मयंक मिश्रा : ‘बेटी जल्दी से तैयार हो जाओ। लडक़े वाले आते ही होंंगे।’ मालती किचन से चिल्लाई। मालती की रौबदार आवाज सुनते ही दिव्या किचन की तरफ आई और मालती को जोर से गले लगाकर बोली, ‘क्यों चिंता करती हो मां। अभी उनके आने में एक घंटा बचा है। मुझे तैयार होने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। मां कितनी अच्छी खुशबू आ रही है। जरा मटर पनीर की सब्जी को चखने के लिए दे दो।’ मालती जानती थी कि दिव्या उन्हें चिढ़ा रही है। वह धीरे से हंसी और उसकी तरफ देखते हुए कहा, ‘तुझे शर्म नहीं आती। मेहमानों को खिलाए बिना पहले ही सब्जी खा लेगी। चल जा अब जल्दी से तैयार हो। और हां ज्यादा मेक अप मत करना। तुझ पर बिलकुल अच्छा नहीं लगता। जैसे समझाया था वैसे ही तैयार होना।’
दिव्या अपने कमरे में तैयार होने चली गई और मालती मेहमानों के लिए खाना तैयार करने में जुट गई। कुछ देर बाद मालती के पति विजय प्रताप बाजार से आए और बोले, ‘गुडिय़ा की अम्मा जरा बाहर आओ। यह मिठाई और कचौड़ी जो मंगवाई थी इसे किचन में ले जाओ।’ थोड़ी देर बाद विजय प्रताप तैयार होकर बैठक में सोफे पर आकर बैठ गए और अखबार पढऩे लगे। कुछ ही देर में घंटी बजी। दरवाजा खोला तो देखा कि सामने लडक़े वाले थे। उन्होंने हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘आइये। स्वागत है आप सभी का।’ कुछ ही देर में मालती बैठक में आ गईं और सबका बहुत ही सम्मान से अभिवादन किया।
मालती थोड़ी देर के बाद दिव्या को लेने उसके कमरे में गई। ‘बेटी आज तो तुम बिलकुल परी लग रही हो। गुलाबी रंग तुम पर खूब जच रहा है। मेरी बच्ची को किसी तरह की कोई नजर न लगाए।’ यह कहते हुए मातली ने अपनी आंखों से काजल उंगली पर लगाया और दिव्या के गले के पीछे लगा दिया। फिर उसे वह बैठक में ले गई। दिव्या ने सभी का अभिवादन किया और दीवान पर बैठ गई। लडक़े की मां ने दिव्या का परिचय अपने बेटे से करवाया और कहा, ‘बेटी यह सोमेश है। मैं चाहती हूं कि पहले तुम दोनों आपस में एक दूसरे से अकेले में बातचीत कर लो।’
सोमेश और दिव्या घर के आंगन में चले गए। सोमेश ने दिव्या को बताया कि वह छोटा मोटा कारोबार करता है और हर महीने इससे उसे अच्छी खासी आमदनी हो जाती है। दिव्या तो मुंह नीचे किए सोमेश की बातें सुनती रही और सोमेश के हर सवाल का जवाब सिर्फ ‘हां’ या ‘ना’ में देती रही। सोमेश से कुछ पूछने की हिम्मत वह नहीं कर पा रही थी। लगभग 15 मिनट बाद दोनों अंदर आए। उत्सुकता से सबने उनकी तरफ देखा। सोमेश ने कहा, ‘मां मुझे दिव्या पसंद है।’ दिव्या यह सुनकर शर्मा गई और वहां से उठ कर दूसरे कमरे में चले गई। मालती दिव्या के पीछे गई और उससे उसकी पसंद के बारे में पूछा। दिव्या ने शर्माते हुए गरदन हिला दी।
