रविशंकर सिंह : भारत गुरूकुलों का देश था जातकों में जिस प्रथम विश्वविद्यालय कि चर्चा है वह है ” तक्षशिला “
तक्षशिला कि स्थापना भगवान राम के भाई भरत के पुत्र तक्ष ने कि थी वाल्मीकि रामायण में इसकी चर्चा है ऋग्वेद में भी तक्षशिला कि चर्चा है ।
तक्षशिला विश्वविद्यालय में देश विदेश के 10 हजार विद्यार्थी पढ़ते थे वैसे तो यहां सभी तरह की शिक्षा दी जाती थी लेकिन यह विश्वविद्यालय शस्त्र विद्या और राजनीति शास्त्र के लिये प्रसिद्ध था ।
आचार्य चाणक्य यहां शिक्षा ग्रहण किये और यही राजनीतिक शास्त्र के आचार्य हो गये भारत के 16 महाजनपदों के राजपुत्र यही शिक्षा ग्रहण करते थे जिन महान राजाओं की चर्चा है जो यहां शिक्षा ग्रहण किये उनकी संख्या सीमितजातक में 103 दी गई है जिसमे प्रसेनजित , शल्य , लिक्ष्वी , काशीनरेश , मगध आदि के नाम है प्रसिद्ध डाकू अंगुलिमाल भी यही शिक्षा ग्रहण किया था बात स्प्ष्ट है इस विश्वविद्यालय में सभी वर्णों के लोग समान शिक्षा ग्रहण करते थे ।
शिक्षा भारत के लिये कितना महत्व रखती थी यह विषय है ? महाजनपदों में राजा के बाद पद महामंत्री का होता था यह व्यवस्था आदि काल से चली आ रही है विदुर जी महामंत्री ही थे इसके बाद मंत्रिमंडल होता था जिसमें महामंत्री , राजपुरोहित , अमात्य , सेनाध्यक्ष राजा द्वारा मनोनीत मंत्री होते थे ।
वास्तव में प्राचीन भारत राजा द्वारा नहीं मंत्रिमंडल द्वारा संचालित होता था यह अवश्य है राजा मंत्रिमंडल के किसी निर्णय को अस्वीकार कर दे ;
महामंत्री मंत्रिमंडल के निर्णय को राजा द्वारा अनुमोदित कराता था ।
तक्षशिला के राजनीतिक शास्त्र से निकले विद्यार्थी महामंत्री पद सुशोभित करते थे जिनमें प्रसिद्ध नाम सत्तार , वरुचि , अमात्य कात्यान , चाणक्य आदि है ।
अति शिक्षित प्राचीन भारत में सबसे समृद्ध मगध के शासक घनानंद का विनाश शिक्षा के नाम पर हुआ यह रोचक तथ्य है !!
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नंद वंश के शासन के समय जो भारत के क्षितिज पर अशांति थी वही अशांति वर्तमान भारत में है
इसलिये वर्तमान भारत को समझने के लिये
इस काल को समझना आवश्यक है यही उद्देश्य भी है ।
ईसा के 350 वर्ष पूर्व भारतीय समाज जैसे किसी परिवर्तन कि प्रतीक्षा कर रहा था ऐसा लगता है जैसे समाज को किसी परिवर्तन कि आवश्यकता थी तथागत के धम्म और महावीर के सम्प्रदाय को समाज का एक वर्ग स्वीकार कर लिया इसको स्वीकार करने वाला संपन्न वर्ग जो इस नवीन दार्शनिक विचार को वर्ण व्यवस्था से मुक्ति माध्यम मानने लगा था जिससे नये उपासकों का एक वर्ग तैयार हो गया यही वर्ग परंपरा और वेदों का विरोध करने लगा फलस्वरूप वेद विद्वानों , आचार्यो ने उदयमान दर्शन का विरोध और खंडन शुरू कर दिया ।
परंपर वादी वेदाग्यो को एक कुठाराघात नंद वंश ने दिया सत्ता ने नवीन दर्शन को अप्रत्यक्ष प्रोत्साहन दिया जिससे पाटिलपुत्र से आचार्यो का पलायन होने लगा !
आचार्य निर्धन थे भिक्षा से जीवन यापन करते थे
आचार्यो कि अनुपस्थिति में उपाध्यायों का विकास हुआ जो स्वर्ण लेकर शिक्षा देते थे
अब भारत मे मात्र दो स्थान ऐसे बचे थे जंहा वेदों की शिक्षा दी जाती थी काशी और तक्षशिला जंहा आचार्य पलायित होकर जाने लगे !
