ललित मोहन जोशी : भाद्रपद (भादो) महीने की संक्रांति को उत्तराखंड में ओल्गी या घी संक्रांति के रूप में मनाई जाती है। इस साल यह त्यौहार 17 अगस्त 2019 को मनाया जा रहा है। यह कृषि और पशुपालन से जुड़ा हुआ एक पहाड़ी लोक पर्व है। बरसात के मौसम में उगाई जाने वाली फसलों में बालियाँ आने लगती हैं, किसान अच्छी फसलों की कामना करते हुए ख़ुशी मनाते हैं। बालियों को घर के मुख्य दरवाज़े के ऊपर गोबर से चिपकाया जाता है। बरसात में पशुओं के दूध में बढ़ोतरी होने से दही -मक्खन -घी भी प्रचुर मात्रा में मिलता है।
अतः इस दिन घी का प्रयोग अवश्य ही किया जाता है। कहा जाता है जो इस दिन घी नहीं खायेगा उसे अगले जन्म में गनेल यानि घोंघे (snail) के रूप में जन्म लेना होगा। छोटे बच्चों के सर पर घी लगाया जाता है। यह घी के प्रयोग से शारीरिक और मानसिक शक्ति में वृद्धि का संकेत देता है।
इस दिन सभी लोग अपने मित्रों व सम्बन्धी जनों को ओल्गा (पापड, तुरयी, मूली, सकिमिरच, ककड़ी, भुट्टा आदि) भेट करते हैं। पूर्व में, यही नहीं समाज के अन्य वर्ग शिल्पी ,दस्तकार, लोहार, बढई आदि भी अपने हस्त कौशल से निर्मित वस्तुएँ भेंट में देते थे, और धन धान्य के रूप में ईनाम पाते थे। अर्थात जो खेती और पशुपालन नहीं करते थे वे भी इस पर्व से जुड़े रहते थे। क्योंकि इन दोनों व्यवसायों में प्रयोग होनें वाले उपकरण यही वर्ग बनाते थे। गृह निर्माण हो या हल , कुदाली, दातुली जैसे उपकरण या बर्तन, बिणुली जैसे छोटे वाद्य यंत्र हों। इस भेंट देने की प्रथा को ओल्गी कहा जाता है।
सुबोध लाल साह (खजांची मोहल्ला अल्मोड़ा) इस बारे बताते हैं “इस दिन हमारे पारिवारिक बढई हमारे लिए “कडकडुवा” बना लाते थे जो घुमाने पर जोर की आवाज करता था और लकडी की डोली लाते थे जिसमे गुडिया रखी जाती थी।”
इस दिन रात्रि को पकवान में बेडू रोटी या कचौरी बनाई जाती है। (जो उरद की दाल भिगो कर, पीस कर बनाई गई पिट्ठी से भरवाँ रोटी बनती है ) और घी में डुबोकर खाई जाती है। पापड के पत्तों (गढेरी के गाबे) की सब्जी बनती है।
सादर
ललित मोहन जोशी. प्रभारी, सीसीआरटी ‘बुराँश’ सांस्कृतिक क्लब