आपने पितृसत्ता(patriarchy)को महिलाओं पर अनेक तरह की पाबन्दी लगाने और नुक्सान पहुँचाने के बारे में शायद सुना होगा|परन्तु अभी पुरुषों के अधिकार में काम करने वाले कार्यकर्ता भी पितृसत्ता के खिलाफ अपनी आवाज़ उठा रहे हैं|उकना मानना यह है कि आज कल के कोर्ट महिलाओं को आधुनिक विशेषाधिकार तो दे चुके हैं,परन्तु पुरुषों को पितृसत्तात्मक(patriarchal)भू
हाल ही मेंसुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि पति को पत्नी के रखरखाव के भुगतान के लिए व्यवस्था करनी होगी भले ही उसके पास कोई नौकरी नहीं हो| “कभी कभी,दलील(बैल)वास्तव में पति कहता है कि उसके पास पत्नी के रखरहव के लिया कोई साधन नहीं है,क्योंकि उसकी नौकरी चली गइ है या उसका व्यवसाय अच्छी तरह से नहीं चल रहा है|यह केवल बुरे बहाने है जिन्हे कानून स्वीआर नहीं करता|”बेंच ने कहा।
सुप्रीम कोर्ट को समझना चाईए कि भारत के अधिकतर पुरुषों के पास सरकारी नौकरी करने वालों की तरह स्थायी नौकरी नहीं है,जिसमे नियमित रूप में वतन मिलता हो|अदालतों का चक्कर काटके–काटके पुरुषों की नौकरीआं चली जाती है|उसके बाद वह जो काम लेते है,उसमे उनकी पहले से काम कमाई होती है|
भारतीय न्यायपालिका अपनी इस सोच में बहुत पारंपरिक जिसके अनुसार पुरुष का कर्त्तव्य प्रदाता का है,और महिला का कर्त्तव्य घर पे रहना|हमने अदालतों को कभी यह पूछते हुए नहीं देखा कि एक औरत बहार जाए,अपनी जीविका खुद कमाए|
धारा ४९८अ(498a)के लिए नौकरी खोते पुरुष
अब एक दिन,अक्सर महिलाएं अपने पति और ससुराल वालों को परेशान करने और पैसे निकलवाने के लिए खंड498a (४९८अ)जैसे आपराधिक कानूनों का दुरूपयोग करती हैं|अदालतें उसे महीनों या वर्षों तक ज़मानत नहीं देती है,जिसके कारण उसे और परिवार जनों को वकीलों,पुलिस आदि के आगे–पीछे घुमते हुए खूब परेशानियां उठानी पढ़ती हैं, |अंत में,वह अपनी ज़मानत करने के चक्कर में अपनी सारी बचत और नौकरी भी खो देता है|न्यायालय इस पहलु पर कभी भी विचार नहीं करते और उसे पत्नी के रखरखाव का भुगतान करने का आदेश देता हैं यद्यपि वह न्यायपालिका के काम करने के तरीके की वझे से बेरोजगार है|
“खंड498aके दुरुपयोग को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश के निचले न्यायपालिका के बहरे कानों पर गिर गया है। अब,अदालतों एक मात्र झगड़ा या पत्नी के साथ मतभेद के लिए हत्या के प्रयास मामला पुरूषों पर दर्ज कर रही है|” ,राजेश वखारिया,सेव इंडियन फैमिली फाउंडेशन के अध्यक्ष(SIFF)कहते हैं।
वह कहते हैं कि कई ऐसे उदहारण है जिसमे आदमी को देश एक छोर से दूसरे छोर ज़मानत की सुनवाई में भाग लेने के लिए १० बार आने–जाने की ज़रूरत पढ़ी|इन सब का कारन यह था की अदालतों ने ज़मानत देने का फैसला स्थगित कर दिया था|
सुप्रीम कोर्ट को यह बात सुनिश्चित करनी चाहिए जमानत की सुनवाई के स्थगन द्वारा उत्पीड़न की वजह से नौकरियों ना चली जाए|
सुप्रीम कोर्ट को पहले जमीनी वास्तविकताओं और अदालतों के चक्कर काटते गरीब,मध्यम वर्ग के लोगों की परिशानियों की ओऱ ध्यान देना चाइये नाकि सिर्फ परंपरागत कर्तव्यों की याद दिलाने की बजाये|
कानून की भी अत्यंत पारम्परिक व्याख्या
लाखों महिलाएं आज परंपरागत कर्तव्यों से मुक्त होना चाहती है और अदालतों नें इस आधुनिक सोच को स्वीकार करना शुरू कर दिया है। परन्तु रखरखाव कानूनों की सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या आज भी अत्यंत पारंपरिक और पितृसत्तात्मक है। आज के आधुनिक युग में जब एक ओर महिलाओं के विकल्प और स्वतंत्रता के बारे में बात की जा रही है वहीँ अदालतों का पुरुषों से अपने–अपने पारंपरिक कर्तव्यों को पूरा करने की उम्मीद रखना दोहरा मापदंड है|
”न्यायपालिका को पुरुषों को पारंपरिक कर्तव्य से पुरुषों को मुक्त करना होगा अगर वोह महिलाओं की आकांक्षाओं के प्रति गैर–परंपरागत दृष्टिकोण रख रही है|महिलाओं के लिए आधुनिक विशेषाधिकार देना,जबकि पुरुषों को पारंपरिक उम्मीदों से बंधे हैं–ये दोहरे मापदंड हैं।“,ज्योति तिवारी,सेव इंडियन फैमिली फाउंडेशन के प्रवक्ता कहती हैं।
हाल ही में,भारत के विधि आयोग ने कानून मंत्रालय को एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया जिसमे यह सुझाव था कि हिंदू विवाह अधिनियम में संशोधन किया जाये कि यदि पति विकलांग है या पत्नी को बनाए रखने के लिए कमाने में असमर्थ है,तो तलाक के दौरान युवा महिला के रखरखाव उपलब्ध कराने का दैत्व्य वृद्ध ससुराल वाले उठाये|
“पुरुषों समाज पर सभी पारंपरिक बोझ क्यों डाले जाये जबकि,समाज और न्यायपालिका महिलाओं को आधुनिक विशेषाधिकार देने में लगी है?”,ज्योति तिवारी पूछती है|
“अधिकांश पश्चिमी देशों में परिवार न्यायालय एकमुश्त महिलाओं के लिए रखरखाव की अवधारणा को ख़ारिज कर चुकी है|यह सही समय है,भारतीय सरकारों और परिवार अदालतें पारंपरिक पितृसत्तात्मक सिद्धांतों का अभ्यास करना बंद करें|पुरुषों आधुनिक बनने और पितृसत्तात्मक उम्मीदों को पूरा करने के दबाव से बहुत परेशान है| ”कहती है ज्योति|