गहरे संबंध थे भारत और मंगोलिया के
राजेन्द्र अग्रवाल : मंगोलिया और भारत में गहरे सांस्कृतिक संबंध हैं। आमतौर पर माना जाता है कि मंगोलिया चीन के भी उत्तर में स्थित है भारत से काफी दूर है और इस भौगोलिक दूरी के कारण उसका भारत से सीधा संबंध नहीं है। मंगोलों के बारे में एक धारणा यह भी फैली हुई है कि ये भारत के लिए आक्रांता और लूटेरे थे। परंतु यदि इतिहास देखा जाए तो हैरान कर देने वाली बातें सामने आती हैं।
वैदिक आर्य और मंगोल
आज यह साबित हो चुका है कि अंग्रेजों ने आर्यों के भारत आने की एक मिथ्या कहानी रची थी। इस सिद्धांत का खंडन भारतीय विद्वानों ने तभी कर दिया था। उन्होंने आर्यों से अनेक विदेशी समुदायों की समानता का अधिक सटीक और वैज्ञानिक समाधान भी सुझाया था। भारतीय विद्वानों का मानना था कि मनुष्यों की उत्पत्ति भारत के उत्तर में हिमालय की उत्तरी ढलान के इलाके में हुई और उन्होंने अपनी पहचान आर्य के रूप में स्थापित की। वहां से आर्यों का समूह पूरी दुनिया में फैला। इस क्रम में एक समूह सुदूर उत्तर में मंगोलिया पहुंचा। पंडित रघुनंदन शर्मा अपनी पुस्तक वैदिक संपत्ति में लिखते हैं, ‘‘नेपाल में एक चपटे चहेरेवाली मंगोलियन जाति भी रहती है। यह जाति अति प्राचीन काल में आर्यों की ही एक शाखा थी। परन्तु यह दीर्घातिदीर्घ काल पूर्व ही आर्यों से पृथक होकर चीना नामक हिमालय के उत्तर ओर वाली गहराई में बस गई थी, इसलिए अब उसके आकार, रंग और भाषा आदि में बहुत अन्तर आ गया है। बाबू उमेशचन्द्र विद्यारत्न ने लिखा है कि किरात लोग नेपाल के उत्तर-पश्चिम में बसते थे और पतित क्षेत्राी थे और हमने बतलाया है कि चीना हिमालय के नीचे उत्तरपूर्व में रहते थे और ये भी क्षत्राी ही थे। इन्हीं दोनों के मेल से मंगोलिया जाति के पूर्वजों की उत्पत्ति हुई है। यही नेपाल निवासी चपटे मंुहवाली जाति है। यही जाति मंगोलियन विभाग की जननी है। उमेश बाबू कहते हैं कि इस नवीन जाति का रंग बाल्मीकि रामायण में सुवर्ण का सा लिखा है। जिस समय की यह बात हैं, उस समय जिस प्रकार जरा सांवले रंगवाले श्याम और श्यामा बडे़ सुन्दर समझे जाते थे, उसी तरह ये पीत अर्थात् सुवर्ण के से रंगवाले भी बहुत उत्तम समझे जाते थे। महाभारत मीमांसा में रावबहादुर चिन्तामणि विनायक वैद्य ने महाभारत के प्रमाणों से लिखा है कि कौरव पांडवों की गौरवर्ण स्त्रिायों का रंग तप्त सुवर्ण का सा था। यह उस समय के रंग की खूबी का बयान है।
दक्षिण के गुजराती और महाराष्ट्र आदि कों का भी प्रायः यही रंग है। वे न तो सफेद है और न सुर्खीमायल ही हैं। आदि काल में आर्यों ने जरा सांवले और जरा पीले रंग को ही अपने मन में उत्तम समझा था, इसीलिए माताओं के संस्कार प्रबल हुए और अधिक प्रजा इसी रंग की हो गई है। हम देखते हैं कि नेपाल में बसनेवालों का भी प्रायः यही रंग है। वहां चपटे चेहरे और पीतवर्ण वालों में कुछ ताम्रवर्ण के श्याम लोग भी पाये जाते है। अभी हमने जिस श्याम रंग का वर्णन किया है, ये लोग उसी रुचि के परिणाम हैं। कहने का मतलब यह है कि ये चपटे चेहरे और पीले तथा श्याम रंगवाले मंगोलियन आर्यों से भिन्न किसी अन्य जाति के मनुष्य नहीं है।
