डॉ जितेंद्र सिंह : किसी को गुरू कह देने भर से गुरू-शिष्य परंपरा का निर्वाह नही होता। गुरू-शिष्य संबंधों में गुरू के न चाहने पर भी अगर शिष्य में शिष्यत्व का भाव है तो उसे गुरू के सानिध्य का सम्पूर्ण लाभ मिलेगा ही मिलेगा भले ही प्रत्यक्ष संवाद हो या अप्रत्यक्ष।
वस्तुतः गुरू ही योग्य शिष्य का चुनाव करते हैं, और यही परंपरा भी रही है। पर किंचित अपवाद भी दिखाई देते हैं। कभी-कभी किसी से कुछ जानने या सीखने के लिए भी हमको गुरू शिष्य के संबंधों में बंधना पड़ता है। इस संबंध में बंधने के दो रास्ते हैं
1. योग्य व्यक्ति को गुरू बना लेना
2. योग्य व्यक्ति का शिष्य बन जाना
पहले रास्ते के अनुसार कोई व्यक्ति किसी योग्य व्यक्तित्व, जिससे सीखने की अभिलाषा है, को अपना गुरू बना लेता है। इस तरह से गुरू बना लेने की जो धारणा है यही त्रुटिपूर्ण हैं।
गुरू बना लेने में शिष्य में अहं का भाव जागृत होना स्वाभाविक है। शिष्य को इस बात का अभिमान रहता है कि उसने गुरू को गुरूतुल्य बनाया है। उसके चुनाव के कारण ही गुरू है अन्यथा गुरू का अस्तित्व ही न होता। यह जो बना देने की भावना है, जो अभिमान है, अहं का भाव है वह इस संबंध को क्षीण कर देता है। ज्ञान के प्रवाह की नैसर्गिक दिशा और गति को बाधित करता है। गुरू भले ही पूर्ण मनोयोग से ज्ञान को विकीर्ण करने का प्रयास करे परंतु शिष्य के द्वारा उस ज्ञान को अंगीकार करने में यह अहं बाधा उत्पन्न करता है।
ऐसा शिष्य गुरू से ज्ञान तो ले ही नही पाता अपितु उसमे गुरू से श्रेष्ठ होने की अभिलाषा हमेशा बनी रहती है। वह गुरू की प्रत्येक सीख को अपने तराजू में तौलने का प्रयत्न करता है। ऐसा पूर्वाग्रह से भरा व्यक्ति कभी भी शिष्य भाव से कुछ नही सीख सकता। निश्चित ही जीवन के किसी न किसी मोड़ पर, ऐसे व्यक्ति द्वारा अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के प्रयास में गुरू का अपमान किया ही जायेगा, क्योंकि शिष्यत्व का भाव आया ही नही है। शिष्य में यह भाव भी बना रहता है कि मैंने गुरू बनाया है तो मैं मिटा भी सकता हूँ।
प्रवाह ऊपर से नीचे की ओर होता है। जब शिष्य खुद ऊपर खड़ा होना चाहेगा तो गुरू के ज्ञान को कैसे स्वीकार कर पायेगा … ? इसके लिए उसे गुरू के स्तर के नीचे खड़ा होना पड़ेगा, मतलब अपनी श्रेष्ठता का अहं छोड़ना पड़ेगा। वर्तमान में यह बनाने और मिटाने की भावना ही ज्यादा दृष्टिगोचर होती है जिससे शिष्यत्व का भाव दिखाई ही नही देता है।
ऐसे में ज्ञान की गंगा बहेगी कैसे … ?
तो फिर समाधान क्या हो… ?
जैसा कि ऊपर कहा है कि गुरू ही योग्य शिष्य का चुनाव करते हैं, और यही परंपरा भी रही है जैसे द्रोणाचार्य द्वारा अर्जुन या चाणक्य द्वारा चंद्रगुप्त को शिष्य बनाना। किंचित अपवाद भी दिखाई देते हैं जब गुरू ने शिष्य का चुनाव नही किया है परंतु ये गुरू-शिष्य संबंधों के अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत कर गए।
महाभारत से ही दो उदाहरण प्रस्तुत है-
1. एकलव्य का गुरू द्रोणाचार्य का शिष्य बन जाना। यहां शिष्य का चुनाव गुरू द्रोणाचार्य द्वारा नही किया गया था और न ही एकलव्य ने द्रोणाचार्य को गुरू बनाया था, अपितु एकलव्य ने खुद को शिष्य के रूप में प्रस्तुत किया था। उसका समर्पण और श्रद्धा का भाव था जिसने एकलव्य को शिक्षित करने में महती भूमिका निभाई।
2. महाभारत के युद्ध के पूर्व अर्जुन ने श्रीकृष्ण को गुरू नही माना अपितु अर्जुन स्वयं श्रीकृष्ण के शिष्य बने। इसमें वृहद रूप से कोई फर्क नही दिखाई देगा परंतु सूक्ष्मरूप में बहुत अंतर दिखता है। गुरू मानने से ग्रहण करने का भाव नही आयेगा परंतु शिष्य बन कर ज्ञान की याचना करने में स्वतः ही ग्रहण करने की मनोस्थितियों बन जाती है। अर्जुन की इसी शिष्यवृत्ति का प्रभाव था कि श्रीकृष्ण को गीता-ज्ञान से अर्जुन का साक्षात्कार करवाना पड़ा।
सीखने के लिये गुरू बनाने की बजाय खुद शिष्य बनना चाहिए। ग्रहण करने की भावना होगी तो गुरू न चाहते हुए भी ज्ञान के प्रकाश से आपको भर देगा।