के के शर्मा : भारत में सरकार की लड़ाई मतदाता की इच्छा पर निर्भर करती है और यहाँ चुनाव बड़े रोचक होते हैं ।पर अगर सही आंकलन किया जाये तो भारत में चुनाव एक औपचारिकता मात्र होते है और चुनाव से पहले यह लगभग तय होता है कि सरकार किसकी बननी है। लगभग 7दशक से भारतीय वोटर को बेबकूफ बनाने का सिलसिला जारी है पर 7 दशक बाद भी चुनाव में वोटर उतना ही खुश होता है जितना आजादी मिलने के समय हुआ होगा। इस देश में चुनाव लड़े जरूर विकास के नाम पर जाते हैं पर जीते जाते है जाति के नाम पर। हमारी चुनावी राजनीति में जातिवाद, क्षेत्रवाद और मजहब की महत्वपूर्ण भूमिका है I आज तक के चुनावों का साक्षी होने के कारण मैं कह सकता हूँ कि मैनें सामाचार-पत्रों में ऐसा कोई चुनाव पूर्व विश्लेषण नहीं पढ़ा जिसमें विचारधारा या दलीय घोषणा-पत्रों को मतदान को प्रभावित करने का कारण बताया गया हो। प्रत्येक विश्लेषण जातिवाद एवं मजहबी समीकरणों के इर्द-गिर्द घूमता रहा। क्या हमारे लिए यह गंभीर चिंता का विषय नहीं होना चाहिए कि जिस जाति-विहीन समता-मूलक समाज को खड़ा करने का संकल्प लेकर स्वाधीन भारत ने अपनी यात्रा प्रारंभ की थी, वही जाति-समस्या आज हमारे सार्वजनिक जीवन का केंद्र बिंदु बनी हुई है ? ऐसा क्यों हुआ ? जिस जाति संस्था को हम जड़-मूल से मिटा देना चाहते थे वह हमारे इतने वर्षों के प्रयास के बावजूद मिटने की बजाय दिनों-दिन सुदृढ़ क्यों होती जा रही है ? आखिर हमने ऐसा क्यों मान लिया है कि जाति-संस्था मात्र सामाजिक विकृति है? राजनीतिक-विकृति को मानने के पीछे हमारी आँखें बंद कैसे हो गई ? जो दिन-ब-दिन हष्ट-पुष्ट और विकरालता धारण किए जा रही है।जब भारत के राष्ट्रपति का चयन भी जातिवादी मिथक को नहीं तोड़ सका तो बाकी पदों के चयन में जातिगत निर्विवादिता के बारे में तर्क करना महज अपने आप को धोखे मे रखना है। टिकटों के बँटवारे के समय शायद ही कोई पार्टी जातिगत मानसिकता से उपर उठने की जहमत उठाती नजर आती है। योग्यता को दरकिनार कर जाति में योग्यता तलाश करने की प्रवृत्ति भारतीय राजनीति के केंद्र बिंदु में है।इसी हथियार से जाति तुष्टीकरण की नीति को बल मिलता दिखाई देता है। मुस्लिम तुष्टीकरण, दलित तुष्टीकरण, और सवर्ण तुष्टीकरण राजनीति के केंद्र बिंदु हैं। इसी के इर्द-गिर्द भारतीय राजनीति घूमती दिख रही है।
भारतीय राजनीति की मुख्य विशेषता है: “परम्परावादी भारतीय समाज में आधुनिक राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना ।’’ स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् भारतीय राजनीति का आधुनिक स्वरूप विकसित हुआ ।अत: यह सम्भावना व्यक्त की जाने लगी कि देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था स्थापित होने पर भारत से जातिवाद समाप्त हो जाएगा किन्तु ऐसा नहीं हुआ अपितु जातिवाद न केवल समाज में ही वरन् राजनीति में भी प्रवेश कर उग्र रूप धारण करता रहा ।राजनीतिक संस्थाएं भी इससे प्रभावित हुये बिना नहीं रह सकी परिणामस्वरूप जाति का राजनीतिकरण हो गया । भारत की राजनीति में जाति ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । केन्द्र ही नहीं राज्यस्तरीय राजनीति भी जातिवाद से प्रभावित है, जो लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए सबसे खतरनाक बात है क्योंकि राष्ट्रीय एकता एवं विकास मार्ग अवरुद्ध हो रहा है ।जाति का राजनीतिकरण ‘आधुनिकीकरण’ के मार्ग में बाधक सिद्ध हो रहा है क्योंकि जाति को राष्ट्रीय एकता, सामाजिक-साम्प्रदायिक सद्भाव एवं समरसता का निर्माण करने हेतु आधार नहीं बनाया जा सकता ।
