डॉ विवेक आर्य : न्यूज़ीलैण्ड से समाचार मिला कि एक श्वेत मूल व्यक्ति ने मस्जिद में घुसकर जुम्मे की नमाज़ के दी दोपहर को गोलीबारी की जिसमें 49 व्यक्ति मारे गए एवं अनेक घायल हुए हैं। इस व्यक्ति ने इस हमले को फेसबुक से लाइव दिखाया। इस व्यक्ति की सोशल मीडिया को पढ़ा जाये तो यह पिछले कई दिनों से मुस्लिम प्रवासी शरणार्थियों की यूरोप में बढ़ रही जनसँख्या से विक्षुब्ध था। हमले से पहले हमलावर ने 74 पृष्ठों के पत्र में मुस्लिम शरणार्थी विरोधी बातें लिखी थी और उसे सोशल मीडिया में प्रकाशित कर दिया। बाद में हमलावर ने आत्मसमर्पण कर दिया। इस हमले को लेकर अनेक प्रतिक्रिया मुझे मीडिया में देखने को मिली। न्यूज़ीलैण्ड की प्रधानमंत्री ने इसे उनके देश के इतिहास का सबसे काला दिन बताया। सोशल मीडिया में मुस्लिम समाज के लोग इस घटना की तीव्र भ्रत्सना करते दिख रहे है। उनके वक्तव्य ऐसे है जैसे चिरकाल से पीड़ित किसी जाति विशेष के होते हैं, जो समाज से सहानभूति बटोरने के लिए प्रयासरत हो। उनका उद्देश्य विश्व के प्राय: सभी बुद्धिजीवीयों की सोच को प्रभावित करना प्रतीत हो रहा हैं। मगर एक विशेष पहलु पर मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ। बहुत कम लोगों ने इस विषय पर विचार किया है कि एक सामान्य पृष्ठभूमि के श्वेत व्यक्ति ने ऐसा कठोर कदम क्यों उठाया? आखिर क्या कारण है जो उसकी सोच में ऐसी विकृतियां पनपी कि उसने हिंसा का मार्ग अपनाया। जिस मार्ग को अपनाने वाले का सभ्य समाज में कोई स्थान नहीं हैं। इसके मूल कारण को जानने के लिए हमें कुछ आकंड़ों को जानने की आवश्यकता हैं।
2005 में समाजशास्त्री डा. पीटर हैमंड ने गहरे शोध के बाद इस्लाम धर्म के मानने वालों की दुनियाभर में प्रवृत्ति पर एक पुस्तक लिखी, जिसका शीर्षक है ‘स्लेवरी, टैररिज्म एंड इस्लाम-द हिस्टोरिकल रूट्स एंड कंटेम्पररी थ्रैट’। इसके साथ ही ‘द हज’के लेखक लियोन यूरिस ने भी इस विषय पर अपनी पुस्तक में विस्तार से प्रकाश डाला है। जो तथ्य निकल करआए हैं, वे न सिर्फ चौंकाने वाले हैं, बल्कि चिंताजनक हैं।
उपरोक्त शोध ग्रंथों के अनुसार जब तक मुसलमानों की जनसंख्या किसी देश-प्रदेश क्षेत्र में लगभग 2 प्रतिशत के आसपास होती है, तब वे एकदम शांतिप्रिय, कानूनपसंद अल्पसंख्यक बन कर रहते हैं और किसी को विशेष शिकायत का मौका नहीं देते। जैसे अमरीका में वे (0.6 प्रतिशत) हैं, आस्ट्रेलिया में 1.5, कनाडा में 1.9, चीन में 1.8, इटली में 1.5 और नॉर्वे में मुसलमानों की संख्या 1.8 प्रतिशत है। इसलिए यहां मुसलमानों से किसी को कोई परेशानी नहीं है।जब मुसलमानों की जनसंख्या 2 से 5 प्रतिशत के बीच तक पहुंच जाती है, तब वे अन्य धर्मावलंबियों में अपना धर्मप्रचार शुरू कर देते हैं। जैसा कि डेनमार्क, जर्मनी, ब्रिटेन, स्पेन और थाईलैंड में जहां क्रमश: 2, 3.7, 2.7, 4 और 4.6 प्रतिशत मुसलमान हैं।
