अमित घई, जसविंदर सिंह : राजनीतिक गलियारों समाजिक समरसता की जूठी बातें आम सुनने को मिलती हैं और राजनेता हमे जाती के नाम पर इस्तेमाल भी अच्छे से करते हैं और आगे करते भी रहेंगे। ये जाती व्यवस्था का बीज राजनेताओं ने तो बोया नही परन्तु वो इसको वातावरण अब जरुर दे रहें ह ताकि अच्छे से ये बीज जो अब ब्रह्मवाद रूपी बीज जो अब वटवृक्ष बन चुका है ।अब इसकी जड़ें इतनी गहरी हो गयी हैं अब इसको सींचने की भी आवश्यकता नही है।ये व्यवस्था आखिर क्यों अपने पैर पसार रही है ताकि एक वर्ग विशेष का वर्चस्व सदा कायम रहे। ये हमारे भारतीय संस्कृति का एक वो बदरंग या वो भद्दा दाग है जिसको अगर एसिड से भी साफ किया जाए तब भी निशान इसके गहरे ही होंगे।कोई राजनीतिक दल यह हिन्दू राष्ट्र स्थापित करना चाहता है जो बोलता है हिन्दू ही एक ऐसा धर्म है जो भारत को विश्व गुरु बना सकता है तो कोई भारत को धर्मनिरपेक्ष बनाने या साबित करने में लगा है।पर कोई भी ऐसा संघठन आज तक भारत मे कार्यरत या बन नही पाया जो मानवतावादी हो या फिर एक इंसान को इंसान की नजर से देखे।जिन देशों में नस्लभेद था लोगो से बैलों की जगह काम लिया जाता था आज वो देश मानवतावादी हो कर हम से 100 साल आगे चल रहें हैं। क्योंकि उन्होंने इंसानियत को जगह दी न कि रंग या जाति को।कुछ दिन पहले की ही बात है ओडिसा केएक गांव जहाँ 17 वर्ष का एक नौजवान सरोज अपनी माँ के शव को साइकल पर उठाकर 5-6 मील दूर जंगल में जाकर दफ़ना आता है गाँव का कोई भी व्यक्ति सरोज की माँ का अंतिम संस्कार करने में मदद नहीं करता बल्कि नीची जाति का होने के कारण उन लोगों का बहिष्कार किया जाता है।2019 में यह क़िस्सा पढ़कर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि जिस सभ्य समाज की बात हम करते हैं आख़िर उस सभ्य समाज का हिस्सा कौन लोग है।
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता
क्या ये श्लोक जिसमें बताया जा रहा है कि जहाँ नारियों का सम्मान होता है वहाँ देवताओं का वास होता है, ये केवल कहने की बातें क्या सरोज की माँ यानी वो औरत जो दलित परिवार में जन्मी उस नारी श्रेणी में नहीं आती जिसकी बात इस श्लोक में हो रही है। यही तो हमारी सामाजिक व्यवस्था है जिसने देश के आधी से ज्यादा आबादी को अलग कर दिया।जिस प्रकार उस बच्चे की माँ की बेज़्ज़ती मरने के बाद भी हो रही है ,उस औरत के जीवन की कठिनाइयों का अनुमान और मूल्याँकन उसके अंतिम समय में हो रहे व्यवहार से ज्ञात किया जा सकता है। आज सभी के आगे एक बहुत बड़ा प्रश्न है के किस तरह के समाज की सिरजना करने हेतु हम अग्रेसर है।आज मौजूदा सरकारों द्वारा की गई बड़ी बड़ी बातें के सामाजिक समानता आएगी,आँखों के सामने सब खोखली नज़र आ रही है,और ये महसूस हो रहा है कि शायद सरकार इसको इसी तरह रखना चाहती है ।आज़ादी के 72 साल बाद भी समानता का सपना जो कभी देश के महानुभावों ने देखा था आज भी अधूरा है।।