विजय तेवाडी, भवाली, नैनीताल : मकर संक्रान्ति हिन्दू संस्कृति का बहुत बड़ा पर्व है जिसे सूर्योपासना के रूप में पूरे भारत देश और पड़ोसी देश नेपाल में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। सूर्य , प्रत्यक्ष दृष्टि गोचर होने वाले एक मात्र देव और सृष्टि नियन्ता है । इसलिये प्रतिदिन सूर्यदेव की पूजा करके ऊर्जा प्राप्त करने का माहात्म्य पुराणों में वर्णित है।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार –
संक्रांति का अर्थ होता है सूर्य देव का एक राशि से दूसरे राशि में संक्रमण।
यूँ तो संक्रांति हर माह में होता है लेकिन सूर्य देव का धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश के साथ ही अयन में भी परिवर्तन होता है।
अयन का अर्थ है गमन । यानि सूर्य देव का दक्षिण से उत्तर की और गमन करना उत्तरायण कहलाता है। इस दक्षिणायन से उत्तरायण की स्थिति को आम बोल चाल की भाषा में , दैत्यों के दिन व देवताओं की रात्रि से देवताओं का दिन व दैत्यों की रात्रि का आरम्भ भी माना जाता है। इसलिये सूर्य के मकर राशि में प्रवेश को ही मकर संक्रांति कहा जाता है।
उत्तरायण काल को प्राचीन ऋषि-मुनियों ने जप तप व सिद्धि साधना के लिये महत्वपूर्ण समय माना है ।और मकर संक्रांति इस काल का प्रथम दिन है इसलिये इस दिन किया गया दान पुण्य अक्षय फलदायी होता है।
हिन्दी कैलेंडर के पौष मास में जब सूर्य मकर राशि पर आता है तभी इस पर्व को मनाया जाता है। यह त्योहार अंग्रेजी कैलेंडर के जनवरी माह के चौदहवें या पन्द्रहवें दिन ही पड़ता है क्योंकि इसी दिन सूर्य धनु राशि को छोड़ मकर राशि में प्रवेश करता है। मकर संक्रान्ति के दिन से ही सूर्य की उत्तरायण गति भी प्रारम्भ होती है। इसलिये इस पर्व को कहीं-कहीं उत्तरायणी भी कहते हैं।
भारत में मकर संक्रान्ति
सम्पूर्ण भारत में मकर संक्रान्ति विभिन्न रूपों में मनाया जाता है। विभिन्न प्रान्तों में इस त्योहार को मनाने के जितने अधिक रूप प्रचलित हैं उतने किसी अन्य पर्व में नहीं।
उत्तराखणड में कुमाऊँ में मनाए जाने वाले घुघुतिया त्यौहार की अलग ही पहिचान है| त्यौहार का मुख्य आकर्षण कौवा है| बच्चे इस दिन बनाए गए घुघुते कौवे को खिलते हैं| और कहते हैं “काले कावा काले घुघुति माला खाले”| बात उनदिनों की है जब कुमाऊँ में चन्द्र वंश के राजा राज करते थे| राजा कल्याण चंद की कोई संतान नहीं थी| उसका कोई उत्तराधिकारी भी नहीं था| उसका मंत्री सोचता था कि राजा के बाद राज्य मुझे ही मिलेगा| एक बार राजा कल्याण चंद सपत्नी बाघनाथ के मन्दिर में गए और अपनी औलाद के लिए प्रार्थना की| बाघनाथ की कृपा से उनका एक बेटा हो गया जिसका नाम निर्भय चंद पड़ा| निर्भय को उसकी माँ प्यार से घुघुति के नाम से बुलाया करती थी| घुघुति के गले में एक मोती की माला थी जिस में घुगरु लगे हुए थे| इस माला को पहन कर घुघुति बहुत खुश रहता था| जब वह किसी बात पर जिद्द करता तो उसकी माँ उस से कहती कि जिद्द ना कर नहीं तो में माला कौवे को दे दूंगी| उसको डराने के लिए कहती कि “काले कौवा काले घुघुति माला खाले”| यह सुन कर कई बार कौवा आ जाता जिसको