डॉ. शंकर शरण : योगी आदित्यनाथ या संगीत सोम को ताजमहल की अवमानना करने का दोषी बताना मूर्खता है। किसी देश में कोई कब्र राष्ट्रीय पहचान नहीं है। चाहे कब्र किसी पैगंबर की भी क्यों न हो। अतः यदि मुमताज बीबी का मकबरा दुनिया में भारत की पहचान बन गया, तो यह यहाँ के शासकों, नीतिकारों की मूढ़ता का प्रमाण है।
यह ताजमहल नाम भी हालिया चीज है। सौ साल पहले तक इसे ‘ताज बीबी का मकबरा’ कहा जाता था (जैसे, दिल्ली में हुमायूँ का मकबरा आज भी कहलाता है)। शुरू से उस का यही नाम था और इस का कोई महत्व न था। न मुसलमान, न अंग्रेज इसे कुछ समझते थे। यह इतनी मामूली चीज थी कि एक अंग्रेज गवर्नर जेनरल लॉर्ड विलियम बेंटिक ने इसे तोड़कर सारा संगमरमर बेचने का निर्णय किया था। यह काम सन् 1830 के आस-पास शुरू भी हुआ। वह पूरा इसलिए न हो सका कि उतने खरीदार नहीं मिले!
यानी, ताज बीबी के मकबरे का कोई सांस्कृतिक या मजहबी मोल न था। यह तो आजादी के बाद नेहरूपंथी हिन्दू हैं, जिन्होंने हर मुसलमानी चीज पर गर्व करना शुरू कर दिया! वरना विश्व की महानतम प्राचीन सभ्यता की पहचान तीन सौ साल पहले बनी एक कब्र होती? यह नेहरूवादियों का हिन्दू संस्कृति के साथ-साथ इस्लाम से भी अज्ञान दर्शाता है।
यह अकारण नहीं कि समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान ने भी ताजमहल को तोड़ डालने की बात की थी। वे इसे गलत किस्म की चीज मानते हैं। वैसे खान साहब ने इसे शाहजहाँ की फिजूलखर्ची बताया। पर असल बात यह है कि ताजमहल में बुतपरस्ती की झलक है, जो इस्लाम के खिलाफ है। इसीलिए किसी मुस्लिम देश में मुमताज या हुमायूँ जैसे आलीशान मकबरे नहीं हैं।
एक बार सऊदी अरब में किसी सड़क के चौड़ीकरण के बीच एक मस्जिद आ गई। प्रशासन ने उसे तोड़ कर हटाने को कहा। तब लोगों ने ध्यान दिलाया कि वह बड़ी पुरानी मस्जिद है, जहाँ खुद पैगम्बर मुहम्मद ने भी नमाज पढ़ी थी। इस पर सऊदी उलेमा ने कहा कि तब तो उसे फौरन और जरूर गिरा डालो! क्योंकि इस्लाम में किसी भी ठोस, रूपाकार वस्तु को मजहबी आदर या अहमियत देने की मनाही है। लिहाजा, अगर यहाँ बादशाहों ने अपनी या बेगमों की शानदार कब्रें बनवाईं तो गैर-इस्लामी काम किए। इसलिए यहाँ सेक्यूलर हिन्दू साहबान ताजमहल पर कितना भी इतराएं, मुस्लिम उसे एक कब्र से अधिक कुछ नहीं समझते।
प्रसिद्ध लेखक वी. एस. नायपाल ने सही कहा था कि इस्लाम के बारे में भारत के हिन्दू कुछ नहीं जानते। तभी नासमझी में मुगल खंडहरों को राष्ट्रीय धरोहर बनाकर खुद खुश होते रहते हैं कि कितने उदार हैं! इसीलिए कोणार्क मंदिर जर्जर होने की परवाह नहीं करते, मगर ताजमहल, हुमायूँ, लोदी, कुतुब के मकबरों की फिक्र में दुबले होते रहते हैं।
उन्हें इस का कोई भान नहीं कि जहाँ काशी, अयोध्या, मथुरा, प्रयाग और सारनाथ जैसी अनेक महान दार्शनिक, वैश्विक धरोहर हो वहाँ किसी शासक की बीवी की कब्र को अधिक महत्व देना कितना लज्जाजनक है।
यह नेहरूवादी भारत का सब से दुखद पक्ष रहा है। एक ओर, अयोध्या, मथुरा और काशी जैसे अप्रतिम स्थानों, विशिष्टतम श्रद्धा-स्थलों को भी हेय मान कर ध्वस्त, अतिक्रमित-अपमानित बेहाली में छोड़ दिया गया। दूसरी ओर, मुस्लिम कब्रों को संस्कृति का नमूना कहा गया। इसीलिए प्रायः मुगल चिन्हों को ही ‘विश्व-धरोहर’ बनाने की दरखास्त संयुक्त राष्ट्र को दी जाती रही है! जो अधिकांश बादशाहों, बेगमों के मकबरे और अन्य विलासिता प्रतीक हैं। उस में कुछ भी सांस्कृतिक या राष्ट्रीय नहीं है।
