हमारे रीति रिवाजों, धार्मिक आस्थाओं तथा परंपराओं का सदा ही वैज्ञानिक आधार रहा है और इसे किसी न किसी धार्मिक अनुष्ठान से जोड़ दिया गया । होली पर रंग डालना,विजयदशमी पर जौ उगाना तथा घर में गन्ना लाना,लोहड़ी पर आग जलाना व रेवड़ियां बांटना मात्र परंपराएं ही नहीं हैं अपितु इसके पार्श्व में कई वैज्ञानिक कारण रहे हैं जिसका मानव शरीर पर विशेष प्रभाव पड़ता है। क्या आप होली पर खीलें बांटेंगे? दीवाली पर तिल की रेवड़ियां बांटते देखा है कभी? दशहरे पर रंग डालना सुना है कभी? यह इस लिए कि सभी मान्यताओं के पीछे कोई न कोई ठोस आधार होता है और वह भी विज्ञान से जुड़ा हुआ जिसे किसी ने प्रचारित करने का कष्ट नहीं किया।
दीवाली पर दीपमाला,लक्ष्मी पूजन तथा अन्य खुशियां मनाने के साथ साथ मिठाई बांटने का रिवाज भारत में प्राचीन काल से रहा है। इस परंपरा में खीलें बताशे और एक मेवा देने की प्रथा रही है।ये तीन चीजें वितरण में आवश्यक मानी जाती रही हैं। बदलते समाज में दीवाली पर गीफट देने की परंपरा में भले ही आज स्वर्ण आभूषण, गृहपयोगी वस्तुएं, ड््राई फ्रूट के डिब्बे,सूट्स,कपड़े,एयर टिकट, रिश्वत आदि देने का रिवाज चल पड़ा हो पर पारंपरिक तौर पर आज भी हम खीलें, गुड़ या चीनी के बताशे तथा एक मेवा अवश्य प्रशाद के तौर पर , मंदिर में चढ़ाते हैं या आपस में बांटते हैं। इन तीन आइटम का ही विशेश महत्व है।
दीवाली का पर्व ,बरसात के एक दम बाद ही आ जाता है। वर्षा ऋतु में धरती का जल विशाक्त हो जाता है। बरसात में अक्सर हमें गंदा पानी पीना पड़ता है जिससे शरीर में कई प्रकार के रक्त विकार हो जाते हैं। गैस्ट्रोएंट्राइटस ,फोड़े फुंसियां होना, वाइरल हो जाना अक्सर बरसात के आसपास वार्षिक फीचर रहते हैं।
खीलेंा में विषाक्त पदार्थ शोषित करने की अद्भुत क्षमता होती है।इसकी प्राकृतिक सरंचना ही कृत्रिम स्पंज या थर्मोकोल की तरह होती है जो तरल पदार्थ सोख लेता है। वजन में हल्का होने के कारण कम भार में अधिक चढ़ता है। परिवार में अक्सर दीवाली के 15 दिनों तक किसी न किसी रुप में इसे खाया जाता है। कभी दूध के साथ ,कभी गुड़ के साथ तो कभी अखरोट के साथ। लगभग 15 से 20 दिनों में खीलें शरीर में बरसात के दौरान एकत्रित हुए विषाक्त पदार्थेां को मलद्वार से बाहर निकाल देती है और जब हम बताशे या गुड़ के खिलौने साथ साथ खा रहे होते हैं तो गुड़ शरीर में रक्त साफ कर रहा होता है। अखरोट बादाम, काजू या कोई भी मेवा हमारे शरीर को आने वाली सर्दी का सामना करने के लिए गर्मी व उर्जा प्रदान करता है। इस प्रकार खीलें बताशों व ड्राई फ्रूट का घर घर वितरण हमारे आयुर्वेद एवं विज्ञान की एक श्रेष्ठ सोची समझी परंपरा है ताकि हमारे समाज में सभी नागरिक निरोग रहें।
यही नहीं भारतीय सोच विश्व कल्याण की है। सरबत दा भला, सर्वेसन्तु सुखि…… हमारा दर्शन है। हर मानव का कल्याण हो इसीलिए हमारी परंपरा में मंदिरो गुरुद्वारों में प्रशाद व लंगर की व्यवस्था की गई है।भूखे को भोजन, आश्रय, दान, सहायता मिले इसके लिए हर समर्थ नागरिक यहां दान स्वरुप क्षमतानुसार योगदान करता रहे और देश के नागरिक व देश शकितशाली बनेा ।
इसी परंपरानुसार दीपावली पर सबसे पहले प्रशाद में खीले मंदिर में चढाई जाती हैं और वहां से जनसाधारण में प्रशाद-दवाई के रूप में वितरित की जाती है। प्रशाद मंदिर में ही खाने का नियम है इसलिए किसी न किसी रुप में यह खाई जाती है और हम बिना जाने ही निरोग हो जाते है। यही नहीं मंदिर में चरणामृत के रुप में जल में तुलसी का पत्ता डाल के देने की परंपरा है। यह भी निर्देश दिया जाता है कि चरणामृत गटक जाओ। इसके पीछे भी वैज्ञानिक कारण है। तुलसी के गुणों से सभी परिचित हैं। रोज प्रसाद के रुप में जब यह मंदिर के माध्यम सेा शरीर में जाती है तो निरोग बनाती है। गटकने के लिए इस लिए कहा जाता है क्योंकि तुलसी में विद्यमान कुछ केमीकल दातेां का एनेमल खराब कर देते हैं अतः इसे चबाना नहीं चाहिए।
इसी प्रकार दही से निर्मित चरणामृत भी एक पैकेज होता है । इसे पंचगव्य कहा जाता है और हमारे हर धार्मिक अनुष्ठान में इसे बांटा जाता है। पंचगव्य में गौ मूत्र,मधु, गाय का दूध, तुलसी तथा गाय के दूध की दही व पंच मेवे डाले जाते हैं । ये सभी चीजें शरीर को रोग, इन्फैक्शन आदि से दूर रखती है। अब आप ही सोचें कि भारतीय पंरंपराएं कितने वैज्ञानिक शोध के पश्चात क्रियान्वयन की गई होंगी !