RAJESH VAKHARIA ; सुजय(नाम बदल दिया गया है) 28 वर्ष का है और 25 वर्षीयारेणु (नाम बदल दिया गया है) से अलग है | वह सॉफ्टवेर इंजिनियर है और मासिकएक लाख कमाता है, और उसकी रंजिशज़दापत्नी एक बैंक कर्मचारी हो कर 20000/- प्रतिमाह कमाती है | पर जब उसकी बीवी खर्चापानी के लिए 25000/- रूपयेमहीने मांगने न्यायालयपहुंची, तबन्यायालय के मध्यस्थों के द्वारा खूब समझाने के बावजूद, सुजय ने एक भीफूटी कौड़ी देने से मना कर दिया |
हालाँकि कई परंपरावादी लोग ये सोचते हैं की पत्नीका भरण-पोषणपति की ज़िम्मेदारी है, सुजय जैसे पुरुष इस विषय में पूरी जानकारी रखते हुए कहते हैं, “इस दुनिया में, जहाँ महिलावादी लिंग-भेद मिटाने का प्रचार करते हैं, पुरुषों और स्त्रियों को खुदकमाना चाहिए और अपनी-अपनी जीवनशैली के अनुसारखर्चा करना चाहिए | अगर एक पुरुष से यह उम्मीद रखी जाती है की वह अलग रहने वाली पत्नीऔरउसकी जीवनशैली के लिए गुज़ाराभत्ता देगा, तो यह पितृसत्ता का प्रतिक है |”
तब,क्यापरिवार न्यायालय केनिर्णय पितृसत्तालिखवायेगी या वेलिंग-समानता केसिधान्तों पर आधारित होंगे? यह तो पूर्णतया महिलावाद-विरोधी है, अगर पुरुषों से यह उम्मीद की जायकि वोकाम करने योग्य स्वावलंबी जवानस्त्रियों का खर्चा पानी उठाने वालीपुरुषत्व की पारंपरिक छवि को जीवित रखें |
“गुज़ाराभत्ता उस धन को कहते हैं जोएक पुरुष से उम्मीद की जाती है की वो अपनी रंजिशज़दा पत्नी को दे, वो जो की उसके लिए कुछ नहीं करती है | अगर 25 वर्षीयाअलग रहने वाली स्त्री को गुज़ाराभत्ता मिलना चाहिए, तब सोचने की बात येहै की 25 वर्षीया अविवाहितस्त्रियोंकागुज़ाराकौन करा रहा है? अगर एक जवान स्त्रीअलगकिये गए पतिके मासिक बैंकचेक के बिना गुज़ारा नहीं चला सकती है, तो आखिर भारतवर्ष में सभी अविवाहित महिलायें कैसेगुज़ारा कर रही हैं?” सिफ्फ(SIFF) अध्यक्ष राजेश वखारिया ने कहा |
उनके मुताबिक, “पत्नी को गुज़ारा-भत्ता देना सबसेबड़ापितृवाद है” |
“आखिर 6 महीने की शादी के अन्दर एक स्त्री ने एक पुरुष को ऐसा क्या दे दिया है कि उसे हर महीने उसको बीस हज़ार का चेक चिट्ठी से भेजना पड़े? ये किस प्रकार की लिंग-समानता है?” उन्होंनेपूछा |
“पितृसत्ता हरलिंग के लिए सख्त भूमिकायें निर्धारितकरती है | आज,पुरुषों और स्त्रियों को इन सख्त भूमिकाओ से मुक्त करने के लिए बढ़चढ़ करकोशिशें हों रही हैं | स्कूल की किताबों में भी बच्चों को यही सिखाया जा रहा है की इनभूमिकाओ को लेकरहमारी ऐसी सोच हमें बांध के राखी हुई है | बस थोड़े समय की बात है जब पुरुषों से की जाने वाली पितृवादी अपेक्षायें को वो भारणकर्ता बनें,ख़तम हो जाएँगी |” कॉनफिडेअर (Confidare) के विराग धुलिया ने बताया, एक संस्था जो पुरुषों की समस्याओं पर ध्यान देती है औरदिल्ली और बंगलौर मेंपुरुषों के लिए सामुदायिक केंद्र चलाती है |
“अक्सर, हम कई प्रतिष्ठितशक्सियत औरलोगों को पुरुषोंकी यह निंदा करते पाते हैं किपुरुषलैंगिकभूमिकाओ के बदलने के साथ साथ अपने आप को बदल नहींरहे हैं, और पुरातन पितृवादी भूमिकाओं में फसें हुए हैं | प्रासंगिक प्रश्न तो यह है की क्या पुरुष सही में विकसितहोने में अड़ंगा लगा रहे हैं या उन्हें जानभुझ कर पितृसत्ता में बांध कर रखा जा रहा है जबकि औरतों को आज़ादी दी जा रही है?” उन्होंनेपूछा |
