शत्-शत् नमन बलिदानी वनवासियो को, 7 मार्च/इतिहास स्मृति: पाल चितरिया/नीमडा का नरसंहार ।
जलियांवाला कांड के केवल तीन वर्ष बाद हुए हत्याकांड में कुएं में दब गईं वनवासियों की चीखें।
डॉक्टर बृजेश कुंतल : सन 1919- बैशाखी के दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में घटा हत्याकांड भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास के पृष्ठों पर भयानक नरसंहार के रूप में अंकित है। किन्तु इस कांड के ठीक तीन वर्ष बाद 7 मार्च, 1922 को गुजरात के वनवासीयो पर हुआ।
इसी खेत में था शहीदों की लाशों से भरा कुआं। कुएं का स्थान दिखाते हुए खेत के मालिक श्री कोदरभाई पटेल।
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यहां अब केवल मिट्टी ही है। बहुल साबरकांठा जिले में घटा “पाल-चितरिया हत्याकांड’ इससे भी अधिक भीषण नरसंहार था। उस दिन एक अंग्रेज अधिकारी के आदेश पर हुई
गोलीबारी में सैकडों वनवासी शहीद हो गये। 1200 लोगों की लाशों के ढ़ेर जहां पर लगे थे, वह भिलोड़ा तहसील का पाल-चितरिया गांव आज “वनवासी स्वातंत्र्यवीरोें की शहादत-भूमि’ के नाम से जाना जाता है। यह घटना पाल गांव की है जो उत्तर गुजरात के साबरकांठा जिले के भिलोड़ा तहसील में राजस्थान के खेरवाड़ा तहसील की सीमा पर स्थित है। पाल से पहले एक-डेढ़ कि.मी. के अन्तर पर द्रढवाव गांव आता है। द्रढवाव गांव में ही “पाल-चितरिया हत्याकांड’ घटा था। “पाल’ और “चितरिया’ द्रढवाव गांव के बिलकुल आसपास में ही हैं। इसीलिए यह घटना “पाल-चितरिया हत्याकांड’ के नाम से जानी जाती है।
कोदरभाई अपने पिता रूपाभाई पटेल के मुंह से सुनी वनवासी स्वातंत्र्यवीरो की गाथा की संपूर्ण जानकारी देते हुए कहते हैं, “आम के पेड़ों से थोड़ी ही दूरी पर “जोरावर नी टेकरी’ नामक एक छोटा-सा टिला था, (वह टिला आज भी है) जहां पर मेवाड़ भील कोर बंदूक ताने खड़ी थी। नदी के उस पार के खेतों में चने बोये गये थे, नदी के किनारे पर एक कुआं था और कुएं के किनारे पर एक बहुत बड़ा बरगद का पेड़ था। मोतीलाल तेजावत, जो इस संग्राम के नेता थे, वे ऊंट पर बैठकर सभास्थान पर आये थे। उनके साथ दक्षिण राजस्थान से लगभग दो हजार वनवासी अपने परंपरागत शस्त्रों, देशी बन्दूक, तीर-धनुष, तलवार, भाला आदि के साथ सभा में उपस्थित हुए थे। वनवासी स्त्रियां भी काफी संख्या में थीं। श्रोतागण शांत थे। मोतीलाल वनवासियों का अंग्रेजों और उनके इशारे पर नाचनेवाले जागीरदारों के अत्याचार के विरुद्ध स्वाभिमानपूर्वक खड़े रहने का आह्वान कर रहे थे कि अचानक किसी वनवासी की बंदूक से अनजाने में गोली छूटी और अंग्रेज अधिकारी एच.जी. सट्टन के कान के एकदम नजदीक से निकल गई। उसने अपनी सेना को गोली चलाने का आदेश दे दिया। अफसर के पास खड़ी बालेटागढ़ गांव की एक वनवासी महिला सोमीबहन गामित ने सुलह कराने के लिए अपनी साड़ी दोनों के बीच फेंकी। वनवासियों में एक रिवाज है कि जब कोई स्त्री अपनी साड़ी उतारकर दो पक्षों के बीच फेंकती है तो दोनों पक्ष एक दूसरे के साथ सुलह कर लेते है। किन्तु यह अंग्रेज तो अभिमानी था, भारतीयों को अपने पैरों की धूल समझनेवाला। शासकीय अहंकार में चूर एवं मदमस्त अंग्रेज अपने इरादे पर अटल रहा। मेवाड़ भील कोर के भील सूबेदार सूरजी निनामा ने आदेश का पालन करते हुए गालियां चलानी शुरू की। सोमीबहन समेत अनेक वनवासियों को गोलियों से भून दिया गया। चने के लहलहाते खेत लहू से भर गये। लाशों के ढेर लग गये। बाद में मेजर सट्टन ने वनवासियों की लाशों को कुएं में फिंकवा दिया। इस भीषण हत्याकांड की चीखें कुएं में ही दब गईं। लाशें इतनी अधिक संख्या में थीं कि कुआं लबालब भर गया। कई लाशें नदी में बहा दी गईं तथा कई अन्य स्थानों पर गाड़ दी गईं।
