आज़ादी की लड़ाई में एक नौजवान था, जिसे मरते दम तक अंग्रेजी गोली छू भी नहीं पाई, जिसने मां भारती की आजादी के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान दिया और जो आज भी करोड़ो दिलों पर राज करता है, जिसे भगत सिंह राजेन्द्र लाहिड़ी जैसे उनके क्रांतिकारी साथी पंडिज्जी और आज़ाद के नाम से जानते थे, जी हां, हम चंद्रशेखर आजाद की बात कर रहे हैं।
27 फ़रवरी 1931 का दिन और जगह थी इलाहाबाद का अल्फ्रेड पार्क, चन्द्रशेखर आजाद और सुखदेव राज रणनीति बनाने में मशगूल थे। मौके की तलाश में घात लगाये बैठे एस०एस०पी० नॉट बाबर ने पूरे इलाके को घेर लिया।
दोनों ओर से भयंकर गोलीबारी हुई। उन्होने कसम खाई थी कि जीतेजी अंग्रेजों के हाथ नहीं आएंगे। बंदूक में बची आखिरी गोली से खूद को जंगे आजादी के लिए कुर्बान कर दिया।
भाबरा गाँव में जन्में चन्द्र्शेखर आजाद का पूरा जीवन साहस और वीरता की महागाथा है जिसके निशान आज भी इस आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में दर्ज हैं।
साल 1921 में वे बनारस पहुंचे,उस समय गाँधी जी ने असहयोग आंदोलन छेड़ दिया। अभी 14 साल की उम्र हुई थी की आजादी के जोश से लबरेज चन्द्रशेखर आंदोलन में कूद पड़े उन्हे गिरफ्तार कर लिया गया।
चंद्रशेखर से उनका नाम पूछा गया तो उनका जवाब सुनकर अंग्रेजी हुकमरां भी दंग रह गये। उन्होंने अपना नाम बताया आज़ाद, पिता का नाम स्वतंत्रता और घर ‘जेलखाना’।
उन्हें 15 बेतों की सज़ा मिली और इसके बाद चन्द्रशेखर के साथ आजाद नाम जुड़ गया। साथी उन्हे पण्डित जी के नाम से भी पुकारते थे। 9 अगस्त 1925 में काकोरी काण्ड को अंजाम दिया। 8 सितम्बर 1928 को दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन” की स्थापना की।
चन्द्रशेखर आज़ाद इसके प्रमुख चुने गये। उन्होने आंदोलन को एक नया लक्ष्य दिया। एएसपी सॉंडर्स की हत्या और असेंब्ली बम काण्ड में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
चन्द्रशेखर आजाद लगातार अपने कारनामों से अंग्रेजों के गुरुर को चकनाचूर करते रहे।
कहा जाता है की उनकी अंतिम यात्रा के दौरान इतनी ज्यादा भीड थी कि इलाहाबाद की मुख्य सडकों पर जाम लग गया। देश भक्ति की राह में साहस और हौसले की जो मिसाल रखी वो आज भी नौजवानों के लिए एक नजीर हैं।