लगभग चार महीनों के बाद दोनों परिणय सूत्र में बंध गए। विजय प्रताप ने अपनी इकलौती बेटी दिव्या की शादी धूम धाम से की और अपनी हैसियत के अनुसार उसे काफी कुछ दिया भी। दिव्या सोमेश के घर बहुत अरमान लेकर आई थी। लेकिन, शादी के कुछ दिनों के बाद ही उसे पता चला कि सोमेश ने उससे झूठ कहा था कि वह छोटा मोटा कारोबार करता है। असल में वह कोई कारोबार नहीं करता था। उसे एक इवेंट मैनेजमेंट कंपनी से कभी कभी कोई काम मिल जाता था जिससे उसे थोड़े बहुत पैसे मिल जाते थे। शादी के अगले ही दिन उसे पता चल गया कि सोमेश को शराब पीने की लत है। वह सुबह उठते ही शराब पीने लगता था। इस वजह से अकसर सोमेश और दिव्या के बीच झगड़ा होता था। दिव्या ने शादी के बाद के जीवन की जो कल्पना की थी वह सब हकीकत से विपरीत थी। वह यह सब अकेले सहती रही। कभी मां या पिता जी को नहीं बताया। उसे लगा कि अगर वह उन्हें सच्चाई बताएगी तो वह दुखी होंगे।
सोमेश और दिव्या की शादी हुए दो साल हो गए थे। लेकिन, शादी के बाद वह एक भी दिन खुश नहीं रही थी। होली के अगले दिन जब दिव्या यह पता चला कि वह मां बनने वाली है, उसे बेहद खुशी हुई। पहले उसने सोमेश को फोन किया और उसके साथ यह खुशी बांटी। फिर मां को फोन किया। उसे लगा कि उसे बहुत कुछ मिल गया है और अब शायद बच्चा होने के बाद सोमेश भी बदल जाए और उसे अपनी जिम्मेदारी का शायद अहसास हो जाए। 20 नवंबर को उसने एक स्वस्थ बेटे को जन्म दिया। दिव्या ने उसका नाम वंश रखा।
बेटे के जन्म के बाद भी सोमेश में किसी तरह का बदलाव नहीं आया। सोमेश के पिता को जो थोड़ी बहुत पेंशन मिलती थी उससे घर चल रहा था। दिव्या को अपनी हर जरूरत के लिए अकसर ससुर के आगे हाथ फैलाने पड़ते थे। वंश धीरे धीरे बड़ा हो रहा था और उसके खर्चे भी बढ़ रहे थे। दिव्या ने अपने बेटे की जरूरतों को पूरा करने के लिए घर में ही बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया। इससे होने वाली आय से वह खुद की और वंश की जरूरतों को पूरा कर पाती थी। लेकिन, सोमेश को एक रुपया भी नहीं देती थी। सोमेश जो भी थोड़ा बहुत कमाता था उसे वह शराब पीने में बर्बाद कर देता था। घर के खर्चे में उसका कोई सहयोग नहीं था।
वंश के पैदा होने के बाद से सोमेश ने शराब ज्यादा पीनी शुरू कर दी थी। वह बीमार रहने लगा। डॉक्टरों ने स्पष्ट कर दिया कि अगर वह शराब पीना नहीं छोड़ेगा तो उसका लीवर पूरी तरह खराब हो जाएगा और फिर वे उसे नहीं बचा पाएंगे। दिव्या ने सोमेश को हर तरह से समझाया। लेकिन, उसे शराब की ऐसी लत लग गई थी कि उससे शराब छोड़ी नहीं गई और कुछ ही महीनों में उसका लीवर बिलकुल खराब हो गया। लगभग एक महीना अस्पताल में भर्ती रहने के बाद उसने दम तोड़ दिया। सोमेश ने जब अंतिम सांस ली उस समय वंश साढ़े चार साल का था। सोमेश के पिता ने जो थोड़े बहुत पैसे जोड़े थे वह उसकी बीमारी पर खर्च हो गए।
सोमेश के चले जाने के बाद दिव्या बेसहारा हो गई। लेकिन, उसने हिम्मत नहीं हारी। उसने ठान लिया कि वह वंश को उच्च शिक्षा दिलाकर उसे बड़ा आदमी बनाएगी। दिव्या ने ससुसाल छोड़ दिया और उसने एक कमरा किराए पर ले लिया। उसने ट्यूशन पढ़ानी जारी रखी और सिलाई का काम भी शुरू किया। उसे पता था कि वंश को उसे अकेले ही पालना है। मां-पिता से उसने कभी कोई पैसा नहीं लिया। सास ससुर ने भी मदद करने की कोशिश की। लेकिन, उसने उनसे भी कोई मदद नहीं ली। किसी तरह उसने घर चलाया। बेटे की हर जरूरत को पूरा किया। वंश इंजीनियर बनना चाहता था। दिव्या ने संघर्ष का रास्ता तय करते हुए वंश का दाखिला एक अच्छे इंजीनियरिंग कालेज में करवाया।
इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला मिलने के बाद से ही वंश में बदलाव आने लगा। उसे कालेज में अपने दोस्तों यह बताने में शर्म महसूस होने लगी कि उसकी मां ब्लाउज सिलती है और बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती है। वह अपने किसी दोस्त को एक कमरे के घर नहीं बुलाना चाहता था। घर में आकर उसे अच्छा नहीं लगता था। बात बात पर वह मां से झगड़ा करता था। उसे मां का पहनावा भी नहीं पसंद आता था।
दिव्या उसे प्यार से समझाती थी, लेकिन वह उसकी बात मानने की जगह उस पर जोर जोर से चिल्लाता था। एक दिन वंश ने मां से कहा, ‘मां, घर में पढ़ाई का माहौल नहीं है। सिलाई मशीन की आवाज के कारण मैं पढ़ नहीं पाता हूं। वैसे भी जगह ही कहां बची है घर में पढऩे की। इसलिए अब मैं अपने एक दोस्त के साथ रहूंगा और वहीं पढ़ूंगा। हर महीने मुझे उसको दो हजार देने होंगे।’
वंश की यह बात सुनकर दिव्या को धक्का लगा। लेकिन, वह अपने आंसू पी गई। वंश से कहा ‘बेटा दो हजार रुपये तुझे मिल जाएंगे। पर तू हर शनिवार और रविवार को तो घर आ जाना। तेरे बिना मेरा मन नहीं लगेगा।’ वंश कुछ समय तो नियमित तौर पर शनिवार को घर आ जाता था और सोमवार सुबह जाता था। लेकिन, धीरे धीरे उसने घर आना बिलकुल बंद कर दिया। उसे घर आना अच्छा नहीं लगता था। वहां उसका दम घुटता था। दिव्या को लगा कि बस किसी तरह वंश की पढ़ाई पूरी हो जाए। उसके बाद तो वह घर लौट ही आाएगा।
इलेक्ट्रानिक्स इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी होते ही वंश की नौकरी गुडग़ांव में एक कंपनी में लग गई। दिव्या बहुत खुश हुई। उसे लगा कि उसकी मेहनत सफल हुई और उसके बुरे दिन खत्म हो गए। दिव्या ने वंश के साथ गुडग़ांव जाने की तैयारी कर ली और सामान बांधना शुरू किया। वंश ने जब देखा कि मां सामान बांध रही है तो कहा, ‘आप सामान बांध कर कहां जा रही हो?’ दिव्या ने खुश होते हुए वंश की तरफ देखते हुए कहा, ‘बेटा तेरे साथ गुडग़ांव जाना है। तो इस कमरे का फालतू में किराया क्यों दूं?’
‘आपसे किसने कहा कि आप मेरे साथ गुडग़ांव जा रही हो?’, वंश गुस्से में मां से बोला। दिव्या ने बड़ी मायूसी से वंश की तरफ देखा और कहा, ‘बेटा तो क्या तू मां को अकेला छोडक़र इतनी दूर चला जाएगा?’ वंश ने मुंह पीछे करते हुए कहा, ‘तो तुम क्या चाहती हो? मेरी कोई इज्जत है या नहीं? खुद तो हमेशा ब्लाउज सिलती रही। अब मुझे अच्छी कंपनी में नौकरी मिली है, बड़ा आदमी बनने का मौका मिला है तो अब तो कम से कम मेरा पीछा छोड़ दो। तुम मेरे साथ वहां रहोगी तो मेरे दोस्त क्या कहेंगे? इसलिए तुम मेरे साथ नहीं चलोगी। हर महीने तुम्हें पैसे मिलते रहेंगे। इसकी चिंता मत करना।’
