पंचनद शोध संस्थान, चण्डीगढ़ द्वारा प्रकाशित पुस्तक “प्राचीन ग्रन्थों में अनुसूचित जाति के महापुरुष ” से लिए गए लेख द्वारा रामायण- महाकाव्य ग्रन्थानुसार , अनुसूचित जाति के महापुरुषो का वर्णन पढ़ कर देश में फेली झूटी कहानियो का पर्दाफाश होता हे
महर्षि बाल्मीकि: बाल्मीकि के जन्म के विषय में विद्वानों में मतभिन्नता पायी जाती है। कुछ विद्वान उन्हें ब्राह्मण की सन्तान मानते है जिन्हें डाकुओं ने उठाकर अपने साथ रखा और पालन पोषण किया। बडे़ होकर वह डाकुओं के संग रहने के कारण उन जैसे ही हो गये। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि उनका जन्म शरभंगी शूद्र परिवार में हुआ था जो नीच से नीच कर्म करते थे और कुछ भी खा पी लेते थे। यदि हम जन्मगत वर्णव्यवस्था को एक बार एक तरफ रखकर विचार करें तो कर्मगत वर्णव्यवस्था के अंतर्गत उनका जन्म कहीं भी हुआ हो लेकिन उनका कर्म शूद्र परायज्ञ ही था। राहगिरी करना, मार्ग में आते-जाते लोगों को लूटना, मारना आदि कर्म उनका व्यवसाय बन गया था।
एक दिन दैव योग से सप्तर्षि गण उस मार्ग से गुजर रहे थे। स्वभाव के अनुसार उन्होंने इन ऋषियों को पकड़ लिया और मार डालने की धमकी देकर लूटपाट करने लगे। दयालू ऋषियों ने इन्हें समझाया और कहा यह पाप आप किसके लिए करते हो? उत्तर था-परिवार के लिए। ऋषियों ने कहा – परिवार के सदस्यों से पूछों की वे इस पाप के भागीदार बनेंगे? बाल्मीकि का पूर्व नाम रत्नाकर था तब रत्नाकर अपने परिवार में जाकर ऋषियों के प्रष्न का उत्तर पूछते हैं तब परिवार के सदस्यों ने मना कर दिया कि हम तुम्हारे पाप के भागीदार नहीं बनेंगे। तब रत्नाकर ने ऋषियों से क्षमा प्रार्थना की और ऋषियों ने रत्नाकर को ‘‘राम-राम’’ जपने का मन्त्र दिया। कुछ विद्वान इसी घटना को ऋषियों के साथ न जोड़कर केवल नारदमुनि के साथ जोड़ते है शेष सब वहीं ज्यों का त्यों है।
कुछ विद्वानों की मान्यता है कि वाल्मीकि का जन्म महर्षि कष्यप और उनकी पत्नी अदिति के नवम् पुत्र वरूण जिन्हें प्रचेता आदित्य भी कहते है, के यहां हुआ था। इनकी माता का नाम चर्षणी था और इनके भाई को भृगु कहते थे। इसलिए इन्हें प्रचेतस भी कहते हैं। मनुस्मृति के अनुसार वषिष्ठ, पुलस्त्य, भृगु इनके भाई थे।
स्वयं को वाल्मीकि अपने काव्य गं्रथ ‘रामायण’ में प्रचेता के पुत्र मानते हैं। एक स्थान पर यह भी वर्णन है कि ब्राह्मण कुल में इस बालक का जन्म हुआ और एक निःसंतान भीलनी ने इसे चुराकर पालन पोषण किया और नाम रत्नाकर रखा। उस भीलनी परिवार का व्यवसाय व्याध जैसा आखेट करना, चोरी करना, डकैती डालना व राहजनों से लूटपाट करना था।47
अनेक मतभिन्नता होते हुए भी यह मान्यता स्पष्ट हो पायी है कि उन्होंने नारदमुनि अथवा ऋषियों के आषीर्वाद से दिये गये मन्त्र ‘‘राम-राम’’ को तमसा नदी के किनारे जपना प्रारम्भ किया और अनपढ़ होने के कारण से उस मन्त्र को ‘मरा-मरा’ जपने लगे।
एक दिन तमसा नदी तट पर क्रौंच पक्षी अथवा हंस पक्षियों का जोड़ा अपनी प्रेम लीला में मग्न था तभी अचानक किसी व्याध ने नर पक्षी को अपने बाण से मार डाला और मादा पक्षी उसे देख विलाप करने लगी। इस दृष्य को देखकर रत्नाकर द्रवित हो उठे और दैवयोग से इनके मुख से अनुस्टुपछन्द संस्कृत में अनायास ही निकल पड़ा –
‘‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाष्वतीः समाः।
यत् क्रौंच्चमिथुनादेकमवधीः काम मोहितम्।।