देखकर घुघुति जिद्द छोड़ देता| जब माँ के बुलाने पर कौवे आजाते तो वह उनको कोई चीज खाने को दे देती| धीरे धीरे घुघुति की कौवों के साथ दोस्ती हो गई|उधर मंत्री जो राज पाट की उमीद लगाए बैठा था घुघुति को मारने की सोचने लगा| ताकि उसी को राजगद्दी मिले| मंत्री ने अपने कुछ साथियों के साथ मिल कर षड्यंत्र रचा| एक दिन जब घुघुति खेल रहा था वह उसे चुप-चाप उठा कर ले गया| जब वह घुघुति को जंगल की ओर ले के जा रहा था तो एक कौवे ने उसे देख लिया और जोर जोर से काँव काँव करने लगा| उस की आवाज सुनकर घुघुतिजोर जोर से रोने लगा और अपनी माला को उतार कर दिखाने लगा| इतने में सभी कौवे इकठे हो गए और मंत्री और उसके साथियों पर मडराने लगे| एक कौवा घुघुति के हाथ से माला झपट कर ले गया| सभी कौवों ने एक साथ मंत्री और उसके साथियों पर अपने चौंच और पंजों से हमला बोल दिया| मंत्री और उसके साथी घबरा कर वहां से भाग खड़े हुए| घुघुति जंगल में अकेला रह गया| वह एक पेड़ के नीचे बैठ गया सभी कौवे भी उसी पेड़ में बैठ गए|जो कौवा हार लेकर गया था वह सीधे महल में जाकर एक पेड़ पर माला टांग कर जोर जोर से बोलने लगा| जब लोगों की नज़रे उस पर पड़ी तो उसने घुघुति की माला घुघुति की माँ के सामने डाल दी| माला सभी ने पहचान ली| इसके बाद कौवा एक डाल से दूसरे डाल में उड़ने लगा| सब ने अनुमान लगाया कि कौवा घुघुति के बारे में कुछ जनता है| राजा और उसके घुडसवार कौवे के पीछे लग गए|कौवा आगे आगे घुड़सवार पीछे पीछे|कुछ दूर जाकर कौवा एक पेड़ पर बैठ गया| राजा ने देखा कि पेड़ के नीचे उसका बेटा सोया हुआ है| उसने बेटे को उठाया, गले से लगाया और घर कोलौट आया| घर लौटने पर जैसे घुघुति की माँ के प्राण लौट आए| माँ ने घुघुति की माला दिखा कर कहा कि आज यह माला नहीं होती तो घुघुति जिन्दा नहीं रहता| राजाने मंत्री और उसके साथियों को मृत्यु दंड दे दिया| घुघुति के मिल जाने पर माँ ने बहुत सारे पकवान बनाए और घुघुति से कहा कि ये पकवान अपने दोस्त कौवों को बुलाकर खिला दे| घुघुति ने कौवों को बुलाकर खाना खिलाया| यह बात धीरे धीरे सारे कुमाऊ में फैल गई और इसने बच्चों के त्यौहार का रूप ले लिया| तब से हर साल इस दिन धूम धाम से इस त्यौहार को मानते हैं| मीठे आटे से यह पकवान बनाया जाता है जिसे घुघूत नाम दिया गयाहै| इसकी माला बना कर बच्चे मकर संक्रांति केदिन अपने गले में डाल कर कौवे को बुलाते हैं और कहते हैं:-“काले कौवा काले घुघुति माला खाले” ||”लै कावा भात में कै दे सुनक थात”||”लै कावा लगड़ में कै दे भैबनों दगड़”||”लै कावा बौड़ मेंकै दे सुनौक घ्वड़”||”लै कावा क्वे मेंकै दे भली भली ज्वे”||इसके लिए हमारे यहाँ एक कहावत भी मशहूर है कि श्रादों में ब्रह्मण और उत्तरायनी को कौवे मुश्किल से मिलते हैं|
हरियाणा और पंजाब में इसे लोहड़ी के रूप में एक दिन पूर्व १३ जनवरी को ही मनाया जाता है। इस दिन अँधेरा होते ही आग जलाकर अग्निदेव की पूजा करते हुए तिल, गुड़, चावल और भुने हुए मक्के की आहुति दी जाती है। इस सामग्री को तिलचौली कहा जाता है। इस अवसर पर लोग मूंगफली, तिल की बनी हुई गजक और रेवड़ियाँ आपस में बाँटकर खुशियाँ मनाते हैं। बहुएँ घर-घर जाकर लोकगीत गाकर लोहड़ी माँगती हैं। नई बहू और नवजात बच्चे के लिये लोहड़ी का विशेष महत्व होता है। इसके साथ पारम्परिक मक्के की रोटी और सरसों के साग का आनन्द भी उठाया जाता है
