जगदीश भाटी -रामायण और महाभारत की कुछ और मनघडंत कल्पनाएँ जो कोई अस्तित्व तो नहीं रखती पर सत्य सनातन वैदिक धर्म की पवित्र संस्कृति को अपमानित जरूर करवाती हैं, देखें –
रामायण:
१. सीता का निर्वासन (सम्पूर्ण उत्तररामायण ही बाद की कपोल-कल्पना है, जिसका कोई सम्बन्ध वाल्मीकि रामायण से नहीं है।)
२. राम द्वारा शूद्र शम्बूक का वध (उत्तर रामायण से लिया गया एक झूठा प्रसंग है।)
३. हनुमान,बालि,सुग्रीव आदि को बन्दर या वानर मानना। (वे सभी मनुष्य ही थे, वानर की तरह फुर्तीले, श्री राम भक्त , हनुमान श्रेष्ठ विद्वान्, अति बुद्धिमान और आकर्षक व्यक्तित्व वाले है।)
४. राम, लक्ष्मण, सीता को शराबी और मांस- भोजी मानना। (जिसका कोई सन्दर्भ मूल रामायण में कहीं नहीं मिलता।)
महाभारत:
१. पांचाल नरेश की कन्या होने से – द्रौपदी पांचाली थी, पांच पतियों की पत्नी होने से नहीं। (यदि कोई इस से उलटा कहे तो वह संस्कृत और इतिहास दोनों से ही अनभिज्ञ है।)
२. श्री कृष्ण की सोलह हजार से भी अधिक रानियाँ मानना। (यह भी भारत वर्ष के अंध काल की एक और मनघडंत कल्पना है।)
3. गुरु द्रोणाचार्य पर एकलव्य का अंगूठा काटना मनघडंत कहानी है । जिसे महाभारत में घालमेल किया है । महर्षि वाल्मीकि की तरह गुरु द्रोणाचार्य को बदनाम किया जा रहा है ।
सैकड़ों शताब्दियों से वेदों के बाद सबसे प्रमुख ग्रन्थ होने के कारण इन ग्रंथों में घालमेल किया गया क्योंकि इन में बिगाड़ करके हिन्दुओं को अपने धर्म से डिगाया जा सकता है। हिन्दुओं को धर्मच्युत करने के लिए ही मानव संविधान के प्रथम ग्रन्थ मनुस्मृति में भी घालमेल किया गया।
सीता के अग्नि परीक्षण की यदि बात की जाये तो मैं इस में कई कमियां देखता हूँ। रामायण काल स्त्रियों को उनके सम्पूर्ण गौरव और अधिकार प्रदान करने वाला काल रहा है।
संपूर्ण रामायण का अवलोकन करने के बाद इस में कोई संदेह नहीं रहता कि राम एक अत्युत्तम आदर्श थे। राम धर्म के मूर्तिमंत स्वरुप हैं। इसलिए ऐसे प्रसंग राम के चरित्र से कोई मेल नहीं रखते और यह प्रसंग रामायण की स्वाभाविक कथा और उसमें वर्णित अन्य सिद्धांतों के विपरीत भी है।
किसी स्त्री के सतीत्व के परीक्षण की ऐसी अवधारणा वेदों और मनुस्मृति के बिलकुल ख़िलाफ़ है।
यह तथ्य है कि रामायण एक ऐतिहासिक ग्रन्थ है, अल्लादीन के जादुई चिराग की कहानी नहीं है। और न ही केवल हिन्दू संप्रदाय की परम्पराओं से ही जुडा हुआ कोई ग्रन्थ है। राम किसी धर्म विशेष के ही नहीं परंतु सम्पूर्ण मानव जाति के आदर्श पुरुष हैं।
आइये सच्चाई जानें:
वेदों की तरह, रामायण कोई ईश्वरीय ग्रन्थ नहीं है, बल्कि एक महाकाव्य है। वेद तो अपनी अनूठी रक्षण विधियों से जन्मकाल से ही सम्पूर्ण सुरक्षित हैं, उन में लेशमात्र भी परिवर्तन संभव नहीं है। लेकिन, अन्य ग्रंथों में रक्षण की ऐसी कोई कारगर प्रणाली उपलब्ध नहीं है। यही कारण है कि बाद के काल में रामायण और महाभारत, बड़ी मात्रा में मिलावट के शिकार हुए। मनुस्मृति का भी यही हाल है।
छपाई के अविष्कार से पहले, युगों तक ग्रन्थ हाथों से लिखे जाते रहे और उन्हें कंठस्थ करके याद रखा गया। अतः उन में मिलावट करना बहुत ही आसान था। इसलिए इन ग्रंथों के विशुद्ध संस्करण मिलना कठिन है। अब सभी प्रक्षेपण इतनी आसानी से तो
पकड़ में नहीं आते, परन्तु विश्लेषण करने पर जो स्पष्टत*:* मिलावट है उसे पहचाना जा सकता है। जैसे – भाषा में बदल हो, लिखने की शैली अलग हो, कथा के प्रवाह से मेल न खाए, असंगत हो, सन्दर्भ के विरुद्ध हो, पूर्वापर सम्बन्ध न हो, ऐसा लगे कि अचानक बीच में कोई ‘चमत्कार’ हुआ है और कथा फिर से अपनी गति से चलने लगे, ग्रन्थ के मूल विषय से विपरीत हो, इत्यादी।