पर आज भी भारतीय बच्चों को जो इतिहास पढ़ाया जाता है, वह मुख्यतः मुगलों का। इस के पीछे सचेत नेहरूवादी, हिन्दू-विरोधी नजरिया रहा है। तीन दशक से भी पहले एक ‘गाइडलाइंस फॉर हिस्टरी टेक्स्टबुक्स’ जारी करके आधिकारिक निर्देश दिया गया था। उस से प्रतीत होगा, मानो भारत का गौरव तब शुरू होता है जब मुगल पधारे! हमारे जाने-माने नेहरूवादी, वामपंथी इतिहासकार यहाँ मुगल सल्तनत के तैमूरी संस्थापकों को हमलावर नहीं, ‘आगंतुक’ मानते हैं।
ऐसी मूर्खताएं ‘राष्ट्रीय एकता’ बनाने के नाम पर की जाती रही हैं। यानी किसी हवाई, काल्पनिक एकता के लिए भारत को अपनी मूल औऱ मूल्यवान हिन्दू पहचान ही छोड़ देनी चाहिए! ऐसी ही मूढ़ताओं के फलस्वरूप आज दुनिया ताजमहल को भारत की पहचान समझती हैं। उपनिषद, महाभारत या काशी, अयोध्या, आदि को नहीं।
जबकि ताजमहल कोई कथित प्रतीक भी नहीं है। उसे मुसलमान बादशाह ने बनवाया जरूर, मगर वह इस्लामी रिवाज के खिलाफ था। इसीलिए अरब में पैगम्बर साहब तक का कोई अलग, विशिष्ट मकबरा नहीं है। बड़े-बड़े खलीफाओं, इमामों, अयातुल्लाओं का भी नहीं है। इसीलिए, उलेमा मजारों के मेलों और उन के अस्तित्व के भी खिलाफ हैं।
ताज, सीकरी या हुमायूँ जैसे मकबरे यहाँ इस्लाम से विचलन के प्रतीक हैं। याद करें, उन मकबरों की शुरुआत करने वाले बादशाह अकबर ने एक नया ‘धर्म’ – दीने-इलाही – भी चलाने की कोशिश की थी। यानी, दार्शनिक विमर्श और अनुभव से उन्हें इस्लाम ठीक नहीं लगा। इसीलिए उस ने अपना धर्म बनाने की कोशिश की, जो शत-प्रतिशत हिन्दू विचार है। हिन्दू दर्शन में ही प्रत्येक मनुष्य को अपना ईश्वरीय मार्ग अपनाने या बनाने का अधिकार है। अकबर के इस काम को नजरअंदाज क्यों किया जाता है?
मौलाना हाली ने अपने मशहूर ‘मुसद्दस’ में इसी पर हाथ मला था कि आधी दुनिया जीत लेने वाले इस्लाम का बेड़ा गंगा के दहाने में डूब गया। तभी यहाँ पक्के इस्लामी और उन के सेक्यूलर दोस्त औरंगजेब को हसरत से याद करते हैं कि बाबर के बाद एक उसी ने इस्लाम को जमाने के लिए जरूरी काम किए। वरना, अकबर से लेकर शाहजहाँ तक सब ने धीरे-धीरे कई इस्लामी कायदों का हिन्दूकरण ही कर डाला था।
सच तो यह है कि स्वतंत्र भारत को इस्लामी झोल पूरी तरह उतार फेंकना चाहिए था। विशेषकर, जब विभाजन कर के मुसलमानों को अलग देश दे दिया गया। इस्लाम-मुक्त भारत से ही यहाँ का वास्तविक गौरव झलकता और पुनः स्थापित हो सकता है। वह गौरव जिस के उत्तराधिकारी यहाँ विवेकशील मुसलमान भी हैं। जो अपनी मानवीयता और हिन्दू पूर्वजों का भी बराबर आदर करते हैं। जिन मुसलमानों ने राजनीतिक इस्लाम को त्याग कर केवल उस का इबादती रूप रखा। हिन्दुओं ने इबादती इस्लाम की सदैव इज्जत की। यही असली भारतीय पहचान है, जो परमात्मा तक पहुँचने के असंख्य मार्ग स्वीकार करती है। वेदांत की शिक्षा, जो विश्व को भारत की सब से बड़ी देन है।
लेखक : डॉ. शंकर शरण
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