यह छन्द प्रथम महाकाव्य का प्रथम छन्द माना जाता है। रत्नाकर ऐसे द्रवित हुए कि उन्होंने तप करना प्रारम्भ किया। तप साधना में इतने तल्लीन हो गये कि इन्हें अपने शरीर का भी भान नहीं रहा और दीमकों ने इनके शरीर को मिट्टी के ढेर में दबा लिया। जब अपनी समाधि से रत्नाकर बाहर निकले तब वाल्मीक (दीमक की मिट्टी का ढेर) से निकलने के कारण वाल्मीकि कहलाये और भगवान श्रीराम के जीवन की गाथा अपने दिव्यचक्षुओं से देखकर एक काव्य के रूप में रच डाली जिसे वाल्मीकि रामायण कहा जाता है। ब्रह्माजी ने इन्हें आदि कवि होने का वरदान दिया। भले ही इन्होंने इतने बडे़ महाकाव्य की रचना की, भले ही सभी वर्णों के लोग इन्हें पूज्य मानते रहे हों लेकिन सर्वाधिक पूज्य भगवान के रूप में मान्यता इन्हें शूद्र वर्ण ने ही दी। वर्तमान में भी शूद्रों में से ही एक विषेष अनुसूचित जाति ‘भंगी’ नामक इनके मन्दिर बनाकर इनकी पूजा करती है। इस जाति को अब इनके ही नाम से वाल्मीकि कहा जाता है इसलिए आदि कवि महर्षि वाल्मीकि अनुसूचित जाति के प्राचीन महापुरूष हैं।
केवट – वाल्मीकि रामायण में केवट का प्रसंग भले ही बहुत छोटा है। किन्तु जनमानस के मर्म को छूता है। केवट शूद्र कुल में उत्पन्न एक ऐसे मल्लाह थे जो गंगा नदी को पार कराने के लिए एक नाविक का व्यवसाय करते थे। वर्तमान संवैधानिक अनुसूचित जाति की उत्तरप्रदेष सूची में मल्लाह (केवट) जाति का भी उल्लेख है।
वनवास गमन के समय जब श्रीराम अपनी भार्या सीता और भाई लक्ष्मण के साथ गंगा तट पर पहुंचते हैं तब एक नाविक को देखते हैं और उसके निकट पहुंचकर उससे नाव द्वारा गंगा पार कराने का अनुरोध करते हैं तब केवट उनसे एक शर्त रखते हैं कि पहले आप चरण धोने देंगे तब मैं नौका से गंगा पार कराऊंगा। केवट शूद्र होते हुए भी तात्विक विद्वान थे, उन्हें ज्ञात था कि किस प्रकार श्रीराम के चरणों के स्पर्ष से पाषाण जनित अहिल्या का स्त्री रूप में उद्धार हुआ था। केवट के मन में दो बातें अन्तर्द्वन्द कर रही थी और दोनों में वह अपना फायदा देख रहे थे। श्रीराम के चरणों के स्पर्ष से पाषाण अपना रूप बदल सकता है तो मेरी नौका का क्या होगा, वह तो मेरी आजीविका का साधन है उसे भी सुरक्षित रखना है और दूसरा तार्किक मन कह रहा था कि जब चरणों के स्पर्ष से ऐसा हुआ है तो इन पर कोई न कोई भगवत् कृपा है तब इनके चरण धोकर और उस पवित्र जल को पीकर मैं भी इस भवसागर से तर जाऊंगा अतः मेरा भी उद्धार हो जायेगा अथवा मेरे जीवन के कष्ट सब दूर हो जायेंगे। श्रीराम ने केवट की शर्त स्वीकार की और प्रसंगानुसार वैसा ही हुआ। गंगा पार करके श्रीराम ने केवट से शर्त की मनोभावना को जाना और मित्रवत् उन्हें अपने गले से लगा लिया। वनवास पूर्ण करके श्रीराम अपने मित्रवत् भक्त से मिलना नहीं भूले। केवट भले ही कोई महापुरूष नहीं थे किन्तु सरल हृदय व निष्चल भाव वाले केवट किसी महापुरूष से कम भी नहीं थे। जब तक श्रीराम की गाथा दुनिया में रहेगी, केवट को भी स्मरण किया जाता रहेगा।
शबरी – ‘षबरी’ का उल्लेख ‘रामायण’ में श्रीराम के वन गमन के समय मिलता है। दण्डकारण्य में हजारों ऋषि मुनि तपस्या किया करते थे। दण्डकारण्य में शबरी महर्षि मतंग के आश्रम में आश्रय लेकर रहती थी। वह अपने पिता के घर को त्यागकर आश्रम में आयी थी। शबरी का वास्तविक नाम ‘श्रमणा’ था और भील जाति से संबंध रखती थी। शबरी का पिता भीलों का राजा था। शबरी का विवाह एक ऐसे भील कुमार से तय हुआ था जो बड़ा क्रूर था। विवाह के समारोह में अनेक पषुओं को बलि के लिए इकट्ठा किया गया था। शबरी (श्रमणा) सोचने लगी यह कैसा विवाह उत्सव है जिसमें