के के शर्मा ; अभी भी समाज की पुरुषवादी मानसिकता की जकड़न से निकल नहीं पाए हैं. लेकिन ये सोच हमारी कानून-व्यवस्था में दिखे, ये आश्चर्य के साथ-साथ शर्म की भी बात है. हालांकि महिलाओं के खिलाफ अपराध रोकने के लिए देश में कई कानून बनाए गए हैं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि एडल्टरी (शादीशुदा लोगों का व्यभिचार) कानून एक ऐसा नारी विरोधी कानून था, जिस पर सुप्रीम कोर्ट का ध्यान अब गया है.
सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को भारतीय दंड संहिता में व्यभिचार से सबंधित धारा 497 को रद्द कर दिया।
क्या था व्यभिचार संबंधी कानून (भारतीय दंड संहिता की धारा-497)?
आईपीसी की इस धारा के तहत अगर कोई गैर पुरुष (पति के अलावा) किसी विवाहिता के साथ उसकी सहमति से संबंध बनाता है तो उस महिला का पति पुरुष के खिलाफ व्यभिचार का केस दर्ज़ करा सकता है और इसमें उस विवाहित महिला के खिलाफ केस दर्ज़ कराने का कोई प्रावधान नहीं है। इस अपराध के लिये भारतीय दंड संहिता में पाँच साल की कैद और जुर्माना अथवा दोनों का प्रावधान है। इस प्रावधान में एक विचारणीय तथ्य यह भी है कि इसमें अपराध पत्नी के खिलाफ होता है और शिकायतकर्त्ता केवल पति ही हो सकता है।व्यभिचार के मामले में उस पुरुष को शिकायत करने का अधिकार है, जिसकी पत्नी किसी और से संबंध बनाती है, लेकिन उस महिला को शिकायत का कोई अधिकार नहीं है, जिसके पति ने किसी और से संबंध बनाए हों।एडल्टरी का केस सीधे थाने में दर्ज़ नहीं हो सकता। इसके लिये पीड़ित पति को संबंधित मैजिस्ट्रेट के सामने शिकायत करनी होगी और तमाम साक्ष्य प्रस्तुत करने होंगे। उसकी शिकायत से संतुष्ट होने के बाद अदालत आरोपी को समन जारी कर सकती है और फिर मुकदमा चलाया जा सकता है।इस प्रकार इन मामलों में केवल पुरुष को दोषी बनाना भेदभावपूर्ण है, जबकि विवाहेतर संबंधों में पुरुष व महिला दोनों की समान भागीदारी होती है।
इससे पहले तीन बार शीर्ष अदालत इसपर विचार कर चुकी है। हालांकि तब इसकी वैधता बरकरार रखी गई थी।
1951 युसूफ अजीज बनाम बॉम्बे राज्य –
याचिकाकर्ता की दलील
अजीज ने 1951 में आईपीसी की धारा 497 को चुनौती देते हुए इसे संविधान में अनुच्छेद 14 के तहत मिले समानता के अधिकार का उल्लंघन करार दिया। उन्होंने कहा, यह पुरुषों के साथ भेदभाव करता है, क्योंकि इस कानून में महिलाओं को अपराधी नहीं माना जाता।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने 1954 में दिए फैसले में कहा, धारा 497 वैध है। जहां तक महिलाओं के लिए विशेष प्रावधान का सवाल है, तो यह संविधान के अनुच्छेद 15(3) के तहत संवैधानिक है। अदालत ने कहा, यह सामान्यत: स्वीकार तथ्य है कि पुरुष ही बहलाने या फुसलाने वाला है, न कि महिला। इसलिए महिला व्यभिचार में केवल पीड़ित होती है। अपराधी नहीं।
1985 सौमित्री विष्णु बनाम भारतीय संघ –
याचिकाकर्ता का तर्क
आईपीसी की धारा 497 के तहत अगर विवाहित महिला के साथ अविववाहित पुरुष भी संबंध स्थापित करता है, तो भी इस कानून के तहत सजा का पात्र होता है। इसके उलट अगर अविवाहित महिला विवाहित पुरुष से संबंध स्थापित करती है, तो वह सजा की पात्र नहीं है। जबकि इस स्थिति में भी विवाह की पवित्रता भंग होती है। इसलिए अविवाहित महिला को भी इस कानून में शामिल किया जाए।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
व्यभिचार कानून के तहत अविवाहित महिलाओं को लाने की मांग खारिज की जाती है। शादी की पवित्रता भंग करने पर पत्नी को सजा देने की इजाजत पति को नहीं दी जा सकती। इसी प्रकार पत्नी को दंडित करने की अनुमति नहीं दे सकती। अदालत यह मानती है कि यह एक पुरष द्वारा दूसरे पुरुष के खिलाफ किया गया अपराध है।
1988 वी रेवती बनाम भारतीय संघ