हम पहले देख चुके हैं कि मनुस्मृति में मिलावट किये गए श्लोकों की संख्या पचास प्रतिशत से भी अधिक है।
यदि रामायण में भी सीता की अग्निपरीक्षा वाले श्लोकों का विश्लेषण किया जाये तो कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं।
युद्ध कांड के सर्ग तक कथा का प्रवाह सामान्य है। यहाँ हनुमान सीता को राम की विजय का समाचार देने जाते हैं।
सर्ग ११४ श्लोक २७ में राम कहते हैं कि स्त्रियों का सम्मान उन्हें राष्ट्र से मिलने वाले आदर और उनके अपने सदाचार से होता है। सम्मान की रक्षा में उन पर किसी भी तरह का कोई बंधन या घर, कपड़ों या चारदिवारी का प्रतिबन्ध लगाना मूर्खता है। यह श्लोक स्त्रियों के प्रति हिन्दू मत की अवधारणा को दर्शाता है। अंतिम श्लोक को छोड़कर इस सर्ग ११४ के अन्य श्लोक प्रक्षिप्त दिखाई देते हैं – जो कथा को किंचित भी आगे नहीं बढ़ाते।
सर्ग ११५ के प्रथम छः श्लोकों में राम शत्रु संहार का भावपूर्ण वर्णन करते हैं। इससे अगले चार श्लोक हनुमान, सुग्रीव और विभीषण के अथक प्रयासों को बताने वाले हैं। श्लोक ११ और १२ स्पष्टत*:* मिलावट ही हैं और वे कथानक को भटकाने के लिए डाले गए लगते हैं। सर्ग ११५ के श्लोक १३ और १४ सीता को वापस पाकर राम की संतुष्टि का बखान करने वाले हैं।
लेकिन इस स्थिति से परिवर्तित होकर १५ वां श्लोक अचानक राम से कहलवाता है कि उन्होंने यह सब सीता को प्राप्त करने के लिए नहीं किया। सम्पूर्ण रामायण में राम सीता के वियोग से अत्यंत व्याकुल हैं, यहाँ तक कि वे दुःख में आंसू बहाते भी नजर आते हैं। लेकिन, इस श्लोक से कथा पूरी तरह दूसरी दिशा में परिवर्तित हो जाती है। और यह पहले के सन्दर्भों से विपरीत भी है। यदि राम सीता की अग्निपरीक्षा ही लेना चाहते थे तो वे सीधे तौर पर कह सकते थे, उन्हें इस तरह झूठ बोलने की कोई आवश्यकता नहीं थी। सम्पूर्ण रामायण में राम एक सत्यवादी और सत्यशोधक के रूप में चित्रित हैं पर यह श्लोक उनके स्वभाव और उनके चरित्र की इस विशेषता को दूषित करने वाला है, जो साफ़ तौर पर मिलावट किया गया है।
सर्ग ११५ के इस से आगे के सभी श्लोक स्पष्ट रूप से मिलावट ही लगते हैं, उदाहरण *:* श्लोक २२ और २३ – जिसमें राम सीता से भरत, लक्ष्मण, सुग्रीव, शत्रुघ्न या विभीषण के पास रहने के लिए कहते हैं।
सर्ग ११६ भी पूरी तरह से ऐसे जाली श्लोकों से भरा हुआ है – जिन में सीता राम के लगाये हुए आरोपों का उत्तर देती है, लक्ष्मण से अपने लिए चिता बनवाती है और अग्नि में प्रवेश करती है। तब अचानक ही सभी ऋषि, गन्धर्व और देवता प्रकट हो जाते हैं – जो अभी तक कहीं नहीं थे।
सर्ग ११७ में सभी प्रमुख देवता राम से वार्ता करने पहुँचते हैं, यही एक मात्र स्थल है रामायण में जहाँ अचानक देवत्व कथा पर हावी हो जाता है, यहीं पहली बार राम को ‘परब्रह्म’ कहा गया है।यदि राम ही परब्रह्म थे तो अन्य छोटे देवताओं को उन्हें समझाने की क्या आवश्यकता थी? और राम ने उन सब को बुलाया भी क्यों? इस का कोई उत्तर यहाँ नहीं मिलता। इस सर्ग के श्लोक ३२ तक राम के दैवीय होने की प्रशंसा की गयी है।
सर्ग ११८ में अग्निदेव सीता को गोद में लिए बाहर आते हैं और उन्हें राम को सौंपते हैं। तब राम यह कहते हैं कि वे यह सारा प्रपंच – सब को सीता की पवित्रता का विश्वास दिलाने के लिए कर रहे थे। और अंत में श्लोक २२ कहता है कि ” ऐसा कह कर राम सीता से अत्यंत प्रसन्नता से मिले।”
