ज्योति तिवारी : “शुक्ला जी की छोटी बेटी घर आ गयी है, कहती है ससुराल वालों ने मारा पीटा दहेज़ माँगा। मैं चूंकि खुर- पेंची किस्म की हूँ तो मैंने पूछा,”क्यों री जब शादी में सब लिया- दिया जा रहा था तब काहे चुप थी। ” कहने लगी वो तो दिया-लिया जाता ही है।”
“अरे तो अब क्या ख़ास हो गया लड़का भी तुमको अच्छे घर और बढ़िया जॉब वाला चाहिए था वो दहेज़ नहीं था क्या?” मैंने पूछा ,”वो तो मेरा हक़ है ना !वो तमक कर बोली।
“हाँ सब तुम्हारा ही हक़ है बाकि सब तो तुम्हारे ग़ुलाम हैं”,मैं मन ही मन बुदबुदायी। वो आगे बोली,” यहाँ मैं रानी की तरह रहती थी वहां सुबह उठो चाय बनाओ नाश्ता बनाओ मैं क्या नौकरानी हूँ ?” अपने सपनों की दुनिया की रानी बोली।
“हैं अपने घर का काम करने से भला कोई नौकर बन जाता है क्या, तुम्हारा पति भी तो घर चलाता है वो क्या मजदूर है ?” मैंने पूछा।
“वो उनका घर है, बढ़िया अपने माँ -बाप के साथ रहते हैं, मैं उनके घर में काम क्यों करूँ ?” उसके अंदर की फेमिनिस्ट बोली।
मैंने बोला, “तो एक काम करो पति को मायके ले आओ, तुम कमाओ सबका खर्चा उठाओ टैक्स भरो और वो हाउस हस्बैंड बन जायँगे क्या प्रॉब्लम है इसमें ?”
“हाय ऐसा कहीं होता है आप भी क्या कह रही हैं,मैं तो केस करुँगी 498a का पैरों में गिरकर ले जायेंगे मुझे और पैसे भी देंगे प्रेगनेंट हूँ ना चित भी मेरी होगी पट भी मेरी।” वो आखें चमका कर बोली।
“चलो ठीक है तुम्हारी मर्ज़ी इसका मतलब दहेज़ वहेज तो बेकार की बात है तुमको महारानी बन कर रहना है अपनी शर्तों पर। ” मैंने निराश होकर कहा। वहां शुक्ल जी और उनका बंधुवा मजदूर बेटा तमतमाए घूम रहे हैं,” हमारी बेटी को परेशान किया नाकों चने चबवा देंगे।” मैं मन ही मन हंस दी की मूर्खों कहीं यह दांव उल्टा ना पड़ जाए (क्रमशः )
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