विकास और बदलाव के तमाम दावों के बीच देश में चुनावी नतीजे जातीय आंकड़ों पर टिक जाते हैं.हम ऐसे दौर में हैं जब राजनीति को परिवर्तन का सबसे प्रभावी माध्यम मान लिया गया है. सदियों से दमित–शोषित रहे वर्ग अपनी पहचान पाने को आकुल हैं, लोकतांत्रिक निजाम में सब अपने लिए सुरक्षित स्थान चाहते हैं. इसके लिए वे राजनीति को परिवर्तनकारी ‘टूल’ की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं. लेकिन उसका उपयोग कैसे किया जाए?जिन सपनों को राजनीति के माध्यम से साकार करना है, उन्हें लोक–स्वीकृति कैसे दिलाई जाए? इस बारे में किसी के पास कोई स्पष्ट दिशा नहीं है. जहां दृष्टि है, वहां प्रतिबद्धता का अभाव है. नतीजा, नए वर्गों के प्रवेश तथा आशाओं, अपेक्षाओं के बावजूद राजनीति का चेहरा ज्यों का त्यों है. आरक्षण, भ्रष्टाचार, जातिवाद, क्षेत्रीयता जैसे वही पुराने घिसे–पिटे मुद्दे हैं. पिछले कुछ दशकों से देश की राजनीति इन्हीं के इर्द–गिर्द चकराती रहती है. ये इतने लोकलुभावन और सदाबहार हैं कि कोई दल इन्हें छोड़ना नहीं चाहता. यह मान लिया गया है कि वैचारिक राजनीति के दिन लद चुके हैं. ‘समाजवाद’, ‘साम्यवाद’, ‘गांधीवाद’ आदि को लेकर जो बहसें बीसवीं शताब्दी में सुर्खियां बना करती थींᅳउनसे किनारा कर लिया गया है. तात्कालिकता में विश्वास ऐसा बढ़ा है कि दीर्घकालिक हित के अलोकप्रिय मुद्दों को कोई छूना तक नहीं चाहता. लोकप्रियता की राजनीति, अपनी पूरी चमक–दमक,टोनों–टोटकों के साथ लगातार हमें भरमाए रखती है. संविधान पर दिए गए अपने भाषण में डॉ. अंबेडकर ने जिस सामाजिक लोकतंत्र की कामना की थी, उसे पूरी तरह भुला दिया गया है.
भारतीय राजनीति में जातिवाद का दखल कोई नई बात नहीं है और प्रायः सभी दल पूरी प्रतिबद्धता के साथ अपने-अपने वोट बैंक को बढ़ाने के लिए इस सशक्त हथियार का इस्तेमाल करते रहे हैं। लेकिन प्रत्यक्ष तौर पर कोई भी दल ये स्वीकार करने की हिम्मत नहीं कर रहा है कि उसने ऐसा अपना वोट बैंक बढ़ाने की खातिर किया है, बल्कि सभी का ये कहना है कि उन्होंने केवल समाज के सभी समुदायों/वर्गों के उचित प्रतिनिधित्व का ख्याल रखा है, ताकि समाज का कोई भी वर्ग उपेक्षित न रहे।
हर चुनाव के दौरान जनता बदलाव की आस करती है तो वहीं राजनैतिक दल नए तरीके की राजनीति का चोला ओढ़ने की कोशिश करते हैं। वास्तविकता में न जनता को उसकी आशा के अनुरूप बदलाव महसूस हो पाता है न राजनैतिक दल अपने तौर तरीके बदलते नजर आते हैं। राजनीति में हर बार की तर धनबल, बाहुबल और जातिवाद बढ़ता ही नजर आता है। मौजूदा दौर में सबसे ज्यादा जातिवाद राजनीति में हावी नजर आ रहा है। हर दल फायदे के लिए जातिवाद को बढ़ावा देने में लगा हुआ है।प्रत्येक राजनैतिक दल जातिवाद के सहारे चुनावी वैतरणी पार लगाने की कोशिश करता है। फिर चाहे पर राष्ट्रीय दल हो या क्षेत्रीय। जब चुनाव आते हैं तो जातिवाद की घिनौनी राजनीति शुरू हो जाती है। टिकट मांगने वाले अपनी जेब में जातिवाद के आंकड़े लेकर चलते हैं। राजनीतिक दल भी इसका ध्यान रखते हैं। यही कारण है कि अच्छे लोग चुनाव की राजनीति से दूर धकेल दिए जाते हैं और जातीय आंकड़ों पर खरे उतरने वाले लोगों पर राजनैतिक दल विश्वास जताते हैं।
