By अरुण कान्त शुक्ला “आदित्य” : मेरा बचपन का समय और युवावस्था तक पहुँचने की अवधि वह दौर था , जब एक मध्यमवर्गीय परिवार में कम से कम एक अखबार के साथ एक पारिवारिक साप्ताहिक पत्रिका के साथ बच्चों के लिये कम से कम एक पत्रिका अवश्य ली जाती थी | बचपन में करीब तेरह चौदह वर्ष तक की उम्र तक हर साल की गर्मी की छुट्टियाँ नाना नानी के साथ ही बिताया करते थे , जहाँ कल्याण के अनेकों अंक जिल्द बंद थे और सारी छुट्टियाँ कृष्ण , अर्जुन , कर्ण , और महाभारत की कहानियां पढते बीत जाया करती थीं | वैसे पत्रिकाओं के पढने की सही शुरुवात चंदामामा से हुई थी ,जो घर में नियमित आया करती थी | एक अंक के लिये एक माह का इंतजार कितना बेसब्र बना सिया करता था कि हाथ में पडते ही आधे घंटे के भीतर पूरी चंदामामा खत्म हो जाती थी और फिर उन्ही कहानियों को और पुराने अंकों को पढते रहना ही काम रह जाता था | उसके बाद आया पराग का युग , जिससे , मेरी जानकारी में बाल साहित्य में एक क्रांतिकारी परिवर्तन का दौर शुरू हुआ |राजा –रानी , राक्षस , देवी –देवताओं और बेताल से आगे का युग | वैसे स्थानीय अखबार में उस समय के मृत्युंजय को भी पढने का बड़ा चाव रहता था | और फिर मेरे पन्द्रह बरस का होते होते “नंदन” शुरू हुआ , जिसमें मनोरंजन के अलावा शिक्षा के तत्व को भी डालने की शुरुवात हुई | उसी “नंदन” के जरिये पहली बार स्कूली शिक्षा के बाहर के किसी साहित्यकार को जाना | कन्हैय्यालाल नंदन उसमें बच्चों के नाम से एक चिठ्ठी लिखा करते थे | अक्सर वे चिठ्ठियां बहुत शिक्षाप्रद हुआ करतीं थीं | कहते हैं , कहते क्या हैं , में इसे मानता हूँ कि स्कूल की शिक्षा किसी को भी शायद असीमित योग्यता प्रदान कर सकती है , पर , जहाँ तक मानस पर अमिट प्रभाव छोडने की बात है , वह तो स्कूली और कालेजी शिक्षा से इतर जगहों से ही मिलती है | कन्हैय्यालाल नंदन ने अपने साहित्य जीवन में अनेकों बच्चों के लिये इस पुण्य काम को किया होगा , जिनमें से अनेक बच्चे इसे महसूस ही नहीं कर पाए होंगे | एक ऐसे साहित्यकार को मुझ जैसे अनाम और अकिंचन की भावभरी श्रद्धांजली |
wah kya khub anubhav saanjhe kiye…jari rkho yaar,kalam ke swaarpar dyan rakhna kalam hai ik talwar….par mat darna apko alert krta hai rk vikrma sharma