उत्तर प्रदेश में यह मुख्य रूप से ‘स्नान व दान का पर्व’ है। इलाहाबाद में गंगा, यमुना व सरस्वती के संगम पर प्रत्येक वर्ष एक माह तक माघ मेला लगता है जिसे माघ मेले के नाम से जाना जाता है। १४ जनवरी से ही इलाहाबाद में हर साल माघ मेले की शुरुआत होती है। १४ दिसम्बर से १४ जनवरी तक का समय खर मास के नाम से जाना जाता है। एक समय था जब उत्तर भारत में १४ दिसम्बर से १४ जनवरी तक पूरे एक महीने किसी भी अच्छे काम को नहीं किया जाता था। शादी-ब्याह नहीं किये जाते थे परन्तु अब समय के साथ लोग बाग बदल गये हैं। परन्तु फिर भी ऐसा विश्वास है कि १४ जनवरी यानी मकर संक्रान्ति से पृथ्वी पर अच्छे दिनों की शुरुआत होती है। माघ मेले का पहला स्नान मकर संक्रान्ति से शुरू होकर शिवरात्रि के आख़िरी स्नान तक चलता है। संक्रान्ति के दिन स्नान के बाद दान देने की भी परम्परा है। बागेश्वर में बड़ा मेला होता है। वैसे गंगा-स्नान रामेश्वर, चित्रशिला व अन्य स्थानों में भी होते हैं। इस दिन गंगा स्नान करके तिल के मिष्ठान आदि को ब्राह्मणों व पूज्य व्यक्तियों को दान दिया जाता है। इस पर्व पर क्षेत्र में गंगा एवं रामगंगा घाटों पर बड़े-बड़े मेले लगते है। समूचे उत्तर प्रदेश में इस व्रत को खिचड़ी के नाम से जाना जाता है तथा इस दिन खिचड़ी खाने एवं खिचड़ी दान देने का अत्यधिक महत्व होता है।
बिहार में भी मकर संक्रान्ति को खिचड़ी के नाम से जाता हैं। इस दिन लोग सुबह स्नान कर भगवान की पूजा करते है। मौसमी फल व तिल के पकवान का भोग लगाते है ।उड़द, चावल, तिल, चिवड़ा, गौ, स्वर्ण, ऊनी वस्त्र, कम्बल आदि दान करते है। अगले दिन खिचड़ी खाते है।
महाराष्ट्र में तिल संक्रांति के नाम से मनाया जाता है । इस दिन सभी विवाहित महिलाएँ अपनी पहली संक्रान्ति पर कपास, तेल व नमक आदि चीजें अन्य सुहागिन महिलाओं को दान करती हैं। तिल-गूल नामक हलवे के बाँटने की प्रथा भी है। लोग एक दूसरे को तिल गुड़ देते हैं और देते समय बोलते हैं -“लिळ गूळ ध्या आणि गोड़ गोड़ बोला” अर्थात तिल गुड़ लो और मीठा-मीठा बोलो। इस दिन महिलाएँ आपस में तिल, गुड़, रोली और हल्दी बाँटती हैं।
बंगाल में इस पर्व पर स्नान के पश्चात तिल दान करने की प्रथा है। यहाँ गंगासागर में प्रति वर्ष विशाल मेला लगता है।
तमिलनाडु में इस त्योहार को पोंगल के रूप में चार दिन तक मनाते हैं। प्रथम दिन भोगी-पोंगल, द्वितीय दिन सूर्य-पोंगल, तृतीय दिन मट्टू-पोंगल अथवा केनू-पोंगल और चौथे व अन्तिम दिन कन्या-पोंगल। इस प्रकार पहले दिन कूड़ा करकट इकठ्ठा कर जलाया जाता है, दूसरे दिन लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है और तीसरे दिन पशु धन की पूजा की जाती है। पोंगल मनाने के लिये स्नान करके खुले आँगन में मिट्टी के बर्तन में खीर बनायी जाती है, जिसे पोंगल कहते हैं। इसके बाद सूर्य देव को नैवैद्य चढ़ाया जाता है। उसके बाद खीर को प्रसाद के रूप में सभी ग्रहण करते हैं। इस दिन बेटी और जमाई राजा का विशेष रूप से स्वागत किया जाता है।
