डॉ विवेक आर्य : अपराधियों का महिमामंडन कोई कम्युनिस्टों से सीखे. आजकल मुख्य मिडिया और सोशियल मिडिया पर रजाकारों के गुण गाए जा रहे हैं. उन्हें स्वतन्त्रता आन्दोलन का सिपाही बताया जा रहा है. सामान्य भारतीय तो दूर 99% इतिहास के अध्यापक भी नहीं जानते कि रजाकार कौन थे और उन्होंने कितने अत्याचार किए थे?
‘रजा़कार’ का शाब्दिक अर्थः स्वयंसेवक। लेकिन ऐतिहासिक कारणों से इस शब्द का इतना अवमूल्यन हो चुका है कि यह शब्द धर्माध नृशंस अत्याचारी के रूप में रूढ़ हो गया।
अविभाजित भारत के रजवाड़ों में सबसे बड़ा राज्य था आसिफज़ाही ने। इसी वंश के अंतिम बादशाह निज़ाम मीर उस्मान अली द्वारा शासित हैदराबाद। तेलंगाना के आठ (करीमनगर, अदिलाबाद, निज़ामाबाद, मेदक, महबूबनगर, नलगोंडा, वारंगल व खम्माम) महाराष्ट्र के पांच (औरंगाबाद, नादेड़, उस्मानाबाद, परभणी व बीड), कर्नाटक के तीन (गुलबर्गा, रायचूर व बीदर)-कुल सोलह जिलों से मिल कर बना था हैदराबाद राज्य।
इस राज्य पर दो राजवंशों ने शासन किया था-कुतुबशाही और आसिफजाही ने। इसी वंश का सातवां व अंतिम बादशाह था उस्मान अली, जो दुनिया का तीसरा सबसे धनवान आदमी था। इस राज्य की बानवे प्रतिशत जनता तेलुगु, कन्नड़ और मराठीभाषी हिंदू थी, केवल
आठ प्रतिशत मुसलमान थे, जो अधिकांशतः शासक वर्ग था।
वक्त गुज़रते
धर्मांधता की हवाएं बहने लगीं….मुल्ला-मौलवियों की ताकत बढ़ गयी और
इस्लाम का उन्माद जागने लगा। बहादुर यार जंग से शुरू हुई यह दास्तान का़सिम रज़वी तक पहुंचते-पहुचते ख़तरनाक मोड़ पर आ गयी। लातूर का एक वकील क़ासिम
रजवी हैदराबाद आता है और इस ज़मीन को अपने इरादों का महल खड़ा करने के
काबिल पाता है…तुर्की के ख़िलाफ़त आंदोलन ने दुनिया के मुसलमानों को अपनी एक पहचान बनाने की राजनीतिक ताकत का अहसास दिला दिया…दुर्भाग्य से गांधी ने सुदूर देश में घटती ऐतिहासिक घटना को पूरा-पूरा समर्थन देते हुए इसके
दूरगामी परिणामों को नजरंदाज़ कर दिया। ‘दारुल इस्लाम’ की प्रबल भावना
मुल्ला-मौलवियों द्वारा मुसलमानों में फैलायी जाती रही। इसका दुष्परिणाम
हुआ-एक ही राष्ट्र में अलगाववादी मनोवृत्ति का उद्रेक।
केरल में
मोपलाओं ने जिस बड़े पैमाने पर हिंदुओं की हत्याएं की, तलवार के बल पर
उन्हें जबरन मुसलमान बनाया, यह मध्ययुग की बात नहीं, बीसवीं, सदी के आरंभिक दशकों की दारुण दास्तान है। बंगाल और उत्तर प्रदेश भी कहां अछूते रहे ?
