अमित तोमर : 2012 में एक निहायत ही घटिया शार्ट फ़िल्म आयी थी जिसका नाम था “Innocence of Muslims”। इसे फ़िल्म कहना भी किसी मज़ाक से कम नही होगा क्योंकि ये फ़िल्म थी ही नही अपितु ये केवल एक घिनोनी हरकत थी जिस कारण पूरे विश्व के मुस्लमान सड़कों पर उतर गए और विरोध की आग में मिस्र से लेकर भारत तक जल गया। अनपढ़ जिहादियों की भीड़ फ़िल्म का शिकार हुई और अरब से लेकर भारत तक अशांति फैल गयी। मुम्बई में तो जिहादी भीड़ ने ऐसा तांडव किया था कि शहीद स्मारक तक तोड़ डाले थे। शायद ही किसी समझदार मुस्लमान ने “Innocence of Muslim” देखी होगी और जिसने देखी होगी वो फ़िल्म की फूहड़ता देख लोट-पोट हो गया होगा। वो प्रयास था मुस्लमानों को भड़काने का और सफलता हाथ लगी।
अब जब मुस्लमान इतने कट्टर हो सकते है तो हिन्दू क्यो पीछे रहते। 2013 में राजनैतिक हिंदुत्व ज़ोरो पर था और संजय लीला भन्साली जैसा एक घाघ जो किसी भी प्रकार प्रचार की हवस में पागल था उसने “राम लीला” फ़िल्म उतार दी। ये फ़िल्म वाले कतई मूर्ख नही होते और इनकी फिल्मों के नाम इनकी मार्केटिंग टीम तय करती है वो भी पूरे अध्यन के बाद। अब निश्चित ही यदि फ़िल्म का नाम “रामलीला” होगा तो हिन्दू भड़केंगे ही। वैसे आम हिन्दू कभी नही भड़कता पर उसे भड़काने के लिए और अपनी राजनीति चमकाने के लिए भारत के ढ़ाई हज़ार से अधिक पंजीकृत हिन्दू संगठन अवश्य भड़क जाते है क्योंकि यदि ‘सरकारी मुस्लमानों’ की ‘इज्तमा’ के विरोध में ‘सरकारी हिन्दू’ धर्मसभा नही करेंगे तो उनकी TRP गिर जाएगी। पूरा बवाल हुआ और हमने भी कोतवाली देहरादून में ‘रामलीला’ के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवाने के लिए प्रार्थना पत्र दिया। अखबारों में बढ़िया फोटो भी आया था मेरा। हुआ कुछ नही फ़िल्म अवश्य सुपरहिट हुई। फिर 2014 में PK आयी। किसी ने कहा कि फ़िल्म में शंकर जी का उपहास हुआ है पूरा भारत सुलग गया। हिन्दू-मुस्लमान बस चुनाव में ही भड़काए जाते है। मैं तब बजरंग दल का जिला संयोजक था। हाई कमान का आदेश था कि विरोध करो। बिना फ़िल्म देखे और समझे हमने भी देहरादून के सिनेमाघरों पर चढ़ाई कर दी। पोस्टर पोते और फाड़े। ज़बरदस्त पब्लिसिटी मिली। देहरादून में फ़िल्म विरोध की खबर राष्ट्रीय मीडिया ने जमकर चलाई। अखबारों में भी शानदार कवरेज़ मिली। मुझे लगा कि अब तो फ़िल्म रुक जाएगी। पर हुआ उसके उलट। फ़िल्म सुपरहिट हो गयी। और मेरे जिहादी दिमाग के ताले की चाबी भी हाथ लगी। मैंने फ़िल्म देखी तो आंखों में पानी था। मैं कल्पना कर रहा था कि किस प्रकार हम लोग स्वयं शोभा यात्राओं/जागरण में अपने देवी-देवताओं के रूप धरे भांड कलाकारों को फूहड़ गंदे गानों पर नचवाते है। किसी को शिव-पार्वती तो किसी को राधा-कृष्ण बनाते है। और धर्म की अफीम चाटे हुए हिन्दू उन भांड कलाकारों की फूहड़ता पर सीटी बजाते है। ये सब फ़र्ज़ी है। धर्म की ऐसी भौंडी नुमाईश हमारे ही बड़े मंदिर करवाते है जो शोभा यात्राओं के नाम पर शुद्ध फूहड़ता परोसते है। जानते है एक शोभा यात्रा में कितना खर्च होता है?? लगभग 50 लाख।
अब 2018 आया तो संजय लीला भंसाली ने “पद्मावती” बना डाली। मार्केटिंग टीम की रिपोर्ट थी कि यदि धार्मिक मिर्च-मसाला नही लगाया तो फ़िल्म ऐतिहासिक फ्लॉप होगी क्योंकि फ़िल्म में पूर्ण रूप से फिल्मी नौटनकी थी कोई इतिहास नही। मिर्च-मसाला लगाने के लिए नए उभरते संगठन “करनी सेना” को चुना गया। संजय लीला भंसाली ने ‘करनी सेना’ की बढ़िया फंडिंग की और उसे फ़िल्म के विरोध का जिम्मा सौंपा। राजनैतिक नौटनकी के दौर चले और भारत वैसे ही जला जैसा 2012 में “Innocence of Muslims” पर जला था। फार्मूला सुपरहिट था। मासूम बच्चों की बस तक नही बख्शी गयी थी। पूरे देश मे अघोषित अराजकता। अन्तः करनी सेना ने “पद्मावती” फ़िल्म को राजपूत अस्मिता का प्रतीक बता फ़िल्म को ‘taxfree’ करने की बात कही। सब केवल राजनैतिक नौटनकी और संजय लीला भंसाली की स्क्रीप्ट साबित हुआ। फ़िल्म लल्लनटॉप चली।
2018 में एक और फ़िल्म सुपरहिट हो रही जिसका नाम है “केदारनाथ”। आज ही खबर मिली कि फ़िल्म की प्रोड्यूसर को 16 करोड़ के फर्जीवाड़े में गिरफ़्तार किया गया। फ़िल्म की स्क्रिप्ट निहायत ही घटिया है और केवल हिन्दुओं को भड़काने के लिए फ़िल्म का ट्रेलर रिलीज़ किया गया था। बॉलीवुड की अचूक मार्केटिंग स्टंट पुनः सफल हुआ और जो लोग फ़िल्म का नाम तक नही जानते थे वो सिनेमाघरों के बाहर कतार में खड़े है। फ़िल्म की पूरी कहानी किसी भी प्रकार 2013 की केदार त्रासदी से मेल नही खाती अपितु केवल ‘सोहा अली खान’ की लॉन्चिंग के लिए रची गयी एक नौटनकी मात्र है। आज कल मीडिया में “तैमूर” छाया है। जनता ‘तैमूर का डाइपर’ कौनसी कम्पनी का है उसमें व्यस्त है। मीडिया व्यस्त है जब तैमूर हगता है तो उसकी टट्टी करीना धोती है या सैफ? इस दौरान एक कतर्व्यनिष्ट पुलिस अधिकारी सुबोध कुमार सिंह की निर्मम हत्या हो जाती है और योगी उसे ‘दुर्घटना’ बता देता है। ये भारत है यहां की जनता मानसिक रूप से पूर्णतः विकलांग है जिसे थोड़ी सी मार्केटिंग से शिकार बना कोई भी अरबों कमा सकता है। बस हिन्दू-मुस्लमान का तड़का लगाना सीख लो। राजनीति हो या फिल्में सब लल्लनटॉप होंगी।