असम में मकर संक्रान्ति को माघ-बिहू अथवा भोगाली-बिहू के नाम से मनाते हैं।
राजस्थान में इस पर्व पर सुहागन महिलाएँ अपनी सास को वायना देकर आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। साथ ही महिलाएँ किसी भी सौभाग्यसूचक वस्तु का चौदह की संख्या में पूजन एवं संकल्प कर चौदह ब्राह्मणों को दान देती हैं।
आंध्रप्रदेश में भी संक्रांति को भोगी के नाम से चार दिन तक मनाया जाता है
ओडिसा में संक्रांति को
“”मकर चौला”” के नाम से मनाया जाता है।
गोआ में इस दिन इंद्र देव की पूजा करते है।
हिमाचल प्रदेश में संक्रांति को माघी के नाम से मनाया जाता है।
गुजरात में इस पर्व को उत्तरायण के नाम से 2 दिन तक मनाया जाता है। पतंग उड़ाने की परम्परा है।
मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में मकर संक्रांति या सकरायत के नाम से मनाया जाता है।
कर्नाटक में संक्रांति को सुग्गी कहा जाता है।
केरल के सबरीमाला में इस दिन मकर ज्योति प्रज्ज्वलित कर मकर विलाकु का आयोजन होता है। यह 40 दिन का अनुष्ठान होता है। जिसके समापन पर भगवान अय्यप्पा की पूजा की जाती है।
उत्तराखण्ड में इस पर्व को धूमधाम से मनाया जाता है। गुड़ , घी और आटे का पकवान बनाकर पहले पक्षीयो को खिलाया जाता है।
इस प्रकार मकर संक्रान्ति के माध्यम से भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की झलक पुरे भारत देश में विविध रूपों में दिखती है।
मकर संक्रान्ति का महत्व
शास्त्रों के अनुसार, दक्षिणायन को देवताओं की रात्रि अर्थात् नकारात्मकता का प्रतीक तथा उत्तरायण को देवताओं का दिन अर्थात् सकारात्मकता का प्रतीक माना गया है। इसीलिए इस दिन जप, तप, दान, स्नान, श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष महत्व है। ऐसी धारणा है कि इस अवसर पर दिया गया दान सौ गुना बढ़कर पुन: प्राप्त होता है। इस दिन शुद्ध घी एवं कम्बल का दान मोक्ष की प्राप्ति करवाता है। जैसा कि निम्न श्लोक से स्पष्ट होता है-
माघे मासे महादेव: यो दास्यति घृतकम्बलम।
स भुक्त्वा सकलान भोगान अन्ते मोक्षं प्राप्यति॥
गोस्वामी तुलसी दास जी ने रामचरित मानस में इस अवसर के महत्व को अपने दोहे में वर्णित किया है।
“” माघ मकर गत रवि जब होई
तीरथ पतिहिं आव सब होई “”
अर्थात – माघ के महीने में जब सूर्य मकर राशि में होता है तब तीर्थराज प्रयाग में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की दैवीय शक्तियां आकर एकत्रित होती है।
इसिलिय इस दिन तीर्थराज प्रयाग में लाखों करोड़ो की संख्या में श्रद्धालु स्नान दान करने के लिये आते है।
महाभारत की कथा के अनुसार बाणों की शैय्या पर सोये हुए पितामह भीष्म ने देह त्याग करने के लिये मकर संक्रांति के ही दिन का चयन किया था।
मकर संक्रांति के दिन ही माँ गंगा , भगीरथ के पीछे पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होते हुए सागर में जा मिली थी। इसलिये इस दिन गंगासागर में स्नान कर दान करने के लिये भारी कष्ट उठाकर लोग यहाँ आते है। कहा भी गया है –
“”सब तीरथ बार बार
