प्रियंका वाड्रा आज से नहीं, बल्कि 1999 से राजनीति में
सक्रिय है। अन्तर केवल इतना है कि उस समय से अबतक यह सक्रियता केवल 2
संसदीय सीटों (अमेठी, रायबरेली) तक ही सीमित रहती थी। मां-बेटे के 20-25
दिन लम्बे पूरे चुनाव अभियान के दौरान प्रियंका वाड्रा वहीं डेरा डाले रहती थीं। एक-एक गांव की खाक़ छानती थीं। दोनों संसदीय सीटों पर बूथ कमेटियों का गठन भी प्रियंका वाड्रा की सलाह और सहमति के बिना नहीं होता है। 2014 तक
दोनों चुनावी क्षेत्र में प्रियंका के राजनीतिक दौरे निरंतर होते रहे हैं।
1999 से 2014 तक यह सिलसिला अबाध चलता रहा है। 1999 से 2009 तक तो इन क्षेत्रों की चुनावी रिपोर्टों के लिए निरंतर दौरे करता रहा हूं। अतः प्रियंका की
राजनीतिक/चुनावी सक्रियता/व्यस्तता का साक्षी भी रहा हूं।
अब बात प्रियंका के राजनीतिक करिश्मे की। 2014 में चुनाव से केवल 2 हफ्ते
पहले स्मृति ईरानी ने अमेठी में कदम रखा था। उस समय तक अमेठी को स्मृति
ईरानी नहीं जानती थीं। स्मृति ईरानी को अमेठी भी नहीं जानती थीं।
लेकिन केवल 2 हफ्ते में स्मृति ईरानी ने प्रियंका समेत मां-बेटे के करिश्मे को
ऐसा झटका दिया था कि रायबरेली छोड़कर प्रियंका ने भी लगातार 20 दिनों तक
केवल अमेठी में ही डेरा डाल दिया था। सपा का खुला समर्थन भी कांग्रेस को
मिल रहा था। लेकिन जब चुनाव का नतीजा निकला था तो राहुल गांधी को केवल
1,07,000 वोटों से जीत मिली थी। जबकि इससे पहले राहुल गांधी को 2004 में
66% वोट के साथ 2.91 लाख वोटों से जीत मिली थी तथा 2009 में 71.70% वोट के
साथ 3.70 लाख वोटों से जीत मिली थी।
दरअसल 1999 में सोनिया के आगमन के बाद से लोकसभा चुनावों में अमेठी/रायबरेली में कांग्रेस को वॉक ओवर देती रही थीं पार्टियां। 2014 में स्मृति ईरानी
द्वारा दी गयी चुनौती ने कांग्रेस के तथाकथित राजनीतिक तुरुप के इक्के की
कलई खोलकर रख दी थी। जिस प्रियंका के सहारे देश में कांग्रेसी क्रांति आ
जाने, छा जाने का ढोल बजाकर न्यूजचैनली हिजड़े नाच गा रहे हैं। उस प्रियंका
को अमेठी के साथ ही यूपी की राजनीतिक संस्कृति शैली से शत प्रतिशत अनभिज्ञ
स्मृति ईरानी ने अमेठी में कैद रहने को मजबूर कर दिया था। इसे करिश्मा नहीं कहते। करिश्मा क्या होता है और करिश्माई राजनेता कैसा होता है।
यह 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी ने दिखाया था। नरेन्द्र
मोदी ने केवल वाराणसी में 3 दिन के अपने रोड शो से पूर्वी यूपी की 140
विधानसभा की सीटों पर चमत्कारिक प्रभाव डाला था। जबकि 18 वर्षों से
प्रियंका के करिश्मे के #मीडियाई झूले में झूल रही अमेठी/रायबरेली की 10
में से 9 सीटों पर कांग्रेस को शर्मनाक पराजय मिली थी। 10वीं सीट भी
कांग्रेस या प्रियंका के करिश्मे की बदौलत नहीं बल्कि लगभग 25 वर्षों से उस सीट पर एकछत्र राज्य कर रहे बाहुबली अखिलेश सिंह की बीमारी के कारण
कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ी अखिलेश सिंह की बेटी को मिली थी।
यदि अखिलेश सिंह के दबदबे की बैसाखी ना मिलती तो कांग्रेस वहां भी धराशायी
होती।
क्योंकि सपा बसपा
विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का सनर्थन नहीं करतीं हैं इसलिए हर विधानसभा
चुनाव में प्रियंका का करिश्मा राजनीतिक कोमा में नज़र आता है।
इसलिए आज दोपहर से पूरे देश के दर्शकों की खोपड़ी दीमक की तरह चाट रहे न्यूजचैनली विशेषज्ञ और सभी सिड़ी सनकी झक्की मूर्ख धूर्त चाटुकार चमचे और पत्रकार
कृपया उपरोक्त तथ्यों पर भी ध्यान दें।
साभार – सतीशचंद्र मिश्रा