भारत में वर्ण व्यवस्था आदिकाल से है। चार वर्णों में विभाजित समाज का संचालन उसी अनुरूप होता रहा है। आधुनिक समाज ने अपनी प्रगति के साथ खुद को उन्हीं चार वर्णों में बाँट रखा है। अंतर सिर्फ यह है कि इन्हें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र न कह कर क्लास वन, टू, थ्री और क्लास फोर कहा गया है। इन चार क्लासों में सारी प्राचीन और अर्वाचीन जातियों को बाँट लिया गया है। यानी आज भी उसी चार वर्ण में समाज का संचालन हो रहा है। अंतर यह आया है कि उसमें जो ब्राह्मण रहे होंगे, हो सकता है यहाँ उनकी स्थिति क्लास फोर की हो चुकी हो और जो शूद्र रहे होंगे, संभव है वे क्लास वन में हों। ऐसा कई कारणों से हुआ है। उस व्यवस्था के शूद्र को ऊपर उठाने के लिए कुछ ख़ास व्यवस्थाएं बनायीं गयी जिनमें उसी समय के उच्च वर्णों की सोच और चिंतन शामिल था। लेकिन आज देश में जिस तरह से नव वर्ण में निहित जातियों को लेकर राजनीति की जा रही है वह बहुत निराश करने वाली है।देश की व्यवस्था संचालन के लिए सरकार बनाने के लिए होने वाले चुनाव जिस प्रकार से जातिगत आधार पर लड़े और जीते जा रहे हैं उनके कारण देश का सामाजिक ढांचा ही चरमरा गया है। राजनीति में उभरी जातीय सत्ता ने समाज को तहस-नहस कर दिया है।
आज भारत को एक पुरानी कहावत सता रही है कि जो कोई बाघ की सवारी करता है वह उससे उतरने के लिए डरता है कि कहीं बाघ उसे खा न जाए। हमारे राजनेताओं द्वारा लगभग 3 दशक पूर्व जाति का जो भूत पैदा किया गया था की आग सुलग भी रही है और कई बार भभक भी उठती है। किन्तु दुखद तथ्य यह है कि हमारे नेता जातीय ढांचे से बाहर निकलना नहीं चाहते हैं। वे स्पष्ट रुख नहीं अपनाना चाहते हैं क्योंकि इससे उनका वोट बैंक प्रभावित होगा और लोगों में असंतोष बढ़ेगा इसलिए वे खाली शोर मचाते हैं और अपने हितों को बचाने के लिए बलि का बकरा ढूंढते हैं। इससे जातिवादी राजनीति ही लाभान्वित हो रही है। वे यह भूल जाते हैं कि जातीय प्रतिद्वंद्विता के आधार पर राजनीतिक सत्ता के खेल में संलिप्त होना बहुत ही खतरनाक है और यदि ऐसा होता है तो सारा सामाजिक सुधार आंदोलन निरर्थक हो जाएगा। हमारे राजनेता इतिहास से भी सबक लेना नहीं चाहते हैं। इतिहास बताता है कि भारत में अब तक जो भी संघर्ष हुए हैं वे जाति, धर्म, क्षेत्र और जनजाति के आधार पर हुए हैं। ये वर्ग के आधार पर नहीं हुए हैं।
क्षेत्रवाद ने भी जातिवाद को बढाने में अहम भूमिका निभाई , जिसके आधार पर विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियों का प्रादुर्भाव हुआ और विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियों ने जातीय समीकरण के आधार पर जाति विशेष की हितैषी बनकर भारतीय राजनीति मे अपनी पहचान बनाने मे न केवल कामयाब हुई वरन सत्ता भी प्राप्त करके राष्ट्रीय पार्टियों को भी जाति वाद के फार्मूले पर राजनीति करने के लिये आकर्षित किया। राजनीति के तहत देश में विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के कद्दावर नेता तक देश मे जातीय जनगणना को अपना समर्थन दे रहे थे। शायद