“किसी भी सामाजिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए संविधान के नियम आवश्यक हैं और इसी दृष्टि से किसी भी व्यवस्थित समाज के लिए संविधान महत्वपूर्ण है और होना भी चाहिए ;
जनतांत्रिक व्यवस्था में बहुमत को निर्णय का अधिकार प्राप्त है और यही संविधान का नियम भी पर सामाजिक नैतिकता समय व् परिस्थिति के सन्दर्भ द्वारा निर्धारित होता है अतः उसे किसी संवैधानिक नियम से निश्चित नहीं किया जा सकता है क्योंकि वह समय के सापेक्ष सामाजिक चेतना के स्तर को प्रमाणित करता व्यवहारिकता का उदाहरण होता है।
किसी भी सभ्य और शिक्षित समाज में जनतंत्र की सफलता के लिए जितना संवैधानिक नियमों का महत्व है उतना ही संविधान की सार्थकता के लिए सामाजिक नैतिकता का स्तर निर्णायक व् महत्वपूर्ण है ; समझाता हूँ कैसे !!
चूँकि जनतंत्र में संविधान के नियम के अनुसार बहुमत को ही निर्णय का अधिकार प्राप्त है तो संभव है की जब बहुमत अपना वैचारिक स्तर खो दे तो उनका निर्णय भी उनके नैतिक नग्नता को ही सत्यापित करेगा, ऐसे में, जब किसी समाज के लिए भ्रस्टाचार एक स्वीकृत जीवन शैली हो जाए, वहां यह संभव है की बहुमत के निर्णय को धन के प्रलोभन अथवा स्वार्थ की लालसा से प्रभावित किया जा सकता है ; चूँकि नैतिकता का आधार धर्म होता है धन नहीं, अतः उसे प्रलोभन, प्रताड़ना अथवा भय द्वारा शासित नहीं किया जा सकता; और इसलिए, ऐसी परिस्थितियों में समाज की संगठित शक्ति का यह कर्त्तव्य बन जाता है की वह संवैधानिक नियमों के दुरूपयोग पर अंकुश लगाने के लिए समाज में नैतिकता के संवैधानिक तरिके से स्थापना को सुनिश्चित करे जिससे न केवल संविधान अपनी गरिमा प्राप्त कर सके बल्कि संवैधानिक नियमों को सामाजिक विश्वास भी प्राप्त होने का उचित कारन मिल सके।
चूँकि सत्य अनुभूति का विषय है, उसकी, अभिव्यक्ति के प्रति संशय स्वाभाविक है, और इसलिए, किसी अवधारणा को सत्यापित करने के लिए व्यावहारिक रूप से उसका आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करने से बेहतर विकल्प कोई दूसरा नहीं हो सकता ;
जब तक हम विकल्प की उपलब्धता के आधार पर आवश्यकता महसूस करने का प्रयास करेंगे, हमारा प्रयास यही सिद्ध करेगा की हमें स्थिति की गंभीरता का आभास नहीं ; आवश्यकताओं का विकल्प नहीं होता और इसलिए जब कभी भी हमारी संवेदनाएं आवश्यकताओं द्वारा शासित हुई उसने यथार्थ में नयी संभावनाओं को जिया है ;
ऐसे में, आज अगर हम जीवन मूल्यों के व्यावहारिक प्रयोग के किसी भी प्रयास से प्रतिरक्षित हैं तो केवल इसलिए क्योंकि हमारी समझदारी आज हमारी संवेदनाओं पर हावी है ; और यही हमारी समस्त सामाजिक समस्याओं का जड़ भी जिसका सम्पूर्ण समाधान सामाजिक जीवन में नैतिक मूल्यों के आभाव में संवैधानिक नियमो से संभव ही नहीं ;
तो क्या आप को नहीं लगता की समाज में नैतिकता के संवैधानिक तरिके से स्थापना का समय आ गया; अब नहीं तो कब ?”