इतना कह कर वह घर से चला गया। दिव्या एक टक उसे देखती रही और उसके जाने के बाद काफी देर तक रोती रही। वंश को गुडग़ांव गए एक साल हो गया था। साल भर में वह सिर्फ दिवाली पर ही एक दिन के लिए घर आया था। हर महीने दिव्या के खाते में पैसे डाल देता था। दिवाली पर घर आया को मां तो एक बढिय़ा मोबाइल फोन और कुछ कपड़े और घर की चीजें दे गया। दिवाली के अगले दिन जब वह गुडग़ांव के लिए प्रस्थान कर रहा तो तो दिव्या ने उससे कहा, ‘बेटा मां को नया फोन दिया है। अब इस नए फोन का फायदा तभी है अगर तू कम से कम दिन में एक बार मेरे से बात कर ले। वरना फोन तो पहले वाला भी ठीक था जिस पर तू 15 दिन में एक बार फोन करता था।’ वंश ने मां की इस बात को अनसुना सा कर दिया और कैब में अपना सामान रखने लगा। फिर मां को पैर छुआ और जल्दी दोबारा आने का वादा कर गुडग़ांव लौट आया।
गुडग़ांव आने के बाद उसने मां को 15 दिन बाद भी फोन नहीं किया। दिव्या उसे फोन करती थी तो वह फोन या तो काट देता था या उठाता नहीं था। पहले वह 15 दिन में एक बार फोन करता था। उसके बाद वह दो महीने में एक बार फोन करता था। फिर उसने धीरे धीरे बिलकुल फोन करना बंद कर दिया। दिव्या ने खुद को समझा लिया कि वंश उससे कोई संबंध रखना नहीं चाहता है। इसलिए उसने भी उसे फोन करना छोड़ दिया और अकेलेपन को गले लगा लिया।
वंश को गुडग़ांव गए हुए पांच साल हो चुके थे। दिव्या अकेले जिंदगी का सफर तय कर रही थी। उसे कई तरह की बीमारियां लग गई थीं। आए दिन उसे अस्थमा का अटैक आता था। लेकिन, घर पर उसे संभालने वाला कोई नहीं था। पड़ोस में रहने वाली एक लडक़ी नेहा अकसर घर आकर उसके लिए खाना बना देती थी। बीमार होने पर देखभाल भी करती थी और डॉक्टर के पास भी ले जाती थी। दिव्या बीमार होने पर भी मंदिर रोज जाती थी। एक दिन वह मंगलवार को मंदिर में पूजा करके लौट रही थी। तभी उसकी नजर वंश पर पड़ी। उसने देखा कि वंश एक लडक़ी के साथ मंदिर में खड़ा है। वह दौड़ कर उसके पास गई और उसे गले लगा लिया। ‘बेटा कहां था तू? देख तेरी मां की क्या हालत हो गई है? ’ फिर उसने लडक़ी की तरफ देखा और कहा, ‘बेटा तूने शादी कर ली और मुझे बताया तक नहीं?’
यह सुनकर वंश के साथ खड़ी लडक़ी ने उसे घूरते हुए कहा, ‘यह बुढिय़ा कौन है और क्या बक रही है? क्या यह तुम्हारी मां है? तुम तो कहते थे कि तुुम्हारी मां मर गई है और तुम्हारा इस दुनिया में कोई नहीं है?’ ‘अरे नहीं स्वीटहार्ट, मैं नहीं जानता इस औरत को। यह पता नहीं क्या बोल रही है। पता नहीं कहां कहां से चले आते हैं लोग पैसा मांगने। चल हट।’ इतना कहते हुए वंश ने दिव्या का हाथ झटक दिया और उसे हल्का का धक्का देते हुए अपनी पत्नी का हाथ पकड़ कर तेजी से आगे बढ़ गया। दिव्या उसे काफी देर तक देखती रही। घर आई और काफी देर तक रोती रही। रोते रोते उसे अस्थमा के अटैक आए। वंश की बातें बार बार उसकी कानों में गूंज रही थीं।
दरअसल में वंश गुडग़ांव से चंडीगढ़ आ गया था और उसने शादी भी कर ली थी। उसने अपनी कंपनी में काम करने वाली एक लडक़ी के साथ लव मैरिज की थी। उसने अपनी पत्नी को बताया था कि उसके मां बाप इस दुनिया में नहीं है और वह अनाथ है। एक ही शहर में होने के बावजूद वह कभी मां से मिलने घर नहीं गया।