याचिकाकर्ता के तर्क
यह कानून भेदभाव वाला है। इस कानून के तहत पुरुष को तो शिकायत करने का अधिकार है, लेकिन महिला अपने व्यभिचारी पति के खिलाफ शिकायत नहीं कर सकती है। यह दंड प्रक्रिया की धारा198(1) और 198(2) का उल्लंघन है।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
महिला को अपराधी की श्रेणी में नहीं रखना सामाजिक बेहतरी के लिए है। इससे दंपत्ति को विवाद को सुलझाने और शादी की संस्था को कायम रखने में मदद मिलती है। वहीं व्यभिचार कानून तलवार नहीं है, बल्कि रक्षा कवच है। यह कानून संविधान से मिले मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं करता है।
पहले भी 497 पर आपत्ति
– 1971 में दी 42वीं रिपोर्ट में विधि आयोग ने इस कानून को लैंगिक झुकाव से मुक्त करने की सिफारिश की थी
– 2003 में आपराधिक कानूनों में सुधार पर विचार के लिए बनी मलीमथ समिति ने भी धारा 497 को जेंडर न्यूट्रल बनाने की सलाह दी थी
27 सितंबर, 2018 : न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने भारतीय दंड संहिता की धारा 497 को असंवैधानिक बताते हुए इस दंडात्मक प्रावधान को निरस्त किया।
व्यभिचार मुख्य बातें
उच्चतम न्यायालय द्वारा गुरुवार को व्यभिचार के दंडात्मक प्रावधान को असंवैधानिक घोषित करने के फैसले की मुख्य बातें इस प्रकार हैं:
व्यभिचार अपराध नहीं है।ब्रिटिश काल का व्यभिचार रोधी कानून, भादंसं की धारा 497 को असंवैधानिक होने के नाते निरस्त किया जाता है।कानून महिलाओं की व्यैक्तिकता को नुकसान पहुंचाता है और उनके साथ पतियों की ”संपत्ति और ”गुलाम जैसा व्यवहार करता है।158 साल पुरानी भादंसं की धारा 497 पूरी तरह से एकतरफा, पुरातनपंथी और महिलाओं के साथ समानता तथा समान अवसर के अधिकारों का उल्लंघन है।गरिमापूर्ण मानवीय अस्तित्व में स्वायत्तता आंतरिक हिस्सा है और धारा 497 महिलाओं को उनकी ”यौन संबंधी स्वायत्तता से वंचित करती है।महिलाओं के साथ असमान व्यवहार संविधान के प्रतिकूल है।व्यभिचार अतीत का अवशेष है।हालांकि व्यभिचार को दीवानी गलती मानना जारी रखना चाहिए।व्यभिचार विवाह विच्छेद या तलाक का आधार हो सकता है।केवल व्यभिचार अपराध नहीं हो सकता लेकिन अगर कोई पीड़ित पक्ष जीवन साथी के व्यभिचार वाले संबंधों के कारण खुदकुशी करता है, और अगर साक्ष्य पेश किये जाते हैं तो इसे खुदकुशी के लिए उकसाने का मामला माना जा सकता है।व्यभिचार पर दंडात्मक प्रावधान और विवाह के खिलाफ अपराधों के अभियोजन से निपटने वाली सीआरपीसी की धारा 198 असंवैधानिक है।महिलाओं के साथ असमानता वाला व्यवहार करने वाला प्रावधान संवैधानिक नहीं है और यह कहने का समय आ गया है, ”पति, महिला का मालिक नहीं है।
यह इतना अजीबो-गरीब कानून है कि इस पर हमारी संसद ओर सुप्रीम कोर्ट को काफी पहले विचार कर लेना चाहिए था. इस कानूनी धारा के तहत कहा गया है कि अगर किसी शादीशुदा महिला के साथ कोई गैर पुरुष संबंध बनाता है, तो उसके खिलाफ केस किया जा सकता है. लेकिन इसके लिए ये जरूरी है कि शिकायत शादीशुदा महिला के पति की तरफ से की जाए.
क्या भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) का व्यभिचार वाला प्रावधान सिर्फ मर्द को एक अपराधी मानता है और विवाहित महिला को ‘पीड़ित’? दूसरा ये कि इस अपराध में महिलाओं को संरक्षण मिल रहा है, दूसरी तरफ उन्हें एक उपभोग की चीज समझे जाने की सोच को बढ़ावा मिल रहा था.
खामियों को सुधारने, दूर करने के लिए कानून का सहारा लिया जाता है, लेकिन जब किसी कानून में ही खामियों की भरमार हो, तो ऐसे कानून का समाज फायदा नहीं उठाता, बल्कि दुरुपयोग ही करता है. ये बात एडल्टरी (व्यभिचार) कानून के साथ भी कुछ इसी तरह से लागू होती थी।
(के के शर्मा, नवल सागर कुंआ)