एक जागरूक नागरिक सदा अपने आसपास घटित हो रहे घटनाक्रम, प्रश्नों, मुद्दों के प्रति संवेदनशील रहता है। हम इन मुद्दों और प्रश्नों से दो-चार होते हुए अपना एक पक्ष बना लेते हैं। जो हमारे वैचारिक धरातल को सुविधाजनक लगता है। लेकिन भारत जैसे बहुसांस्कृतिक, बहुभाषी, बहुधर्मी समाज के मुद्दे भी बहुआयामी होते हैं। कुछ व्यक्ति इन मुद्दों से बचकर निकलने की कोशिश करते हैं ताकि असुविधाजनक सच्चाई तथा अपनी वैचारिक जमीन के बीच एक सुरक्षित दूरी बनी रहे। लेकिन इस पुस्तक के विभिन्न लेखों में सुरक्षित दूरी की परवाह न करते हुए उन सभी मुद्दों को टटोलने का प्रयास किया गया है जिनसे देश, समाज और राजनीति को वर्तमान दौर में दो-चार होना पड़ रहा है।
सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ द्वारा तीन तलाक के मसले पर इस कुप्रथा के खिलाफ निर्णय को लेकर समान नागरिक संहिता और मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को लेकर देशभर में एक नई बहस शुरू हो गई। आॅल इंडिया मुस्लिम पसर्नल लाॅ बोर्ड व दूसरे मुस्लिम धार्मिक संगठन भी इस मुद्दे पर बंटे हुए हैं। हमें यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि किसी भी नागरिक को किसी भी धर्म का अनुयायी होने के कारण उसके नागरिक अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता। हमारे देश का संविधान एक है तो समान नागरिक संहिता की दिशा में एक-एक कदम देश की अखण्डता को मजबूती देने वाला होगा। वहीं, दूसरी ओर जब मुस्लिम समाज से मदरसों के आधुनिकीकरण की बात की जाती है तो इसे इस्लाम में हस्तक्षेप का नाम देकर माहौल बनाया जाता है और दुहाई दी जाती है कि ‘इस्लाम खतरे में है’। समझ नहीं आता कि मुस्लिम युवा पीढ़ियों को इस्लाम की शिक्षा के साथ-साथ आधुनिक शिक्षा से क्यों वंचित किया जा रहा है? ये एक बुनियादी प्रश्न है।
कश्मीर की समस्या की मूल जड़ भी कश्मीर में लागू दोहरे संविधान में ही है। इंडोनेशिया के बाद भारत में सबसे अधिक मुस्लिम हैं। धर्म के नाम पर देश का बंटवारा पहले ही हो चुका है। जिसकी एक बड़ी कीमत देश की जनता ने चुकाई है। विभाजन के समय पाकिस्तान से पलायन करके आए शरणार्थियों की आपबीती सुनते हैं तो कलेजा मुंह को आ जाता है। कुछ-कुछ यही हाल कश्मीरी पंड़ितों का भी हुआ जिन्हें रातों-रात अपनी जड़े छोड़कर दिल्ली, जम्मू और देश के दूसरे भागों में नरकीय जीवन व्यतीत करना पड़ रहा है। कश्मीर में अलगाववाद अब जिहादी रूप लेता जा रहा है। जिसे किसी भी कीमत पर सफल नहीं होने देना चाहिए। सरकार इस मुद्दे पर पाकिस्तान को भी अलग-थलग करने में सफल होती नजर आ रही है। सरकार को आंतकवाद पर नकेल कसने के साथ-साथ बातचीत के रास्ते भी खुले रखने होंगे।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार के भी सफलतापूर्वक तीन वर्ष पूरे हो चुके हैं। किसी भी सरकार के कार्यों का मूल्यांकन करने के लिए तीन वर्ष का कार्यकाल कम नहीं होता। इस दौरान काफी कुछ बदलाव शासन में दिखाई देता है। पूर्व की सरकारों से एक सकारात्मक बदलाव तो यह दिखाई देता है कि इस दौरान भ्रष्टाचार का कोई गम्भीर आरोप सरकार के माथे पर नहीं है। वित्तीय अनुशासन लागू करने के लिए नोटबंदी जैसा कठोर कदम प्रधानमंत्री की मजबूत इच्छाशक्ति को दर्शाता है। विमुद्रीकरण से संबंधित भारतीय रिज़र्व बैंक के आंकड़े आने के बाद नोटबंदी की सफलता पर बहस हो सकती है लेकिन नोटबंदी को असफल नहीं कहा जा सकता क्योंकि आयकर विभाग को इस दौरान वित्तीय लेन-देन संबंधी जो आंकड़े मिले हैं वे भविष्य में राजस्व बढ़ाने में सहायक होंगे।