इसी समय तक्षशिला से आचार्य विष्णुगुप्त का आगमन पाटिलपुत्र हुआ इसके पहले आचार्य चाणक्य सिकंदर के आक्रमण के समय मगध से सहायता मांगने आये थे ।
चाणक्य कि उपस्थिति ने पाटिलपुत्र में अफवाहों को जन्म दिया क्योंकि यही वह चाणक्य है जिन्होंने ने पोरस से पराजित सिकंदर कि सेना का उत्तरापथ में विनाश करा दिया ।
मगध के महामंत्री वरुचि जो स्वयं तक्षशिला के छात्र और शिक्षक रहें थे उनके सामने आचार्य चाणक्य ने पाटिलपुत्र में बहुत बड़े भूभाग को खरीदने का प्रस्ताव भेजा !
वरुचि ने उद्देश्य जानना चाहा तो चाणक्य ने संदेश भेजा उस जमीन पर एक विश्वविद्यालय कि स्थापना होगी चूंकि वरुचि स्वयं आचार्य थे आचार्यो के पाटिलपुत्र से पलायन से चिंतित थे उनको अतिशय प्रसन्नता हुई उन्होंने यह जमीन अनुदान में देने का प्रस्ताव रखा और चाणक्य से मिलने कि इच्छा प्रकट करते हुये मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई ।।
प्राचीन भारत की शिक्षा -3
धनानंद के महामंत्री शट्टार जो एक विद्वान थे तक्षशिला में शिक्षक थे उनकी नियुक्ति धनानंद के पिता महापद्मनंद ने कि थी पुराणों में महापद्मनंद को शिशुनाग वंश क्षत्रिय कहा गया है कुछ विद्वान मानते है वह ” नाई ” था कुछ भी हो वह प्रतापी शासक था विद्वानों , आचार्यो का सम्मान करता था इसलिये शट्टार जैसे विद्वान कि नियुक्ति किया था ।
धनानंद भोग विलासी व्यक्ति था उसने शट्टार को महामंत्री पद से हटा दिया उसके अमात्य का
कात्यायन ने जिसकी अनुसंशा कि वह भी तक्षशिला के आचार्य वरुचि थे ।
यह वह काल है भारत का जब व्यक्ति का परिचय गुरुकुल और आचार्य से होता था
वरुचि विदुर , चाणक्य के बाद सबसे महान महामंत्री भारत के जाने जाते है !!
अस्थिर होती वर्ण व्यवस्था जंहा तथागत के प्रभाव में युवा क्षत्रिय भिक्षु बन रहे थे
जनमानस में घर्षण था वह निर्धन आचार्यो को दान देने को तैयार न था परंपरा और वेद कि शिक्षा खतरे में थी !
आचार्य चाणक्य देख रहे थे जो नवीन दर्शन प्राकट्य हुआ है उसका मतांतर मात्र धार्मिक नहीं है यह सामाजिक स्तर पर समाज को प्रभावित कर रहा है लेकिन उनकी आशा महामंत्री वरुचि पर टिकी थी कि वह मंत्रिमंडल की बैठक में विश्वविद्यालय का प्रस्ताव पारित करा लेंगे ।
महामंत्री वरुचि ने परिषद कि बैठक बुलाई
परिषद क्या है ?
अर्थवेद कहता परिषद या सभा के निर्णय को मानना राजा कि बाध्यता है यह ज्ञान सभा है जिसमें काशी , तक्षशिला , पाटिलपुत्र के आचार्य , स्नातक थे ;
ज्ञान परिषद में विषय से पहले स्नातकों से कुछ प्रश्न किये गये !
वरुचि ने परिषद का उद्घाटन किया – ॐ
मैं वेदो को साक्षी मानकर सभी का स्वागत करता हूँ तक्षशिला के स्नातक से कुछ प्रश्न है ;
सुख का मूल क्या है ?
स्नातक – धर्म
धर्म का मूल ?
स्नातक – अर्थ
अर्थ का मूल ?
स्नातक – राज्य
राज्य का मूल ?
स्नातक -राजा
राजा का मूल ?
प्रजा ,
राजा को किस पर विजय पानी चाहिये ?
स्नातक – स्वयं पर अर्थात इंद्रियों और लोभ पर
यह उत्तर धनानंद को क्रोधित कर दिया लेकिन परिषद के सामने बोल न सका ।
परिषद ने जो विचार व्यक्त किये वह धनानंद के पक्ष में थे परिषद ने कहा परिषद का कार्य वेदो कि रक्षा और धार्मिक मतों में भेद होने पर समाधान करना है वह राजा को बाध्य नहीं कर सकती कि किसी विश्वविद्यालय कि स्थापना करे !
वरुचि को इससे निराशा हुई
उन्होंने निर्णय लिया विश्वविद्यालय के लिये भूमि राज्य अनुदान नहीं दे रहा है तो क्रय कि जाय जिसमें वह चाणक्य को सहायता देने को तैयार थे
वरुचि क्यों न महामंत्री हो लेकिन उनके अंदर एक शिक्षक जी रहा था संभव है आचार्य चाणक्य भी यही चाहते थे कि शिक्षा की उपेक्षा से ही धनानंद
के विरुद्ध विद्रोह हो सकता है ।
………आगे भी जारी
क्रमशः ……