रुद्रदत्त मिश्रा : “यदनंतरं तद् बाह्यं, यद् बाह्यं तदनंतरं”।
अथर्ववेद- 2-30-6।
अर्थ- तुम जो बाहर से हो,वैसा ही अंदर से बन जाओ ,
और तुम जो अंदर से हो वैसा ही बाहर भी बन जाओ।
अर्थात सरल बनना चाहिए
क्योंकि सरलता ईश्वर प्राप्ति की प्रथम सीढ़ी है नहीं तो हम –
बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा – हम मोर जैसे मीठी वाणी बोलते हैं और मेरी स्वभाव है- खाहिं महा अहि घोर कठोरा – भैया ! हम सबसे पहले अपनी संगति और महत्वपूर्ण भोजन सुधारें।
क्योंकि- अन्नमयं हि सौम्य मनः ।
हम जैसा खाएंगे वैसा ही स्वभाव हो सकता है।
तामसी भोजन,तामसी विचार !
सारी बुराइयों का जड़ तो मेरा मन है – मन एव मनुष्याणाम् कारण हि सुख दुःखयोः।
और जब ये तन तामसी हुआ तब – भजन न होहिं …क्यों?…तामस देहा।रावण बनने में देर नहीं लगती।
वेद से भटके तो रावण…?
वेद के इस मार्ग पर चलने वाले राम बन जाते हैं।
जरा मेरे राम जी को देखा जाय…-
श्रीराम जी युवा किशोर हैं और सीता जी की सुंदरता अलौकिक है और…मन सिय रूप लोभान..
मन !लोभी हुआ!! उनको पाने की कामना जागृत हुई किन्तु विजय तो उनके विवेक युक्त धर्म की हुई..रघुवंसिन्ह कर सहज सुभाउ…मन कुपंथ पग धरहिं न काऊ…।
उदाहरण स्वरूप देखिए- धनुष यज्ञ में अधिकांश राजा व्याकुल हैं किन्तु श्रीराम जी शांत और धनुष कब तोड़े ? जब गुरु कहे – मेटहु तात! जनक परितापा!! ।।
वे फुलवारी के सीता दर्शन प्रसंग गुरुदेव से साफ साफ कह दिए- राम कहा सब ! कौशिक पाहीं। क्यों?
क्योंकि श्रीराम जी- सरल सुभाउ- वाणी सरल,करनी भी सरल है। और उनको – छूअत छल ! नाहीं$$$…।
मेरे राम जी छल कपट छू भी नहीं सकता। छल श्रीराम जी को देखकर स्पर्श करने से इनकार कर देता है।
श्रीराम मार्ग यानी वेद मार्ग…निर्मल मन जन ! सो मोहिं पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।