स्वर्गीय राजिंदर सिंह : जिस कथित जातिवाद के विरुद्ध वामपन्थी विचारक और पत्रकार विगत कई दशकों से निरन्तर अपप्रचार करते रहे हैं, वह जातिवाद इनमें सबसे अधिक पाया जाता है। उदाहरण के रूप में जब किसी न्यूज़ चैनल पर डिबेट के अवसर पर हिन्दुत्व के समर्थन में कोई आमन्त्रित व्यक्ति बोलने लगता है तो वामपन्थी एंकर या तो उसकी बात को काटने के लिए व्यर्थ के प्रश्नों की झड़ी लगाकर बीच में विघ्न डालने लगते हैं या फिर ब्रेक पर जाने का बहाना बना लेते हैं। इस प्रकार वह हिन्दू विचारक अपनी बात कह ही नहीं पाता। इसके विपरीत यदि आमन्त्रित व्यक्ति उसकी अपनी वामपन्थी बिरादरी का होता है तो वे उसे खुलकर बोलने का अवसर देते हैं।
जब हिन्दुओं की आस्था का प्रश्न आता है तो यह उन्हें दक़ियानूसी विचारों का पुलिन्दा लगती है, परन्तु वही आस्था जब किसी मुसलमान या साईं बाबा के भक्त से जुड़ी होती है तो यही वामपन्थी एंकर स्वयं उसके अन्ध प्रचारक बन जाते हैं जैसे वह चैनल उन्हीं के लिए बना हो।
इनका जातिवाद उस समय पूरे जोश में आ जाता है जब किसी हिन्दू साधु-सन्त के कथित अनाचार की बात उठती है, परन्तु ग़ैैर-हिन्दू महा-दुर्जन की बात उठने पर वे किसी-न-किसी बहाने से उस बात को उभारने के बजाए यथासम्भव दबाने पर तुल जाते हैं मानो वह ग़ैर-हिन्दू महा-दुर्जन उनका अपना सम्बन्धी लगता हो। यह सब जातिवाद नहीं है तो फिर क्या है !!
वस्तुतः वामपन्थ का पर्याय बना भारतीय मीडिया भारत का कल्याण करने के लिए नहीं बल्कि यहां की मूलभूत वैदिक-हिन्दू संस्कृति का विनाश करने के उद्देश्य से बना है। अतः यह जितना शीघ्र बन्द हो जाए, उतना ही हमारे लिए अच्छा होगा।
जहां तक हिन्दुओं में जिस कथित जातिवाद का ढोल पीट कर हिन्दू-शास्त्रों पर आरोप लगाने के वाम-पन्थी अपप्रचार की बात है, उसमें कोई सार ही नहीं है। इस सन्दर्भ से शुक्रनीतिसार १/३८ में बड़ा ही स्पष्ट लिखा है :
न जात्या ब्राह्मणश्चात्र क्षत्रियो वैश्य एव न।
न शूद्रो न च वै म्लेच्छो भेदिता गुणकर्मभिः।।
[ इस संसार में मनुष्य जाति=जन्म से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अथवा म्लेच्छ नहीं होता, इन सबके भेद का कारण गुण-कर्म है ]।
शुक्रनीतिसार ४/३/१४ के अनुसार विद्या और कला के आश्रय से ही जातियों की कल्पना की गई है :
विद्याकलाश्रयेणैव तन्नाम्ना जातिरुचयते।
यह उल्लेखनीय है कि विद्या और कला सिखाने वाला गुरु भी जन्म से गुरु नहीं माना गया है। इस विषय में शुक्रनीतिसार ४/३/२१ में स्पष्ट लिखा है :
योऽधीतविद्यः सकलः स सर्वेषां गुरुर्भवेत्।
न च जात्याऽनधीतो यो गुरुर्भवितुमरहति।।
[ जो कला सहित विद्या को जानता है, वही सबका गुरु होने योग्य होता है। जो पढ़ा-गुणा नहीं है, वह जाति विशेष में जन्म लेने मात्र से गुरु होने का अधिकारी नहीं है ]।
विद्या और कला का भेद बताते हुए शुक्रनीतिसार ४/३/२३ में लिखा गया है :
यद्यत्स्याद्वाचिकं सम्यक्कर्म विद्याभिसंज्ञकम्।
शक्तो मूकोऽपि यत्कर्तुं कलासंज्ञं तु तत्स्मृतम्।।
[ जो-जो कर्म वाणी द्वारा भली-भांति सम्पादित किया जाता है वह-वह कर्म विद्या कहा जाता है और जिसे मूक=गूंगा भी हाथ से कर सके उसे कला कहते हैं ]।
कलाओं का विश्लेषण करते हुए शुक्रनीतिसार ४/३/६४ में आगे कहा है :