यहबेहद दुर्भाग्यपूर्ण है की एक तरफ तो अभिनेता आमिर खान और कमला भसीन जैसे महिलावादी अति-प्रशंसनीय राय देते हैं, वहीँ दूसरी तरफ हमारा समाज आदमियों पर एक के बाद एक प्रतिबन्धलगा रहा है ताकि वो पितृसत्ता के आधीन रहें |
ऐसा लगता है कि की सिर्फ औरतें ही हैं, जिन्हें पितृसत्ता से छुटकारा मिलनाचाहिये, जबकिपुरुषों को आधुनिक और पितृवादी दोनों एक साथ होने की ज़रुरतहै | मतलब 16वी शताब्दी की मानसिकता रखने के लिए पुरुषों की निंदा करो और फिर 16वी शताब्दी की इच्छायें उन्ही पुरुषों पर थोपो |
सास-ससुरों देंजवान लड़कियों को गुज़ारा-भत्ता:
असल में, बेतुकेपन की सीमा तो यह है, की हाल ही में भारतीयविधिआयोग नेविधि मंत्री सदानंद गौड़ा को यह प्रस्ताव दिया है कि हिन्दू विवाह अधिनियम में सुधर कियाजाए ताकि, अगर पति मर गया या विकलांगहो गया, तोसास-ससुर कोस्त्रियों को गुज़ारा भत्ता देना पड़े | अतः, न्यायालय और विधि आयोग का मानना है कि न सिर्फ एक पुरुष की पारंपरिक ज़िम्मेदारीयहहै की वो अपनी जवान बीवी कादाता बने, बल्कि ये उसके बुढ्ढे माँ-बाप की भी ज़िम्मेदारी है कीवो 25 साल की पत्नीको धन दें |
“या तो भारतीय समाज गैर-पितृवादी लैंगिक-समानता की ओर आगे बढ़ता है या वो पारंपरिक पितृसत्ता के आधीन रहता है | उसे दोनों दिशायों में खीचना और फिर पुरुषों को दोष देना तो बिलकुल बेतुका है, जबअन्दर तक फ़ैल चुकीपितृसत्ता कायम है |” सिफ्फ (SIFF) के संस्थापक अनिल कुमार कहते हैं |
“अगरएक जवान लड़का काम कर के अपनी जीविका कमा सकता है, तो एक जवान लड़की भी काम कर के अपनी जीवनशैली का निर्वाहकरसकती है | इसेहर परिवार न्यायालय का प्रथम सिधांत होना ही होगा, न की यहपितृवादी सोच कि 25 साल की लड़की अभावग्रस्त हो जाती है जब तक की उसका पति उसे कुछ देता नहीं है |” उन्होंनेकहा |
“ज्यादातर पश्चिमी देशों के परिवार न्यायालयों नेस्त्री को गुज़ाराभत्ता देने की इसधारणा को छोड़ दिया है | अब समय आ गया है कि भारतीयसरकार और न्यायालय भी ऐसीपारंपरिकपितृवादी कार्यप्रणालीको बंद कर दें और उसकी जगह महिलायों को काम कर के अपनी जीवनशैली का निर्वाह करने को कहें |” उन्होंनेकहा |
संतानपालन अलग है गुज़ारे भत्ते से:
यहाँ, संतान पालन के लिए दिए गए धन को स्त्री को दिए जाने वाले गुज़ारे भत्ते या निर्वाहव्यय सेउलझाना नहीं चाहिए | अगर शादी के बाहर या लिव-इन (साथ में रहना) रिश्ते से कोई बच्चा पैदा होता है, तो यह जैविकमाँ-बापदोनोंकीज़िम्मेदारीहैकि बच्चे की देख भाल की जाए और पालन हेतु व्यय औरपरवरिश को बराबरी मेंबांटाजाय | यहाँ भी, हालाँकि आधुनिक पुरुष से यह उम्मीद की जाती है की वो डाइपर बदले और बच्चे का पालन पोषण करे, परउसीपुरुष को अक्सर यह भी कहा जाता है कि पितृवादी बनो और तलाख के दौरान बच्चे को भूल जाओ, इस बिना पर कि बच्चों का भरण पोषण तो सिर्फ औरतें ही कर सकती हैं, मर्द नहीं |
ज्यादातर अलग रहने वालेपुरुषों को अपने बच्चे देखने के लिएमहीनोंयहाँतक की वर्षों के लिए रोका जाता है | अक्सर इन जवान पुरुषों की व्यथा को परिवार न्यायालय में नज़रअंदाज कर दिया जाता है | जहाँ महिलायें अक्सरसंतान पालन के लिए पिता से मोटी रकम मांगती हैं,वहीँकभी ही पिता या सास-ससुर को बच्चे से मिलने या समय बिताने का मौका देती हैं | ज्यादातरपिताओं को तो अपने बच्चे से स्कूल तकमें मिलने से वंचित रखा जाता है |