फिर हैदराबाद तो मुसलमान बादशाहों द्वारा शासित ऐसा बड़ा राज्य था जिसकी
अपनी रेलवे थी, डाक व्यवस्था थी, सिक्के थे…और अंग्रेजों की दोस्ती थी…
नौजवान वकील क़ासिम रज़वी ने दस बरसों में तो हैदराबाद का माहौल ही बदल
डाला। रजाकारों की प्राइवेट आर्मी खड़ी कर ली। यह संख्या देखते-देखते दो
लाख तक पहुंच गयी। एक ख़ास वेशभूषा : खाकी निकर, ख़ाकी कमीज़, रूमी टोपी,
हाथ में हथियार, कमर में लटकता जंबिया और खंज़र। सुबह ही शुरू हो जाती परेड बेग़म बाजार, चारमीनार, कोठी, नामपल्ली हिमायत नगर में। यूं कहें कि सारे
शहर में लंबी-लंबी कतारें रज़ाकारों की परेड करती…गगनभेदी नारे
लगातीं…निकलतीं तो हिंदुओं के दिल कांपने लगते। राह चलते किसी ब्राह्मण
की चोटी खींची जाती, किसी दुकान या मकान पर पत्थर बरसाये जाते, मनचाही चीज़ उठा ली जाती…निरीह बहुसंख्य हिंदू देखते रह जाते। औरतों ने सड़कों पर
निकलना बंद कर दिया था…मर्द भी सहमे-सहमे काम पर आते-जाते…चारों ओर
आतंक का साया छाया हुआ था।
गांवों में तबलीग (धर्मांतरण) का बाज़ार गर्म था। माला, मादिमा….चमारों, हरिजनों को मार-मार कर मुसलमान बनाया जाता था। जो नहीं मानते, उन पर चोरी-डकैती के आरोप लगा कर पुलिस उन्हें पक़ड़ कर ले जाती। उनकी इतनी धुनाई होती कि कभी-कभी मर भी जाते। उनकी झोंपड़ियां जला दी जातीं…घर की औरतों को नंगा कर के पीटा जाता…उन्हें उठा कर ले जाया जाता। अत्याचारों के इस डर से बड़ी संख्या में मुसलमान बन रहे थे। मुस्लिम बनने के बाद उनको दो फायदे हो रहे थे-पुलिस का संरक्षण और रज़ाकार बन कर लूटपाट का अवसर। उनकी ग़रीबी बेरोज़गारी और मुफ़लिसी दूर हो जाती…और जो ऊंचे कुल वाले व्यापारी, जमींदार के कारिदे, माली पटेल, पुलिस पटेल उनको जूतों के बराबर समझते, दिन भर बेगारी कराते और जूते मारते, उन्हीं पर ये नये मुसलमान अपना रोब झाड़ते…रातों-रात सारा माहौल बदल जाता।, उन्हें गाय का गोश्त खिलाया जाता, उन्हें कलमा पढ़ाया जाता और उनका नये सिरे से नामकरण संस्कार होता-करीमुल्ला, रहमत अली, इद्रीस, रफअत आदि। दूसरे दिन से ही ये हरिजन रजारों में शामिल हो जाते डंडे, चाक, जंबिये, दुरांती ले कर। शाम तक लूट का काफी माल ले आते। खू़ब खाते-पीते और मौज-मस्ती मनाते। नया धर्म शासक का धर्म था, पुलिस और सरकारी अमले उनके साथ थे, फिर डर काहे का ? सदियों से सोया हुआ उनका प्रतिकार भंयकर रूप ले कर प्रकट होने लगा था।
इधर क़ासिम रज़वी ने उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल से बड़ी संख्या में मुसलमानों को बुला कर हैदराबाद में बसाया। उसकी मंशा यही थी कि हैदराबाद में मुसलमानों की संख्या आधी हो जाये, बस। फिर तो इन काफ़िरों से वे निपट लेंगे।
क़ासिम रज़वी इतना शक्तिशाली हो गया कि उससे निजा़म भी डरने लगा।
उसका ‘मजलिसे इत्तेहादुल मुसलमीन’ संगठन उत्तर भारत के ‘मुस्लिम लीग’ से
कुछ कम नहीं था, जिसने पंजाब और नोआखली में क़त्लेआम रचाया था। जाने-माने
