ज्योतिशाचार्य, मदन गुप्ता सपाटू ,चंडीगढ़ : हर मांगलिक कार्य में सबसे पहले श्री गणेष की वंदना भारतीय संस्कृति में अनिवार्य माना गया है। व्यापारी वर्ग बही खातों ,यहां तक कि आधुनिक बैंकों में भी लैजर्स आदि में सर्वप्रथम श्री गणेषाय नमः अंकित किया जाता है। नव वर्श तथा दीवाली के अवसर पर लक्ष्मी एवं गणेष जी की ही आराधना से षेश कार्यक्रम आरंभ किए जाते हैं। विवाह में लग्न पत्रिका में भी ‘श्री गणेषायनमः’ लिखा जाता है। कोई भी पूजा अर्चना, देव पूजन, यज्ञ, हवन, गृह प्रवेष, विद्यारंभ, अनुश्ठान हो सर्वप्रथम गणेष वंदना ही की जाती है ताकि हर कार्य निर्विघ्न समाप्त हो ।
ये बुद्धि के देवता हैं। विघ्न विनाषक हैं। चूहा इनका वाहन है। ऋद्धि – सिद्धि दो पत्नियां हैं। कलाकारों के लिए गणेष जी की आकृति बनाना सबसे सुगम है। एक रेखा में भी इनका चित्रण हो जाता है। वे हर आकृति और हर परिस्थिति में ढल जाते हैं।
गणेष जी के छोटे नेत्र, एकाग्र होकर लक्ष्य प्राप्ति का संदेष देती हैं। बड़े कान सबकी बात सुनने की सहन षक्ति देते हैं। विषाल मस्तक परंतु छोटा मुंह इंगित करता है कि चिन्तन अधिक – बातें कम की जाएं। लंबी सूंड कहती है कि हर हालत में सजग रह कर कश्टों का सामना करें। एकदन्त का अर्थ है कि हम एकाग्रचित्त होकर चिन्तन, मनन, अध्ययन व षिक्षा पर ध्यान दें । बड़ा उदर सबकी बुराई बडे़ कान से सुनकर बड़े पेट में ही रखने की षिक्षा देता है। छोटे पैर उतावला न होने की प्रेरणा देते हैं। चंचल वाहन , मूशक मन की इंद्रियों को नियंत्रण में रखने की पे्ररणा प्रदान करता है।
दीवाली के समय गणेष जी व लक्ष्मी जी का पूजन एक साथ किया जाता है। कोई भी अनुश्ठान गणेष पूजन के बिना संपूर्ण नहीं माना जाता। गणेष जी जहां विघ्नहर्ता व ज्ञान के देवता माने गए हैं , वहीं मां लक्ष्मी धन की देवी मानी गई हैं
पुराणों के अनुसार, लक्ष्मी माता ने, मां पार्वती से गणेष जी को मांग लिया। उन्होंने तत्काल गणेष जी को लक्ष्मी जी को सौंप दिया । तभी लक्ष्मी जी ने प्रण किया कि मेरी पूजा से पहले जो गणेष वंदना नहीं करेगा उसे मैं अपना आषीर्वाद नहीं दूंगी। तब से जो भी लक्ष्मी जी का आहवान करता है, सर्वप्रथम ,गणेष जी की मूर्ति स्थापित करता है और पूजा करता है, उसके बाद ही लक्ष्मी जी का पूजन आरंभ होता है। इसी कारण दीवाली पर लक्ष्मी जी की मूर्ति या चित्र के साथ सदा लक्ष्मी जी विराजमान होती हैं।
दक्षिणावर्त गणपति की मूर्ति का रहस्य
गणेष जी की सभी मूर्तियां सीधी या उत्तर की ओर सूंड वाली होती हैं। यह मान्यता है कि गणेष जी की मूर्ति जब भी दक्षिण की ओर मुड़ी बनाई जाती है तो वह टूट जाती है। कहा जाता है कि यदि संयोगवष यदि आपको दक्षिणावर्ती मूर्ति मिल जाए और उसकी विधिवत उपासना की जाए तो अभीश्ट फल मिलते हैं। गणपति जी की बाईं सूंड में चंद्रमा का प्रभाव और दाई में सूर्य का माना गया है।
प्रायः गणेष जी की सीधी सूंड तीन दिषाओं से दिखती है। जब सूंड दाईं ओर घूमी होती है तो इसे पिंगला स्वर और सूर्य से प्रभावित माना गया है। ऐसी प्रतिमा का पूजन, विध्न विनाष, षत्रु पराजय, विजय प्राप्ति, उग्र तथा षक्ति प्रदर्षन आदि जैसे कार्यों के लिए फलदायी माना जाता है। जबकि बाईं ओर मुड़ी सूंड वाली मूर्ति को इड़ा नाड़ी व चंद्र प्रभावित माना गया है। ऐसी मूर्ति की पूजा स्थाई कार्यों के लिए की जाती है। जैसे षिक्षा, धन प्राप्ति, व्यवसाय, उन्नति, संतान सुख, विवाह, सृजन कार्य, पारिवारिक खुषहाली के लिए किया जाता है। सीधी सूंड वाली मूर्ति का सुशुम्रा स्वर माना जाता है और इनकी आराधना ऋद्धि- सिद्धि, कुण्डलिनी जागरण, मोक्ष , समाधि आदि के लिए सर्वोत्तम मानी गई है। संत समाज ऐसी मूर्ति की ही आराधना करता है।
सिद्धि विनायक मंदिर में दाईं ओर सूंड वाली मूर्ति है । इसी लिए इस मंदिर की आस्था और आय ,आज षिखर पर है।
गणेष जी का चित्र या मूर्ति कैसे रखी जाए ?
घर के मंदिर में तीन गणेष प्रतिमाएं नहीं रखनी चाहिए। मूर्ति का मुंह सदा आपके घर के अन्दर की ओर होना चाहिए, पीठ कभी नहीं। उनकी दृश्टि में सुख समृद्धि, ऐष्वर्य व वैभव है जो आपके यहां प्रवेष करते हंै। पीठ में दरिद्रता होती है जो रोग, षोक, नकारात्मक ऊर्जा लाती है। अतः कुछ लोग गलती से घर के द्वार या माथे पर गणेष जी की मूर्ति या संगमरमर की टाईल्स लगवा देते हैं और सारी उम्र फिर भी दरिद्र रह जाते हैं। इस दोश को दूर करने के लिए उसके समानान्तर उसके पीछे एक और चित्र या मूर्ति ऐसे लगाएं कि गणेष जी की दृश्टि निरंतर आपके घर पर रहे।