महर्षि वाल्मीकि के सम्बन्ध में लोगों में एक भ्रान्त धारणा फैली हुई है कि वे आरम्भ में डाकू थे। रामायण में तो उनके सम्बन्ध में यही घटना उपलब्ध होती है। वाल्मीकिजी के सम्बन्ध में रामायण को ही प्रामाणिक माना जा सकता है। सीताजी की पवित्रता की साक्षी देते हुए उन्होंने कहा था―
*प्रचेतसोऽहं दशम: पुत्रो राघवनन्दन।*
*मनसा कर्मणा वाचा भूतपूर्वं न किल्बिषम्।।*
हे राम ! मैं प्रचेतस मुनि का दसवाँ पुत्र हूँ। मैंने मन, वचन और कर्म से कभी पापाचरण नहीं किया है।
इस श्लोक के विद्यमान रहते हुए महर्षि वाल्मीकि के सम्बन्ध में यह कैसे कहा जा सकता है कि वे यौवन-अवस्था में डाकू रहे होंगे। वे वाल्मीकि कोई दूसरे हो सकते हैं। एक ही नाम के अनेक व्यक्तियों का होना असम्भव नहीं है।