मनुष्य जीवन का उद्देश्य आत्मा तथा परमात्मा सहित सृष्टि का ज्ञान प्राप्त करना है जो वेदाध्ययन व ऋषियों के वेदानुकूल ग्रन्थों के अध्ययन से प्राप्त होता है। यही कारण था कि सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल व उसके बाद के वर्षों में भी अनेकानेक विद्वान वेदों के अध्ययन, स्मरण, प्रवचन, ग्रन्थ लेखन, प्रसार व प्रसार में अपना समय व्यतीत किया करते थे। वेदों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने से मनुष्य में वैराग्य प्राप्त होता है। वैराग्य का अर्थ है राग की समाप्ति। राग न होने पर मनुष्य संसार को नाशवान जानकर और कर्मों का परिणाम सुख व दुःख की प्राप्ति को जानकर वह सुख भोग के प्रति वितृष्णा का भाव रखकर ईश्वरोपासना, ध्यान, समाधि सहित यज्ञ, परोपकार व वैदिक कर्तव्यों के पालन में अपना जीवन व्यतीत कर ईश्वर साक्षात्कार में प्रवृत्त होता है। ऐसा करने पर ही मनुष्य जन्म व मरण तथा इनसे होने वाले दुःखों से मुक्त हो सकता है और मोक्ष को प्राप्त कर लम्बी अवधि के लिये जन्म व मरण के बन्धन से छूट कर ईश्वर का सान्निध्य व अनुभव प्राप्त करता है।
हमारा सौभाग्य है कि हमें वेद व उन पर हिन्दी आदि अनेक भाषाओं में भाष्य व टीकायें उपलब्ध हैं। यह भी कह सकते हैं कि इनके माध्यम से हम वेदों का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। इस ज्ञान का उपयोग कर हम मोक्ष की साधना कर सकते हैं तथा अपने जीवन का सुधार व दुःखों की निवृत्ति कर सकते हैं। दुःखों से मुक्त होने का एक ही उपाय है और वह है सत्कर्म और ईश्वरोपासना। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के नवम् समुल्लास में विद्याख् अविद्या, बन्धन व मोक्ष का प्रामाणिक वर्णन किया है। मोक्ष प्राप्ति के साधन वा उपाय भी इस समुल्लास में बताये गये हैं। अतः सभी मनुष्यों को सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन कर अपने जीवन को उसके उद्देश्य की पूर्ति व लक्ष्य तक पहुंचाने के लिये प्रयत्न करने चाहियें। जो अवसर हमें इस मनुष्य जन्म में मिला है, सम्भव है कि वह अवसर इस जीवन के आगामी शेष काल व परजन्म में प्राप्त न हो। हम जो निर्णय करेंगे वैसा ही हमारा भविष्य बनेगा। कुछ करना या न करना तो बाद की बात है परन्तु सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन कर हम उसकी बातों पर विचार तो कर ही सकते हैं। अतः हम सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन करें और अपने भविष्य को संवारने के लिये उचित निर्णय करें। यह दोहराना उचित होगा कि जब तक हम मोक्ष के साधन करके मोक्ष को प्राप्त नहीं होंगे तब तक हमारा जन्म व मरण होता रहेगा और हम नाना प्रकार के दुःखों से ग्रस्त रहेंगे। मनुष्य माता के गर्भ में भी दुःखी रहता है। जन्म के बाद भी नाना प्रकार के दुःख उसे सताते हैं। मृत्यु को भी अभिनिवेश क्लेश कहा गया है। यह अपने आप में ही एक भयंकर दुःख होता है। बड़े बड़े धीर वीर पुरुष भी मृत्यृ के नाम से घबराते हैं। अतः मोक्ष मार्ग पर अपनी शक्ति के अनुसार चलना ही उचित प्रतीत होता है। यह मार्ग महर्षि दयानन्द ने हमें बताया है। हम सब ऋषि दयानन्द के ऋणी हैं। ऋषि को सादर नमन करते हैं। ओ३म् शम्।