यदि सर्ग ११५ के श्लोक १५ से लेकर सर्ग ११८ के श्लोक २१ तक के बीच वाले सभी श्लोक हटा दिए जाएँ तो कथा सुगम हो जाती है और अपने सामान्य प्रवाह से चलती है। और यह बीच वाला जो प्रपंच है, जिस में यह सब वार्ता आती है उसकी कोई प्रासंगिकता रहती नहीं।
सर्ग ११५ का श्लोक १४, याद करिये जिस में राम ने अपने महान प्रयासों से सीता को पुनः प्राप्त करने का वर्णन अत्यंत भाव प्रवण होकर समझाया था। और उसके बाद सर्ग ११८ के इस श्लोक २२ को रखिये जो कहता है कि ” ऐसा
कह कर राम सीता से अत्यंत प्रसन्नता से मिले।” इन दोनों टूटी कड़ियों को जोड़ देने से और बीच वाली नाटकीय घटनाओं को हटा देने से कथा में निरंतरता आती है और असली कथा उभरती है।
अगले सर्ग ११९ और १२० भी पूरे मिलावटी हैं। इन में देवताओं से राम की और भी प्रशंसा करवाई गयी है, फिर महाराज दशरथ भी इन्द्र देव के साथ आ गए हैं, उनके बीच लम्बी वार्ता का वर्णन है। इंद्र देव अपने चमत्कार से मरे हुए सैनिकों को पुनः जीवित कर देते हैं, इत्यादि। सर्ग १२१ कहता है कि ” राम उस रात शांतिपूर्वक सोये और प्रातः विभीषण से उनकी बात हुई।” छुट-पुट मिलावटों के साथ कथा अपनी स्वाभाविक गति से आगे बढ़ते हुए सीता के साथ राम की अयोध्या वापसी का वर्णन करती है। इस के बाद अंत तक कोई चमत्कारी प्रसंग नहीं आता।
यदि कोई इस प्रसंग को सिर्फ ऊपरी तौर पर ही देख ले तब भी पता लग जायेगा कि यह बाद में की गयी मिलावट है। जिस ने राम को तो कलंकित किया ही है, साथ ही भारत वर्ष में जहर घोलने का काम भी किया है – कई तरह के संगठन, आर्य विरोधी
मानसिकता, स्त्री विरोधी मानसिकता, धर्म परिवर्तन इत्यादि कई जटिल समस्याओं को जन्म दिया है। जबकि इन सब का कोई आधार नहीं है, यह सब संदिग्ध है।
निम्नलिखित सभी श्लोक स्पष्टत*:* मिलावट हैं –
सर्ग ११४ *:* श्लोक २८ से आगे वाले सभी, सिर्फ अंतिम श्लोक को छोड़कर।
सर्ग ११५ *:* श्लोक १५ से आगे वाले सभी।
सर्ग ११६ और सर्ग ११७ सम्पूर्ण।
सर्ग ११८ *:* अंतिम श्लोक को छोड़कर सभी।
सर्ग ११९ और सर्ग १२० सम्पूर्ण।
अगर इन्हें हटा दें तो कहानी तार्किकता से, सरलता से और अबाध गति से आगे बढती है।
भगवान् काल (यमराज) ने राज्यभार सँभालते समय त्रिदेवों से दो अस्वासन मांगे थे | पहला की मृत्यभुवन पर विधि के विधान में कोई भी हेरफेर बिना काल की अनुमति के बिना न हो | दूसरा भगवान् भी मृत्युभुवन का सम्मान करे अर्थात जीव को काल की कैद से बिना चमत्कार किये अवतार लेकर मुक्त करना और जिस रूप में जन्म ले मर्यादा का पालन करना | ये सारे कर्म, चमत्कार वेद और मर्यादा के विरुद्ध है | अतः २८०० बर्ष पूर्व जो मिलावट किया गया है | यह मनुस्मृति , रामायण और महाभारत के साथ – साथ कुछ और धार्मिक ग्रंथो का मिलावटी तथ्य है |
सत्य को पहचानने की सबसे प्रमुख कसौटी यह है कि वह वेदों के अनुकूल और तर्क संगत हो। अन्यथा उसे मिलावट ही माना जाएगा। यदि छोटी -छोटी बातें तर्क से विरुद्ध हो तो उस में न उलझ कर, मूल विषय का ही अनुसरण करें।
वेद ही एकमात्र सत्य धर्म हैं, जिनकी सुदृढ़ नींव पर हमारी संस्कृति आरूढ़ है। समग्र विश्व के लिए राम एक आदर्श हैं और हमें उनके वंशज होने का गौरव मिला है। चाहे हम राम को भगवान मानें या धर्माचारी महापुरुष यह हमारा निजी विचार है। परन्तु, राम चरित्र अत्यंत पवित्र, उज्जवल और खरा सोना है। और हम अपने आदर्शों के सम्मान में सदैव प्रतिबद्ध हैं।