जब मुसलमानों की जनसंख्या किसी देश या क्षेत्र में 5 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है, तब वे अपने अनुपात के हिसाब से अन्य धर्मावलंबियों पर दबाव बढ़ाने लगते हैं और अपना प्रभाव जमाने की कोशिश करने लगते हैं। उदाहरण के लिए वे सरकारों और शॉपिंग मॉल पर ‘हलाल’ का मांस रखने का दबाव बनाने लगते हैं, वे कहते हैं कि ‘हलाल’ का मांस न खाने से उनकी धार्मिक मान्यताएं प्रभावित होती हैं। इस कदम से कई पश्चिमी देशों में खाद्य वस्तुओं के बाजार में मुसलमानों की तगड़ी पैठ बन गई है। उन्होंने कई देशों के सुपरमार्कीट के मालिकों पर दबाव डालकर उनके यहां ‘हलाल’ का मांस रखने को बाध्य किया। दुकानदार भी धंधे को देखते हुए उनका कहा मान लेते हैं।इस तरह अधिक जनसंख्या होने का फैक्टर यहां से मजबूत होना शुरू हो जाता है, जिन देशों में ऐसा हो चुका है, वे फ्रांस, फिलीपींस, स्वीडन, स्विट्जरलैंड, नीदरलैंड, त्रिनिदाद और टोबैगो हैं। इन देशों में मुसलमानों की संख्या क्रमश: 5 से 8 फीसदी तक है। इस स्थिति पर पहुंचकर मुसलमान उन देशों की सरकारों पर यह दबाव बनाने लगते हैं कि उन्हें उनके क्षेत्रों में शरीयत कानून (इस्लामिक कानून) के मुताबिक चलने दिया जाए। दरअसल, उनका अंतिम लक्ष्य तो यही है कि समूचा विश्व शरीयत कानून के हिसाब से चले।
जब मुस्लिम जनसंख्या किसी देश में 10 प्रतिशत से अधिक हो जाती है, तब वे उस देश, प्रदेश, राज्य, क्षेत्र विशेष में कानून-व्यवस्था के लिए परेशानी पैदा करना शुरू कर देते हैं, शिकायतें करना शुरू कर देते हैं, उनकी ‘आॢथक परिस्थिति’ का रोना लेकर बैठ जाते हैं, छोटी-छोटी बातों को सहिष्णुता से लेने की बजाय दंगे, तोड़-फोड़ आदि पर उतर आते हैं, चाहे वह फ्रांस के दंगे हों डेनमार्क का कार्टून विवाद हो या फिर एम्सटर्डम में कारों का जलाना हो, हरेक विवादको समझबूझ, बातचीत से खत्म करने की बजाय खामख्वाह और गहरा किया जाता है। ऐसा गुयाना (मुसलमान 10 प्रतिशत), इसराईल (16 प्रतिशत), केन्या (11 प्रतिशत), रूस (15 प्रतिशत) में हो चुका है।
जब किसी क्षेत्र में मुसलमानों की संख्या 20 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है तब विभिन्न ‘सैनिक शाखाएं’ जेहाद के नारे लगाने लगती हैं, असहिष्णुता और धार्मिक हत्याओं का दौर शुरू हो जाता है, जैसा इथियोपिया (मुसलमान 32.8 प्रतिशत) और भारत (मुसलमान 22 प्रतिशत) में अक्सर देखा जाता है। मुसलमानों की जनसंख्या के 40 प्रतिशत के स्तर से ऊपर पहुंच जाने पर बड़ी संख्या में सामूहिक हत्याएं, आतंकवादी कार्रवाइयां आदि चलने लगती हैं। जैसा बोस्निया (मुसलमान 40 प्रतिशत), चाड (मुसलमान 54.2 प्रतिशत) और लेबनान (मुसलमान 59 प्रतिशत) में देखा गया है। शोधकत्र्ता और लेखक डा. पीटर हैमंड बताते हैं कि जब किसी देश में मुसलमानों की जनसंख्या 60 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है, तब अन्य धर्मावलंबियों का ‘जातीय सफाया’ शुरू किया जाता है (उदाहरण भारत का कश्मीर), जबरिया मुस्लिम बनाना, अन्य धर्मों के धार्मिक स्थल तोडऩा, जजिया जैसा कोई अन्य कर वसूलना आदि किया जाता है। जैसे अल्बानिया (मुसलमान 70 प्रतिशत), कतर (मुसलमान 78 प्रतिशत) व सूडान (मुसलमान 75 प्रतिशत) में देखा गया है।