पृथक् पृथक् क्रियाभिर्हि कलाभेदस्तु जायते।
यां यां कलां समाश्रिय तन्नाम्ना जातिरुच्यते।।
[ पृथक्-पृथक् क्रियाओं द्वारा ही कला-भेद होता है। जिस-जिस कला के आश्रित होकर लोग अपनी आजीविका चलाते हैं, उन-उन कलाओं के नाम से उन लोगों की जातियां कही गई हैं ]।
शुक्रनीतिसार ४/३/१७ का यह कथन ध्यान देने योग्य है :
क्रियाभेदैस्तु सर्वेषां भृत्तिवृत्तिरनिन्दिता।
[ क्रिया-भेद द्वारा सबकी भृत्ति और वृत्ति निन्दा रहित है ]।
इसका स्पष्ट अभिप्राय यह है कि सोने, लोहे, चमड़े और लकड़ी इत्यादि की कलाओं से अपनी-अपनी आजीविका चलाने वाले वाले व्यक्ति क्रमशः सुनार, लोहार, चमार और बढ़ई कहलाने योग्य हैं। इसी प्रकार अन्यान्य कलाओं से आजीविका चलाने वालों के सन्दर्भ में भी ऐसा ही समझना चाहिए। इस शास्त्र-सम्मत नियम से यह भी पता चलता है कि यदि एक चमार-पिता के तीन पुत्र चमड़े की कला को छोड़कर तीन विभिन्न कलाओं से अपनी आजीविका चलाते हैं तो वे तीनों उन विभिन्न कलाओं के अनुरूप नामों से पुकारे जाएंगे।
इसके विपरीत आज तो शास्त्र-विरुद्ध जातिवाद प्रचलित है, उसमें चमार के पुत्र चमार और लोहार के पुत्र लोहार ही कहलाते हैं, भले ही वे क्रमशः चमड़े और लोहे की कला के आश्रय से अपनी आजीविका न चलाते हों। यही प्रचलित जातिवाद का सबसे बड़ा दोष है। शास्त्र में इसका कोई विधान नहीं प्राप्त होता।
वेदों में कोई जातिवाद नहीं
वेदवाणी वर्तमान में प्रचलित जातिवाद का स्पष्ट रूप से खण्डन करती है। यथा ऋग्वेद ९/११२/१, ३ में लिखा है :
नानानं वा उ नो धियो वि व्रतानि जनानाम्।
तक्षा रिष्टं रुतं भिषग्ब्रह्मा सुन्वन्तमिच्छतीन्द्रायेन्दो
परि स्रव।।
कारुरहं ततो भिषगुपलप्रक्षिणी नना।
नानाधियो वसूयवोऽनु गा इव तस्थिमेन्द्रायेन्दो परि स्रव।।
[ हमारी बुद्धियां नाना प्रकार की हैं। मनुष्यों के कर्म भी नाना प्रकार के हैं। तक्षा=तरखान लकड़ी काटना चाहता है, भिषग्=वैद्य रोगी को चाहता है और ब्रह्मा=वेद का विद्वान् यज्ञ करने वाले को चाहता है। उसी प्रकार हे ऐश्वर्यवान् ! तू भी ऐश्वर्य हेतु आगे बढ़। •• मैं कारु=शिल्पी हूं, मेरा पिता या पुत्र भिषग् है और मेरी माता या बहिन चक्की पीसती है। अतः हम सभी धन की इच्छा करते हुए नाना बुद्धियों और कर्मों वाले लोगों में बसें ]।
इस प्रकार इन वेदमन्त्रों की शिक्षा इस निर्णय पर पहुंचाती है कि एक ही परिवार के सदस्यों का ज्ञान, कर्म और प्रवृत्ति भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। अतः उन्हें उनके अनुरूप ही अपनी-अपनी आजीविका का चयन करना चाहिए ताकि समाज उनकी सहज योग्यता का पूरा-पूरा लाभ उठा सके।
प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक काम में एक जैसी दक्षता प्राप्त नहीं कर सकता। वस्तुतः वह कुछ एक कामों में ही दक्ष हो सकता है। जिसमें जिस काम को करने के जो आवश्यक गुण सहजभाव से होते हैं, उसे उन गुणों के आधार पर ही दक्षता प्राप्त करनी चाहिए। व्यक्ति विशेष में जो-जो गुण स्वाभाविक रूप से विद्यमान होते हैं, उन्हें अभ्यास द्वारा परिष्कृत करना और उन्हीं के अनुरूप उसे योग्य, दक्ष और विशेषज्ञ बनाना ही शिक्षा का वास्तविक प्रयोजन है। ऐसे प्रशिक्षित व्यक्तियों को यथायोग्य स्थान देना ही वस्तुतः वर्ण-व्यवस्था है, किसी प्रचलित जातिवाद का नाम कदापि नहीं।