इतने प्राणियों का संहार होगा। इससे तो विवाह न करना ही अच्छा है और वह निष्चय कर रात्रि में घर से निकल पड़ी। सारी रात्रि वनों में भटकते हुए महर्षि मतंग के आश्रम में पहुंची। मतंग ऋषि ने उसे आश्रय दिया, उन्होंने उसे जप करने का गुरु मन्त्र दिया। भीलों ने एवं दण्डकारण्य के जनसमुदायों ने महर्षि का बहिष्कार कर दिया किन्तु महर्षि ने शबरी का त्याग नहीं किया। शबरी से कहा – ‘बेटी! धैर्य से कष्ट सहन करते हुए साधना में लगे रहना। एक दिन भविष्य में तेरी कुटिया में भगवान श्रीराम अवष्य पधारेंगे। प्रभु की दृष्टि में कोई दीन-हीन और अस्पृष्य नहीं है। वे तो भाव के भूखे हैं। बाद में महर्षि मतंग की जीवन लीला समाप्त हो गयी।
शबरी प्रतिदिन अपनी कुटिया को साफ-सुथरा करके रखती थी और वन से फल-फूल एकत्रित करके रखती थी। पता नहीं, कब श्रीराम कुटिया में आ जायें। शबरी बूढ़ी हो चली। ‘‘प्रभु आयेंगे’’ गुरूदेव की यह वाणी उसके कानों में गूंजती रहती थी और कर्मकाण्डी ब्राह्मणों ऋषियों से अत्याचार सहते हुए साधना में लगी रहती, आखिर शबरी की प्रतीक्षा पूर्ण हुई। श्रीराम, भ्राता लक्ष्मण के साथ सीता की खोज करते हुए शबरी की कुटिया में आये। देह की सुध भूलकर शबरी ने अपने अश्रुओं से प्रभु के चरण धोये और उन्हें आसन पर बिठाया। फलों की टोकरी उनके सामने रखकर स्नेह सक्त वाणी में बोली ‘‘प्रभु मैं आपको अपने हाथों से फल खिलाऊंगी। खाओगे न भीलनी के हाथों के फल? वैसे तो नारी जाति ही अक्षम है और मैं तो अत्यन्त, मूढ़ और गँवार हूं।’’ यह कहते-कहते शबरी की वाणी रूकती और आँखों से आंसू छलक पड़ते। ‘‘प्रभु! मैं तो आपकी प्रतीक्षा में ही जीवित हूं आपके दर्षनों की अभिलाषी मेरी इच्छा अब पूर्ण हुई। बडे़ चाव से शबरी के हाथ से श्रीराम ने वन के बेर-फल खाये। शबरी के भक्ति भाव को देखकर श्रीराम का हृदय द्रवित हो गया। शबरी की इस भक्ति को बाबा तुलसीदास ने नवदा भक्ति कहा है। इससे बड़ी भक्तिनी त्रेता युग में शायद ही कोई अन्य हुई हो। श्रीराम को सीता की खोज का मार्ग सुग्रीव मैत्री बताकर शबरी स्वयं को योगाग्नि में भस्म करके सदा के लिए श्रीराम के चरणों में लीन हो गई और मोक्ष प्राप्त किया। शबरी का जीवन त्याग, तप, सेवा, सद्भाव, साधना, सिद्धि, श्रद्धा और भक्ति से परिपूर्ण है।
दण्डकारण्य का क्षेत्र उस समय छत्तीसगढ़ राज्य से लेकर आन्ध्र, महाराष्ट्र पूर्वी, कर्नाटक पूर्व, और केरल उत्तर तक था। महर्षि मतंग का आश्रम छत्तीसगढ़ में बिलासपुर जिलान्तर्गत, षिवरीनारायण स्थान को कुछ विद्वान मान्यता देते हैं लेकिन कुछ विद्वान दक्षिण में शबरी मलै को भी मान्यता प्रदान करते है जहां वर्तमान में भी शबरी मेला लगता है और वहां शबरी का मन्दिर है। यह सम्भव है भील राज का क्षेत्र छत्तीसगढ़ का बिलासपुर रहा हो और शबरी का जन्म यहां हुआ हो। घर से भाग जाने पर शबरी दक्षिण दण्डकारण्य में चली गई हो वहां पर भी मतंग ऋषि का आश्रम रहा हो क्योंकि उस कालखण्ड में एक ही ऋषि के कई स्थानों पर आश्रम रहा करते थे। कर्नाटक में हम्पी के निकट पम्पा सरोवर की खोज हुई है उसके पास के क्षेत्र को किष्किन्धा राज्य की मान्यता है। यह भी सम्भव है कि शबरी ने अपनी देह का त्याग शबरी मलै स्थान पर किया हो। शबरी दलित चेतना का एक जाज्वल्यमान उदाहरण है। जिसे सदैव स्मरण रखना चाहिये।
महाशय जिस दिन आप महऋिषी गुरु वाल्िमिकी के बारे मे जान जावोगे उस दिन आप अनाप सनाप लिखना छोड कर मुक्ती पा जाओगे ।पहले आप अच्छी तरह ग्यान अर्जित करो