किसी देश में जब मुसलमान बाकी आबादी का 80 प्रतिशत हो जाते हैं, तो उस देश में सत्ता या शासन प्रायोजित जातीय सफाई की जाती है। अन्य धर्मों के अल्पसंख्यकों को उनके मूल नागरिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता है। सभी प्रकार के हथकंडे अपनाकर जनसंख्या को 100 प्रतिशत तक ले जाने का लक्ष्य रखा जाता है। जैसे बंगलादेश (मुसलमान 83 प्रतिशत), मिस्र (90 प्रतिशत), गाजापट्टी (98 प्रतिशत), ईरान (98 प्रतिशत), ईराक (97 प्रतिशत), जोर्डन (93 प्रतिशत), मोरक्को (98 प्रतिशत), पाकिस्तान (97 प्रतिशत), सीरिया (90 प्रतिशत) व संयुक्त अरब अमीरात (96 प्रतिशत) में देखा जा रहा है।
पिछले दो दशकों में यूरोप के प्राय: सभी देशों में मुस्लिम जनसंख्या में भारी वृद्धि हुई हैं। सीरिया, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, इराक, बांग्लादेश,अफ्रीका एवं खाड़ी देशों से बड़ी संख्या में मुसलमानों ने अपने देश को छोड़कर यूरोप, कनाडा, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया आदि में विस्थापन किया हैं। सीमाएं मिलने के कारण सबसे अधिक विस्थापन यूरोपियन देशों जैसे फ्रांस, जर्मनी आदि में हुआ हैं। अनेक शहरों में अनेक बस्तियां मुसलमानों की बस गई हैं। जहाँ पर दाढ़ी बढ़ाये और गोल टोपी लगाए युवा एवं बुर्का पहने औरतें सामान्य रूप से दिखती हैं। साथ ही साथ में कुछ ऐसे समाचार भी पढ़ने को मिल रहे हैं। जैसे
-2004 में मेड्रिड ट्रैन विस्फोट जिसमें 193 नागरिक मारे गए। -2005 में लंदन धमाकों में 52 नागरिक मारे गए। -2015 में पेरिस हमले में 130 नागरिक मारे गए। -14 जुलाई 2016 को भीड़ पर एक आतंकी ने ट्रक दौड़ा दिया जिसमें 86 निर्दोष लोगों की जान गई। -2016 में ब्रुसल्स हमले में 32 नागरिक मारे गए। -2017 में मेनचेस्टर हमले में 22 नागरिक मारे गए।
इसके अतिरिक्त चोरी, डैकेती, लूटपाट, अपहरण, बलात्कार आदि कुल घटनाओं का 40% मुस्लिम शरणार्थियों द्वारा किये गए अपराधों से सम्बंधित था। ध्यान देने योग्य बात है कि इन अपराधों को करने वाले इन घटनाओं को गैर-मुसलमानों के विरुद्ध जिहाद के रूप में समर्थन करते दिखे। ब्रिटेन में पाकिस्तानी मूल के कुछ इस्लामिक गिरोह श्वेत छोटी बच्चियों को वेश्यावृति के धंधे में धकेलते भी मिले। मुहम्मद के कार्टून को लेकर चार्ली हेब्दों की घटना से सारा विश्व सकते में आ गया था। यह छोटी सी सूची है। ऐसे अपराधों को देख, सुन और विश्लेषण करने से यूरोप में रहने वाली श्वेत आबादी की मानसिकता का प्रभावित होना कोई बड़ी बात नहीं हैं। जिन शरणार्थियों को उन्होंने शरण दी वही उनके देश में आकर अपराध करते हैं। ऐसा करने से उनकी सोच शरणार्थियों के प्रति नकारात्मक बनना कोई असंभव बात नहीं हैं। ऊपर से इन घटनाओं को अंजाम देने वाले और उनके समर्थक इसे इस्लामिक साम्राज्यवाद के प्रचार-प्रसार के लिए जायज़ ठहराते भी मिले। मेरे विचार से न्यूज़ीलैण्ड की घटना उसी नकारात्मक हो रही मानसिकता का ही परिणाम हैं। भविष्य में यही नकारात्मकता विश्व को तीसरे विश्वयुद्ध में संलिप्त कर ले तो उसका परिणाम बहुत बुरा होगा। इसे रोकने के लिए वैश्विक स्तर पर बुद्धिजीवियों को गंभीरता से चिंतन और संवाद कर कुछ ठोस करने के तुरंत आवश्यकता हैं। यही मेरा मत हैं।