गंगासागर एक बार””
खर मास की समाप्ति तथा सभी प्रकार के शुभ कार्यो व मांगलिक कार्यो के आरम्भ करने का पुण्य दिन होता है।
मकर संक्रान्ति का ऐतिहासिक महत्व
ऐसी मान्यता है कि इस दिन भगवान भास्कर अपने पुत्र शनि से मिलने स्वयं उसके घर मकर राशि में जाते हैं। (शनिदेव मकर राशि व कुम्भ राशि के स्वामी हैं ) तथा 2 माह तक अपने पुत्र के घर में व्यतीत करते है । जिस दिन सूर्य देव अपने पुत्र शनि के घर जाते है । इस दिन को मकर संक्रान्ति के नाम से जाना जाता है। चूँकि सूर्यदेव 10 माह तक पुत्र वियोग के बाद इस समय प्रफुल्लित अवस्था में होते है । अतः जो भी भी इस दिन सूर्य देव की पूजा करके अर्घ्य देते है उन पर सूर्य देव के साथ शनि की भी कृपा बनी रहती है।
मकर राशि में सूर्य के संक्रमण के बाद स्वयं स्नान करें , फिर भगवान सूर्य देव को अर्घ्य देवें । स्कन्द पुराण के अनुसार सूर्य देव को प्रतिदिन अर्घ्य दिये बिना भोजन नही करना चाहिए।
अर्घ्य
पौरोहित्य शास्त्र के अनुसार किसी भी पात्र में जल लेकर सामने उड़ेल देना अर्घ्य नही कहलाता , बल्कि ताम्बे या पीतल के पात्र में जल, अक्षत, लाल चन्दन, केशर ,कुशा के अग्र भाग , तिल ,जौ व सरसों । इन आठ वस्तुओं का समावेश कर
“”ॐ घृणि सूर्याय नमः “” मन्त्र का जप करते हुए सूर्योभिमुख होकर अपने दोनों हाथों में पात्र को पकड़े अपने सिर से और ऊपर कर एक धार से जल गिरायें तथा आपकी दृष्टि गिरते हुए जल में से सूर्य की किरणों पर होनी चाहिये। अर्घ्य के पश्चात आदित्य हृदय स्तोत्र का कम से कम 3 बार पाठ करना चाहिये ।
गुड़ व तिल का महत्त्व
मकर संक्रांति के दिन तिल गुड़ युक्त लड्डू का विशेष महत्त्व है। प्राकृतिक दृष्टि से यह मौसम ठंड व शीतलहर का होता है। ठण्ड के कारण शरीर के सभी अंग सिकुड़ जाते है। जिससे रक्तवाहनियाँ रक्त संचार में मंदी ला देता है। परिणाम स्वरूप शरीर रुखा रुखा सा हो जाता है। जिससे त्वचा सम्बन्धी कई प्रकार के विकार उत्पन्न हो जाते है। ऐसे समय में शरीर को स्निग्धत्ता की आवश्यकता होती है। जिसे पूरा करने की क्षमता तिल व गुड़ में पर्याप्त मात्रा में रहता है। इसलिये तिल- गुड़ युक्त लड्डू खाना , दान करना , तिल का उबटन लगाकर स्नान करने आदि से शारीरिक स्फूर्ति बनी रहती है। साथ ही तिल स्नेह का तथा गुड़ शक्कर मधुरता का प्रतीक है जिसके बाँटने व खिलाने से पारस्परिक स्नेह व मधुरता में वृद्धि होती है।
स्नान व दान का महत्त्व
वायुपुराण , विष्णु धर्म सूत्र तथा बंग , गर्ग,गालव,गौतम, वृद्ध वशिष्ठ आदि ऋषि मुनियो के अनुसार –
“” विवाह व्रत संक्रांति प्रतिष्ठा ऋतू जन्मसु । तथोपरागपातादौ स्नाने दाने निशा शुभा।। “”
अर्थात – विवाह,व्रत,संक्रांति,प्रतिष्ठा
उसी तरह दान –
“”ग्रहणोद्वाह संक्रांति यात्रार्तिप्रसवेषु च । श्रवने चेतिहासस्य रात्रौ दानम् प्रशस्यते।। “”
अर्थात – ग्रहण , विवाह , संक्रांति , यात्रा , प्रसव पीड़ा तथा पुराणों के श्रवण निमित्त रात्रि दान वर्जित नही है। यदि कोई भी , उक्त अवसरों में सन्ध्या या रात्रि आदि का विचार कर स्नान व दान नही करता तो वह चिरकाल (कई वर्षो ) तक रोगी तथा दरिद्री हो जाता है