इसके आगे बाबू उमेशचन्द्र विद्यारत्न ने आर्यों का मूल वतन मंगोलिया के अलताई पहाड़ पर सिद्ध करने के लिए ‘मानवेर आदि जन्मभूमि‘ नामक ग्रन्थ लिखा है। उस ग्रन्थ के पढ़ने से अधिक तो नहीं, पर इतना अवश्य भासित होता है कि पूर्वातिपूर्व काल में आर्यलोग अलताई अर्थात् इलावृत में रहते थे और यह अलताई शब्द इलावृत का ही अपभ्रंश है। ‘मानवेर आदि जन्मभूमि‘ पृष्ठ 119 में वायुपूराण अघ्याय 38 के कुछ श्लोक उद्धृत किये गये हैं, जिनसे ऊपर की बात पृष्ठ होती है। इन श्लोकों में कहा है – ‘इलावृतवर्ष के दक्षिण हरिवर्ष, किम्पुरुषवर्ष और भारतवर्ष के ये तीन वर्ष है और उत्तर की ओर रम्यकवर्ष, हिरण्यवर्ष और उत्तरकुरुवर्ष ये तीन वर्ष है। इसके बीच में इलावृतवर्ष है।’ इस वर्णन से स्पष्ट हो जाता है कि मंगोलिया मंे आर्यलोगों ने ही अपना उपनिवेश बसाया था।’’
इसी प्रकार एक मत यह भी है कि विष्णु के बेटे मंगल के नाम पर मंगोलिया नाम पड़ा है। पुराणों में कथा आती है कि विष्णु का एक बेटा चीन के उत्तर में जा कर बस गया था। वही क्षेत्रा मंगोलिया का है। इन उद्धरणों से यह साबित होता है कि मंगोलिया भारत के लिए कोई अनजाना प्रदेश नहीं है। अति प्राचीन काल में मंगोलिया में आर्य लोगों का आना-जाना रहा ही है। यही कारण है मंगोलिया की संस्कृति और वैदिक आर्य संस्कृति में काफी अधिक समानताएं पाई जाती हैं। सभी संप्रदायों के प्रति समान आदर, स्त्रिायों का सम्मान, मानवीय मूल्यों को महत्व, प्रकृति का पूजन आदि ऐसी ही कुछ समानताएं हैं।
मंगोल और बौद्ध मत
मंगोल सामान्यतः प्रकृतिपूजक थे। जब एशिया और फिर मध्य-पूर्व तथा यूरोप में उनका प्रभाव फैलने लगा तो उन्हें ईसाई और मुसलमान बनाने के बड़े भारी प्रयत्न किए गए। पोप ने रोम से उनके पास कई पादरी भेजे। परंतु मंगोलों ने उनसे पूछा कि वे ही सर्वश्रेष्ठ कैसे हैं।
उनके उत्तरों से असंतुष्ट मंगोलों ने बाद में बौद्ध मत को स्वीकार कर लिया। चंद्रगुप्त विद्यालंकार अपनी पुस्तक वृहत्तर भारत में लिखा है, ‘मंगोलों ने उत्तरीय एशिया और पूर्वीय योरुप को जीत कर विशाल मंगोल-साम्राज्य की नींव डाली। 1232 ई. में सुङ्वंशीय राजाओं ने तातार लोगों के विरुद्ध मंगोलों से संधि कर ली। तातारों की शक्ति नष्ट कर चंगेज खां चीन का सम्राट् बन गया। 1280 ई. में कुबलेईखा राजा हुआ। 1280 से 1368 तक मंगोलों का प्रभुत्व रहा। इस मंगोलों को अन्य धर्मांे की अपेक्षा बौद्धधर्म अधिक प्रिय था। मंगोल सम्राट कुबलेई खां का बौद्धधर्म के प्रति बहुत अनुराग था। इसने विहार बनाने, पुस्तकें छपाने तथा त्यौहार मनाने में बहुत बड़ी धनराशि व्यय की। आज्ञा प्रचारित की गई कि विहारों में बौद्ध गन्थों का पाठ किया जाय। 1287 ई. में त्रिपिटक का नया संग्रह प्रकाशित किया गया। जब कुबलेई खां को उसके दरबारियों ने जापान पर आक्रमण करने की सलाह दी तो उसने पहली बार यह कहकर इनकार कर दिया कि वहां के निवासी महात्मा बुद्ध के उपदेशों का पालन करते है।
चंगेज खाँ प्रकृति की पूजा करते थे यह बड़ा भ्रम है कि चंगेज खाँ इस्लाम को मानते थे
(यह लेख भारतीय धरोहर से लिया गया हे हम उनके बहुत आभारी हैं)