गुंडे और हत्यारे राजनीतिक संरक्षण प्राप्त करने रज़ाकार बन बैठे पुलिस और
रज़ाकार एक ही थैली के चट्टे बट्टे थे। इसके बाद निज़ाम के राज्य में शहरों से ले कर कस्बों और गांवों तक रज़ाकारों ने सामान्य प्रजा पर जो अत्याचार
किये, लूटपाट और हत्याएं कीं, स्त्रियों की अस्मतों को लूटा, घर जलाये और
आतंक का वातावरण तैयार कर बड़ी संख्या में लोगों को पड़ोस के प्रांतों में
भागने के लिए बाध्य किया, वह तो इतिहास की ही बात है।
रजाकारों के
गिरोह न केवल रियासत के हिन्दुओं पर अत्याचार ढा रहे थे, बल्कि पड़ोस के
राज्यों में भी उत्पात मचा रहे थे। पड़ोसी राज्य मद्रास के कम्युनिस्ट भी इन हत्यारों के साथ हो गये। कासिम रिजवी और उसके साथी उत्तेजक भाषणों से
मुसलमानों को हिन्दू समाज पर हमले के लिये उकसा रहे थे। हैदराबाद रेडियो से हर रोज घोषणाएं होती थीं।
इधर निजाम ने कानून बना दिया था कि भारत का रुपया रियासत में नहीं चलेगा। यही नहीं, उसने पाकिस्तान को बीस करोड़ रुपये की मदद भी दे दी और कराची में रियासत का एक जन सम्पर्क अधिकारी बिना भारत सरकार की अनुमति के नियुक्त कर दिया।
निज़ाम के राज्य में 95
प्रतिशत सरकारी नौकरियों पर मुसलमानों का कब्ज़ा था और केवल 5 प्रतिशत छोटी
नौकरियों पर हिन्दुओं को अनुमति थी। निज़ाम के राज्य में हिन्दुओं को हर
प्रकार से मुस्लमान बनाने के लिए प्रेरित किया जाता था। हिन्दू अपने
त्योहार बिना पुलिस की अनुमति के नहीं मना सकते थे। किसी भी प्रकार का
धार्मिक जुलूस निकालने की अनुमति नहीं थी क्यूंकि इससे मुसलमानों की नमाज़
में व्यवधान पड़ता था। हिन्दुओं को अखाड़े में कुश्ती तक लड़ने की अनुमति नहीं थी। जो भी हिन्दू इस्लाम स्वीकार कर लेता तो उसे नौकरी, औरतें, जायदाद सब
कुछ निज़ाम साहब दिया करते थे। जो भी कोई हिन्दू अख़बार अथवा साप्ताहिक पत्र
के माध्यम से निज़ाम के अत्याचारों को हैदराबाद से बाहर अवगत कराने की कोशिश करता था तो उस पर छापा डाल कर उसकी प्रेस जब्त कर ली जाती और जेल में डाल
कर अमानवीय यातनाएँ दी जाती थी।
29 नवंबर 1947 को इसी निजाम से नेहरू
ने एक समझौता किया था कि हैदराबाद की स्थिति वैसी ही रहेगी जैसी आजादी के
पहले थी। 10 सिंतबर 1948 को सरदार पटेल ने हैदराबाद के निजाम को एक खत लिखा जिसमें उन्होने हैदराबाद को हिंदुस्तान में शामिल होने का आखिरी मौका दिया था। लेकिन हैदराबाद के निजाम ने सरदार पटेल की अपील ठुकरा दी.आखिर सरदार
पटेल क्रुद्ध हो उठे और भारतीय सेना ने 13 सितंबर 1948 को हैदराबाद रियासत
पर आपरेशन पोलो के नाम से हमला कर दिया तब नेहरू देश में नहीं थे। सेना ने
केवल 4 दिनों की लड़ाई में 2,00,000 बहादुर जेहादियों को दौड़ा-दौड़ा कर
मारा और 1373 जेहादियों को 72 हूरों के पास भेज दिया। 17 सितम्बर 1948 को
आत्मसमर्पण कर दिया.
ये सब लिखने का उद्देश्य यह है कि मिडिया के झूठ से बचें.