उन्हे पता नही है कि ऐसा कर वह देश में जातिवाद की अमरबेल बना देना चाहते हैं । देश की राष्ट्रीय एकता को खन्डित करने के लिए अंग्रेजों ने 1871 में जो जातीय जनगणना का विष रूपी अंकुर हमारी राजनैतिक धरा पर बोया था । उसे हमारी राजनैतिक पार्टियां अपने वोट बैंक के लिये राजनैतिक तुष्टीकरण के खाद पानी से सिंचित करती आ रही है। यही कारण है जब एक आम मतदाता चुनाव मे मत डालने निकलता है तो उसके मन मस्तिष्क पर उस प्रत्याशी की छवि और चरित्र से ज्यादा उसकी जाति भारी पड़ जाती है। हमारे संविधान निर्माताओं ने एक विशाल संविधान की रचना की है, जिसमें अनुच्छेद 16 (4) में पिछड़ें ‘वर्गों’ के ‘नागरिकों’ को विशेष सुविधा देने की बात कही है । न कि जाति के आधार पर संविधान भी मजहबी आधार पर आरक्षण की मनाही करता है । इसका मतलब यह है हमारे संविधान के रचनाकारों की भी ऐसी कोई मंशा नही थी। बाबा साहिब भीमराव अम्बेडकर जी ने ‘जाति का समूल नाश’ नामक पुस्तक लिखकर जातिवाद पर अपने विचारधारा को प्रस्तुत किया। समाजवाद के जनक ‘लोहिया’ जी ने भी ‘जाति तोड़ो’ का नारा दिया । इन महापुरुषों के आदर्शों के सहारे राजनीति चमकाने वाले हमारे नेता जातिवाद की राजनीति करके जहाँ एक ओर भारत मे अनेकता में एकता की अन्तर्राष्ट्रीय पहचान को क्षति पहुँचा रहे हैं वहीँ दूसरी ओर इन महान विचारकों के महान आर्दशों का भी माखौल उड़ा रहे हैं। हम इक्कीसवीं सदी के भारत में रह रहे है। पहले की तुलना मे समाजिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो जाति का महत्व थोड़ा कम अवश्य हुआ है। परन्तु राजनीति के धरातल में इसकी सत्यता आंकी जाय तो यह देश का हर नागरिक स्वीकार करेगा, कि जातिवाद का मुद्दा सभी राजनैतिक पार्टियां सुलगाये रखना चाहती हैं क्यों कि इसे समय –समय पर थोड़ी सी राजनैतिक हवा देकर आग लगायी जा सकती है और अपना राज नैतिक उल्लू साधा जा सकता है। आज हमारा भारत विकासशील देशों मे सर्वोच्चता के स्थान पर पहुंच कर विकसित राष्ट्र बनने की देहलीज पर खड़ा है। ऐसे में भारतीय राजिनीति में इस प्रकार जातिवाद की जो अवधारणा अपनी जड़ें जमा रही है उसके दूरगामी परिणाम स्वरूप कहीं ऐसा न हो, कि भारतीय समाज जातीय संघर्ष में जूझने लगे और भारत की एकता व अखन्डता के समक्ष सकंट उत्पन्न हो जाय्।
भिन्न भिन्न जातियों की संस्कृति एवं उनके आचार-विचार भिन्न होते हैं | बावजूद इसके, सबों के बीच मानवीय लड़ी होती है | यही तो अनेकता में एकता है जिसके लिये हर जगह भारत की प्रशंसा होती है | इसको तोड़ने के लिये विदेशी भी इच्छा रखते हैं लेकिन सफल नहीं हो पाये आजतक | जिस एकता को विदेशियों ने भी नहीं तोड़ पाया उसे अब अपने देश के नेतागण भंग करने में लगे हैं | सत्ता ग्रहण करने के लिए क्षेत्रीय एवं राष्ट्रीय राजनीतिक दल सब अपनी जोड़ आजमाइस कर रहे हैं | वे कोई भी कदम उठाने से बाज नहीं आयेंगे – लोगों को भटका कर, समाज को तोड़कर, धर्म की आड़ में अराजकता फैला कर देश को अस्थिर करने की साजिश भी कर सकते हैं |
उनकी इस मंशा को जनता को समझना होगा | इसका प्रतिकार करना होगा अन्यथा जातियों का बँटवारा करते-करते देश के बँटवारे का खतरा उत्पन्न हो जायेगा | जरुरत है क्षणिक लाभ को त्याग कर दूरगामी लाभ के लिये सावधानी पूर्वक चुनाव में अपना वोट डालना ।