भोजन का मन पर प्रभाव
हमारे शरीर की वृद्धि, स्थिति और कार्यशक्ति जिस प्रकार भोजन पर आधारित है, वैसे ही हमारा मन भी भोजन से प्रभावित होता है। छान्दोग्योपनिषद् के अनुसार खाया हुआ अन्न तीन भागों में विभक्त हो जाता है। अन्न का स्थूल भाग मल के रुप में शरीर से निष्कासित कर दिया। जाता है। मध्य भाग से मांसादि का निर्माण होता है। जैसे दूध को मथने से उसका सारभाग मक्खन दूध के ऊपर एकत्रित हो जाता है, उसी भाँति अन्न का पाचन होकर उसके सूक्ष्म भाग से मन का निर्माण होता है। (छान्दोग्य० उप० ६/५) कहा भी है―’जैसा खावे अन्न, वैसा बने मन’।
आचार्य चरक भी अन्न द्वारा मन का बलिष्ठ और शक्तिसम्पन्न होना स्वीकार करते हैं। (च० सू० २७/३) मन का निर्माण प्रकृति के सत्त्वगुण से हुआ है (सांख्य० १/६१)। यही मन जब रजोगुण और तमोगुण से आविष्ट हो जाता है तो अनेक मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं। यदि गम्भीरता से विचार करें तो विदित होगा कि अधिकतर रोग अस्वस्थ मानसिक पृष्ठभूमि में ही पनपते हैं। मन के स्वस्थ हो जाने पर व्यक्ति सामान्य औषध लेने से ही स्वस्थ हो जाता है। मानसिक स्वास्थ्य के लिए सत्त्वगुण–प्रधान भोजन लेना चाहिए। उदाहरण के लिए बिजली का प्रकाश देने वाली एक ट्यूब से श्वेत काँच निकलता है। यदि उस पर लाल रंग का पारदर्शी कागज या काँच चढ़ा दिया जाए तो निकलने वाला श्वेत प्रकाश भी लाल रंग का हो जाएगा। इसी भाँति काला आवरण चढ़ा देने से धुँधला–सा प्रकाश ही फैलेगा। इसी प्रकार यदि हम राजसिक भोजन करते हैं तो हमारा मन भी रजोगुणी और तामसिक भोजन से तमोगुणी हो जाएगा। ऐसे ही पाप का अन्न तथा बिना परिश्रम के प्राप्त अन्न खाने से भी मन और बुद्धि मलिन हो जाते हैं। गीता में सात्त्विक, राजसिक और तामसिक भोजन का निम्न प्रकार वर्गीकरण किया है
सात्त्विक भोजन― आयु, बल, बुद्धि, आरोग्य को देने वारे, रुचिकारक, सुपच, रसवाले, स्नेहयुक्त, शरीर को स्थिरता प्रदान करने वाले तथा ह्रदय को प्रिय पदार्थ सात्त्विक होते हैं, यथा, अन्न, दाल, मीठे पदार्थ, घृत, दुग्ध, दूध से बने दही, तक्र आदि पदार्थ, आँवला, सेब, मोसम्बी इत्यादि फल, लौकी, तोरई, मूली, परवल, बथुवा, पालक आदि शाक–सब्जियाँ, स्नेहयुक्त पदार्थ जैसे घी, मक्खन, बादाम, तिल, नारियल की गिरी, सोयाबीन, मूँगफली आदि, जिनको देखने–मात्र से उन्हें खाने की रुचि हो, जो स्वच्छ हों तथा जिनका पाचन भली–भाँति हो जाए और जिन्हें सम्यक् विधि से पकाया गया हो, वे सब खाद्यपदार्थ सात्त्विक भोजन की श्रेणी में आते हैं।
राजसिक भोजन―_ कटु―प्याज, लहसुन आदि, अम्ल–खट्टे―इमली, आम का अचार इत्यादि, लवणयुक्त―नमकीन पदार्थ, अधिक उष्ण―जैसे गर्म दूध, चाय आदि और जिन पदार्थों के खाने से शरीर में उष्णता उत्पन्न हो, तीक्ष्ण―मिर्च आदि, रुक्ष_―भुने हुए अथवा घृतादि के बिना पके हुए जैसे चना, जलन करने वाला―राई, गर्म मसाला, हींग इत्यादि, तथा अन्य सभी पदार्थ जिनके खाने से शरीर एवं मन में रजोगुण की वृद्धि और रोगों की उत्पत्ति हो, वे सब खाद्य पदार्थ राजसिक प्रकृति के लोगों को प्रिय होते हैं।
तामसिक भोजन― अधपका, नीरस, दुर्गन्धयुक्त, बासी, जूठा तथा अपवित्र भोजन (माँस, अण्ड़ा आदि) और बुद्धि का लोप करने वाले मद्य, अफीम, भाँग, चरस, हिरोइन, तम्बाक, पान मसाला इत्यादि पदार्थ तामसिक होते हैं। उपर्युक्त राजसिक एवं तामसिक पदार्थों का परित्याग करके सात्त्विक भोजन का ग्रहण करना मानसिक स्वास्थ्य के लिए उपयोगी है।