माननीय उच्चतम न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 497 (व्यभिचार) को महिला अधिकारों के प्रति भेदभावपूर्ण बताते हुए और व्यभिचार को अपराध की श्रेणी से बाहर करते हुए कहा है कि उक्त धारा संविधान के अनुच्छेद 14, 15 व 21 का उल्लंघन करती है अतः भा.द.सं. की धारा 497 (व्यभिचार) गैर-संवैधानिक है तथा इसे रद्द किया जाता हैl
माननीय उच्चतम न्यायालय ने इस निर्णय को देते समय इस तथ्य का ज़रा भी ध्यान नहीं रखा कि इस धारा के अंतर्गत सज़ा का प्रावधान केवल एक पुरुष को ही था जबकि महिला को दोषी होने के बावजूद दोषी नहीं माना जाता था व उसे कोई सज़ा नहीं दी जाती थीl अगर कोई विवाहित महिला अपने वैवाहिक संबंधों से इतर किसी पर-पुरुष के साथ स्वैच्छिक विवाहेत्तर संबंध बनाती थी तो भी इस धारा 497 के अंतर्गत उस विवाहित महिला को कोई सज़ा का प्रावधान नहीं थाl इस तरह से यह धारा पुरुष-विरोधी थी न कि महिला-विरोधी और पुरुषों के विरुद्ध लिंगभेद रखती थी जो कि गैर-संवैधानिक है और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन हैl
स्पष्ट है कि विवाहेत्तर संबंध बनाने वाली महिला को सज़ा का प्रावधान न करके माननीय उच्चतम न्यायालय ने व्यभिचार को ही अपराध न मानना उचित समझा जो कि सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से कतई सही नहीं हैl जहाँ एक महिला को किसी अपराध की सज़ा देने या किसी लिंगभेदी कानून को लिंगरहित बनाने की बात आती है तो उच्चतम न्यायालय सहित पूरी की पूरी न्यायपालिका व विधायिका पुरुषों की तरफ से उदासीन हो जाते हैं और न्याय के सभी सिद्धांतों को ही ताक पर रखकर संविधान की व्याख्या भी केवल महिला-पक्ष को ध्यान में रख कर ही करते हैंl पुरुषों के प्रति हो रहे लैंगिक भेदभाव को नज़रंदाज़ कर दिया जाता हैl
माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा व्यभिचार को अपराध न मानने का निर्णय देना एक तरह से व्यभिचार का प्रसार करने वाला निर्णय साबित होगाl इससे समाज में अनैतिकता बढ़ेगी और सामाजिक मूल्यों व परम्पराओं का पतन होगाl लोग अब स्वतंत्र होकर व्यभिचार करेंगे, विवाह संस्कारों का खुलकर उल्लंघन करेंगे और पवित्र विवाह-संस्था का विनाश बढ़ेगाl मात्र तलाक लेने के लिये व्यभिचार करने की प्रवृत्ति बढ़ेगीl ये भी आशंका है कि पहले से ही खतरनाक स्तर पर पहुँच चुकी पुरुष आत्महत्या दर में बेतहाशा वृद्धि हो जायेगी l धारा 497 को रद करने से विवाह संस्था को महत्व देने वाली भारतीय परंपरा और मान्यता को धक्का पहुंचेगा।
माननीय उच्चतम न्यायालय का यह निर्णय नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों के भी विरुद्ध है क्योंकि संविधान का अनुच्छेद-14 लिंगभेद रहित कानून की व्याख्या करता है जिसमें कहा गया है कि कानून की नज़र में स्त्री व पुरुष एकसमान हैं व अपराध के लिये केवल लिंगरहित एकसमान सज़ा दिये जाने की ही व्याख्या करी गयी हैl इसके अलावा अनुच्छेद-15(3) महिलाओं के सामाजिक व आर्थिक उत्थान के लिये केवल उपबंध किये जाने की व्याख्या करता है न कि उन्हें कानूनों का उल्लंघन कर अपराध करने पर सज़ा में छूट देने कीl
यदि माननीय उच्चतम न्यायालय के अनुसार व्यभिचार करने को अपराध नहीं माना जा सकता तो उस लिहाज से हिन्दू विवाह अधिनियम-1955 जो पूरी तरह से हिन्दू वैदिक शास्त्रों व मान्यताओं में वर्णित “सप्तपदी“ के सिद्धांतों के आधार पर बनाया गया है उसकी भी वैधता खत्म होती है क्योंकि सप्तपदी के अनुसार व्यभिचार न करने की शपथ पति और पत्नी दोनों ही लेते हैं जिसका उल्लंघन दोनों के लिये ही वर्जित हैl साथ ही साथ भा.द.सं. की धारा 494, जो बिना तलाक लिये पति या पत्नी द्वारा दूसरी शादी किये जाने को अवैध ठहराती है व सज़ा का प्रावधान करती है, उसकी भी प्रासंगिकता नहीं रह जाती हैl ताजा निर्णय के बाद पति या पत्नी बिना तलाक लिये विवाहेत्तर संबंधों में रहने के लिये स्वतंत्र होंगे क्योंकि उनमें सज़ा होने का डर नहीं होगा l
हाल के कुछ दिनों के वैवाहिक कानूनों पर आधारित दायर याचिकाओं में दिये गये माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्णयोन को देखने और समझने से ऐस प्रतीत होता है कि माननीय उच्चतम न्यायालय पुरुषों को महिलाओं की अपेक्षा दोयम दर्जे का मानते हुए उनके प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित हैl अखिल भारतीय पुरुष अधिकार और सम्मान सुरक्षा परिषद का मानना है कि न्यायपालिका का गठन समाज में स्थापित नैतिक मूल्यों, सामाजिक परम्पराओं व सामाजिक समरसता की अखण्डता बनाये रखने और उनकी रक्षा करने के लिये हुआ था न कि समाज में स्त्री-पुरुष वैमनस्यता बढ़ाने या व्यभिचार करने की छूट देने के लियेl
(पंकज गोयल, अखिल भारतीय पुरुष अधिकार और सम्मान सुरक्षा परिषद भारत (रजि.) चंडीगढ़ प्रदेश अध्य्क्ष)