इस संग्राम के मुख्य नायक मोतीलाल तेजावत राजस्थान के कोलियारी (जिला उदयपुर) के निवासी थे। देशभक्त मोतीलालजी ओसवाल जैन कुल में जन्मे थे। सामान्य शिक्षा प्राप्त मोतीलालजी को हिन्दी, उर्दू एवं गुजराती भाषाओं का ज्ञान था। वे झाड़ोल (उदयपुर) के जागीरदार के यहां कामदार का कार्य करते थे। उन्होंने देखा कि भील, गरासिये एवं अन्य लोगों को पकड़कर काम लिया जाता है। मगर मजदूरी के नाम पर पाई भी नहीं चुकाई जाती। कार्य में कुछ कमी रह जाने पर उन्हें दंड भी दिया जाता है। कोड़े लगाये जाते अथवा जूतों से पीटा जाता है। इस प्रकार के अत्याचार तेजावतजी से देखे नहीं गये। उन्होंने झाड़ोल आकर नौकरी को ठोकर मार दी और भीलों को इन अत्याचारों से मुक्त कराने हेतु कृत संकल्प हो गये।
तेजावतजी ने सन 1919 में मातृकुंडियां (जिला चित्तौड़गढ़) में जाकर सर्वप्रथम राज्य के अत्याचारों के खिलाफ “एकी’ नामक आंदोलन का श्रीगणेश किया। बाद में उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध भीलों को संगठित करने का कार्य भी किया। यहीं पर उन्होंने एक किसान मेले में हजारों किसानों को अत्याचार के खिलाफ खड़े होने का आह्वान किया। इस आंदोलन ने वनवासियों व किसानों को सामाजिक कुरीतियों को छोड़ने और कष्ट व शोषण का सामना करने के लिए एकजुट होने की प्रेरणा दी। वनवासियों ने एकता की शपथ ली। तेजावतजी के आह्वान पर हजारों किसान और वनवासी संगठित हो गये और शासकों के अत्याचार के विरुद्ध उठ खड़े हुए। अंग्रेज भी सतर्क हो गये। उन्होंने रियासत पर दबाव डाला कि मोतीलाल तेजावत को गिरफ्तार कर लो। अंग्रेजों को डर था कि मोतीलाल तेजावत के नेतृत्व में वनवासी और किसान संगठित हो गये तो उनसे लगान वसूलना मुश्किल हो जायेगा। और यदि वे स्वतंत्रता आंदोलन में सहभागी हो गये तो आंदोलन को कुचलना और भी मुश्किल हो जायेगा। तेजावतजी को वनवासियों और किसानों को संगठित करने में मिली सफलता का असर मेवाड़ के भील क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रहा अपितु गुजरात की रियासतों- पालनपुर, ईडर आदि पर भी पड़ा।
“पाल-चितरिया हत्याकांड’ घटना की जानकारी लोगों तक क्यों नहीं पहुंची? वनवासी समाजसेवी श्री दोलजी भाई डामोर बताते हैं, “यह एक छोटा-सा गांव है, जहां पर घटना घटी। यहां के लोग एकदम गरीब और अनपढ़ हैं। उनमें इस इतिहास को सुरक्षित रखने की सूझ नहीं थी। इसके अलावा एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि चालाक अंग्रेजों ने इस घटना को इस प्रकार से दबा दिया कि आज उसके कोई दस्तावेजी सबूत उपलब्ध नहीं हैं। घटनास्थल पर खड़े आम के पेड़ों को जब काटकर बाजार ले जाया गया था तो उसके तनों में घुसी हुई गोलियां निकली थीं। पर उस समय भी किसी में इतनी समझ नहीं थी कि वह इस ऐतिहासिक वस्तु को संभाल कर रख लेते।’ जहां अनेक वनवासी शहीद हुए, वह कुआं तो आज नहीं रहा, परन्तु इस क्षेत्र में बसनेवाली उनकी नयी पीढ़ी इस घटना पर एक स्मारक बनाना चाहती है। मोतीलाल तेजावतजी ने भी इस हत्याकांड के बाद इस स्थान को “वीर-भूमि’ नाम देने की इच्छा व्यक्त की थी।