राजनीतिक दलों द्वारा चन्दे को लेकर भी पारदर्शिता के मामले में विभिन्न सामाजिक संगठनों का दबाव रहता है। इस दिशा में कुछ कदम उठाए गए हैं लेकिन यह भी सच्चाई है कि आज भी सत्तारूढ़ दल व मुख्य विपक्षी दल को मिले चन्दे का लगभग अस्सी प्रतिशत स्रोत अज्ञात है। इस दिशा में नीतियों में और अधिक पारदर्शिता की आवश्यकता है इससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया में आम नागरिक का विश्वास बढ़ेगा। इसी से जुड़ा मुद्दा है ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’। इस मुद्दे पर यह बहस हो सकती है क्योंकि इतने विशाल देश में चुनावों पर असीमित संसाधन खर्च होते हंै। इससे बार-बार आदर्श आचार संहिता के नाम पर विकास कार्यों में भी रूकावट आती है। इस दिशा में कदम उठाते समय लोकतांत्रिक मूल्यों को सर्वोपरि रखने की आवश्यकता है न कि अपने राजनीतिक हित की।
बात चाहे राम मंदिर की हो या गोहत्या संबंधी कानून की। ये दोनों मुद्दे बहुसंख्यक हिन्दू आबादी से जुड़े मुद्दे हंै। भारतीय जनता पार्टी की सरकार के सत्ता में आने पर यह मुद्दे विमर्श के केन्द्र में आ जाते हंै। इस दौरान एक सकारात्मक कदम यह उठा है कि सर्वोच्च न्यायालय ने दोनों पक्षों को बातचीत करने के लिए प्रेरित किया है। कुछ मुस्लिम धर्मगुरु भी राम मंदिर के पक्ष में अपने ब्यान दे चुके हैं। गोहत्या बहुसंख्यक हिन्दुओं की भावनाओं के खिलाफ है लेकिन गोरक्षा के नाम पर गुंडागर्दी को भी जायज नहीं ठहराया जा सकता।
वर्तमान में देश के विभिन्न हिस्सों में आरक्षण का जिन्न बार-बार अपनी बोतल से बाहर आता रहता है। हरियाणा में जाट, राजस्थान में गुर्जर, गुजरात में पाटीदार, महाराष्ट्र में मराठे आंदोलनरत हैं। ये वे जातियां है जो कृषक समुदाय में आती हैं लेकिन वर्तमान में खेती किसानी घाटे का सौदा हो चुकी हंै। भूमि की जोत लगातार घट रही है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डाॅ. मोहनराव भागवत ने आरक्षण पर समीक्षा वाला बयान क्या दिया विपक्षी दलों के कान खड़े हो गए और एक सुर में कहने लगे कि संघ आरक्षण को समाप्त करना चाहता है। अगर विपक्षी दलों को आरक्षण की इतनी ही चिन्ता है तो वो सरकार से मांग क्यों नहीं करती कि जाति आधारित आरक्षण को समाप्त करके आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाए?
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय गाहे-बगाहे सुर्खियों में आ ही जाता है। वाम राजनीति की पौध तैयार करने वाले इस विश्वविद्यालय को वामपंथियों का आखिरी किला भी कहा जा सकता है। अफजल गुरु के समर्थन में देश विरोधी नारे भी सुनने को मिल जाते हैं। फिर से यह बहस शुरु हो गई है कि विश्वविद्यालयों को राजनीति का अखाड़ा बनाना कहां तक जायज है? शैक्षणिक माहौल पर इसका क्या असर पड़ता है?
चूंकि मैं देवभूमि उतराखण्ड से हूं। वहां से रोजगार की तलाश में पलायन एक विकराल समस्या है। पहाड़ी संस्कृति पर भी इसका विपरित प्रभाव पड़ता है। शेखर जोशी की एक कहानी पढ़ी थी “दाज्यू”। पलायन के बाद बदलते सामाजिक यथार्थ् को यह कहानी रेखांकित करती है। कुछ इसी प्रकार का पलायन आधुनिक निजी विद्यालयों में पढ़ने वाली नई पीढ़ी हिन्दी से भी कर रही है। हिन्दी भाषा वर्तमान में बाजार की भाषा तो बन चुकी है लेकिन हर आम और खास की भाषा, न्यायालय की भाषा, प्रशासन की भाषा बनने में इसे अभी और रास्ता तय करना होगा।
मैं इन सभी प्रश्नों के प्रति संवेदनशील हूं, उनसे जुझता हूं और सबसे बड़ी बात यह है कि कोई मेरे इन कथनों से असहमत हो सकता है इस डर से मैं समसामयिक मुद्दों से पलायन नहीं कर सकता। भारतीय राजनीति में समय-समय पर उठने वाले समसामयिक मुद्दों पर आधारित लेखों का संकलन करते समय कहीं-कहीं सम्पादन भी हुआ है जिसका मूल उद्देश्य लेख के मूल चरित्र को बदले बिना उसे और भी प्रासंगिक बनाना है और इस पुस्तक में ऐसे लेख हैं जो कहीं न कहीं देशवासियों के मन-मस्तिष्क में एक प्रश्न पैदा करते हैं कि आखिर इन मुद्दों का हल कब निकलेगा? इस कार्य में मेरी माताजी, यशोदा देवी, मेरे पिताजी सतेन्द्र सिंह रावत, प्रो. देवराज सिंह, डाॅ. नृत्य गोपाल शर्मा, दुलीचन्द रमन, अनिल कुमार चैधरी और अनुज नौटियाल मुख्यरूप से धन्यवाद के पात्र हैं।
आशीष रावत