घर लौटकर वंश का मन भी काफी परेशान था। रह रह कर उसकी आंखों के सामने मां का चेहरा आ रहा था। मां काफी बदल गई थी। वह बुजुर्ग दिखने लगी थी और काफी कमजोर हो गई थी। ऐसा लग रहा था जैसे वह बहुत बीमार हो। वह ठीक से सो नहीं पा रहा था। उसे खुद से घृणा हो रही थी। उसे बहुत पछतावा भी हो रहा था कि उसने मां को ऐसा क्यों बोला? उसे अहसास हो गया था कि उसने मां के साथ बहुत गलत किया। लगभग दस दिनों तक वह पछतावे की आग में जलता रहा। न तो उसका नौकरी में मन लग रहा था और न ही घर पर। वह बहुत चिड़चिड़ा हो गया था। बात बात में पत्नी से झगड़ा करता था।
उसे लगा कि उसे मां के पास जाना चाहिए और माफी मांगनी चाहिए। बहुत हिम्मत करके वह उस एक कमरे के घर में गया जहां उसका बचपना बीता था। घर पर पहुंचते ही उसने दरवाजा खटखटाया। पड़ोस में रहने वाली लडक़ी नेहा ने दरवाजा खोला। उसने देखा कि मां बिस्तर पर आंख बंद किए लेटी है। उसने नेहा से पूछा कि मां को क्या हुआ है? उसने बताया कि दस दिनों से न खा पी रही हैं और न ही कुछ बोल रही हैं। रोज अस्थमा का अटैक आ रहा है। ‘अस्थमा और मां को?’, वंश ने हैरानी से नेहा की तरफ देखा। नेहा ने कहा , ‘भइया कई साल हो गए हैं। आप तो कभी आए नहीं इनका हाल चाल लेने।’
नेहा ने वंश को पहचान लिया था। कभी वंश को देखा नहीं था, लेकिन दिव्या ने उसे वंश की फोटो दिखाई थी और उसके बारे में उसे काफी कुछ बताया था। वंश ने तुंरत फोन कर एंबुलेंस बुलवाई और मां को प्राइवेट अस्पताल ले गया। वहां उसने डॉक्टरों से कहा कि जैसे भी हो इन्हें ठीक करो। पैसे की चिंता मत करना। डॉक्टरों की टीम ने इलाज शुरू किया। लेकिन, दिव्या की हालत ठीक होने की जगह बिगड़ती गई। वंश मन ही मन प्रार्थना करता रहा कि एक बार किसी तरह मां ठीक हो जाए तो वह उनसे माफी मांग लेगा और फिर अपने साथ घर ले जाएगा और उनकी देखभाल करेगा। लगभग दस दिनों तक अस्पताल के रेस्पिरेटरी आईसीयू में रहने के बाद दिव्या ने हमेशा के लिए आँखें मूंद ली। दिव्या ने अस्पताल में एक बार भी आंख नहीं खोली। वंश हमेशा उसके पास इस उम्मीद में बैठा रहा कि मां उसे एक बार देखेगी। लेकिन, ऐसा नहीं हुआ।
वंश मां के पार्थिव शरीर को लेकर अपने घर पहुंचा। पत्नी को बुलाया और कहा ‘देखो मैं किसे लाया हूं अपने साथ। यह मेरी मां है। मेरी मां। मेरी मां मरी नहीं थी। मैं अनाथ नहीं था। मेरी मां जिंदा थी। लेकिन आज जब मुझे मां मिली तो इस रूप में। मेरी मां मर गई। मैं सचमुच अनाथ हो गया।’ यह कहते हुए उसने जोर जोर से रोना शुरू किया। लगभग दो घंटे तक वह अपने मां की लाश से चिपक चिपक कर रोता रहा। दिव्या जा चुकी थी। हमेशा हमेशा के लिए। अब वंश के पास पछतावा करने के सिवाय कुछ नहीं बचा था। वंश को रोज सपने में दिव्या दिखती थी। वंश ने अपनी डायरी में लिखा, ‘ कितना अभागा हूं मैं। इस दुनिया में कितने ऐसे लोग हैं जिनके पास मां नहीं है। मेरे पास मां थी तो मैंने मां की इज्जत नहीं की। मां क्या होती है उसकी कद्र नहीं जानी। अब जब मां नहीं है तो मुझे मां की कमी खल रही है। मां…तुम लौट आओ न…सिर्फ एक बार गले लगा लो..मुझे आपनी गोद में सुला दो न.. ’ । लेकिन, वह जानता था कि मां अब नहीं नहीं लौटेगी।