नीरज कुमार जोशी : राष्ट्रवादी चिन्तक स्वर्गीय श्री राजीव दीक्षित जी के व्याख्यान सुनकर और कुछ पुस्तकें और रोजाना घटने वाली घटनाओं को विभिन्न समाचार पत्रकों के माध्यम से पड़-पड़कर जो ज्ञान प्राप्त हुआ है, उसके आधार पर मैं आर्थिक आधार पर स्वदेशी की संकल्पना भाग – ३’ पुनः श्री राजीव भाई दीक्षित जी को समर्पित करते हुए आप सब लोगों के सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ।
कोई भी विद्वान किसी भी प्रकार के सुझाव के लिए कृपया मेरे इमेल swadeshinkj@rediffmail.comपते पर संपर्क करें, सहृदय आपका स्वागत है।मेरा यह लेख पिछले दो लेखों से काफी गंभीर और अलग है इसलिए पाठकों को बोरियत न हो इस बात का ध्यान रखते हुए मैं अपनी बात थोडा व्यंगात्मक तरीके से शुरू करता हूँ।
सुबह के वक्त सैर के लिए निकला था, दिसंबर की भीनी-भीनी ठण्ड है तो मुझे थोडा सा जुकाम का असर हो गया और नाक सुडुक-सुडुक बहने लगी, रुमाल था नहीं और जेब में पैसे भी नहीं थे की रुमाल खरीद सकें तो मैंने बहती नाक को सुड़का मार कर ऊपर की ओर खींचना चालू कर दियालेकिन नाक थी की बहे जा रही थी। इतने मैं घूमते-घूमते मैं पास के चौक पर पहुँच गया। वहां उस वक्त खुली दुकानों में काका गोपीचंद की ही दुकान थी बाकी सब दुकानदार लोग शायद घर में रजाई में दुबके पड़े होंगे। काका गोपीचंद के बारे में मैं पहले ही बता दूँ की काका जी इंसान की परिस्थितियों को समझकर उससे रुपये कमा लेने में माहिर थे। उनकी नजर मेरी बहती नाक पर पड़ी तो उन्होंने दुकान में हीटर की गर्मी लेते लेते और पान खाते खाते ही आवाज दी, “अरे नीरज बिटवा क्या बात नाक बहुत बह रही जुकाम होई गवा का?” मैंने कहा हाँ काका थोडा ठंडी का असर हो गया। काका तुरंत बोले बिटवा रुमाल खरीद लो क्यों सुड़का मार कर ऊपर खींच रहे हो? मैंने कहा काका मेरे पास पैसे नहीं हैं रुमाल काहे से खरीदूँ तो काका बोले कोई बात नहीं बेटा किश्तों में दे दियो बस दो टका रुपये ब्याज के ज्यादा लगेंगे, और उन्होंने मुझे मेरी नाक साफ करने के लिए वो रुमाल दे दिया जिसका ब्याज अभी तक चल रहा है।
ये तो व्यंग्य था अब मैं मुद्दे की बात पर आता हूँ, साल २०१४ मैं सत्ता पर विराजमान होते ही प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने भारत की स्वच्छता के लिए स्वच्छ भारत अभियान की बात करनी शुरू की जिसकी प्रेरणा उन्हें पूज्य गांधी जी से मिली थी। मोदी जी ने स्वयं झाड़ू उठाई और देश के कई प्रबुद्ध लोगों को प्रेरित किया कि सब हाथ में झाड़ू उठायें तो इस देश भारत की सडकों को, गलियों को भी अमेरिका की तरह स्वच्छ बनाया जा सकता है, समाज के कई प्रबुद्ध लोगों ने मोदी जी के इस प्रयास की सराहना भी की और हाथों में झाड़ू भी उठाया जिसका थोडा बहुत परिणाम सामने भी आया और मेरे जैसे कई लोगों ने निजी जीवन में पॉलीथीन का प्रयोग करना बंद कर दिया। धीरे- धीरे अभियान देशव्यापी बना तो कुछ- कुछ जगहों पर विदेशियों ने भी सफाई के लिए झाड़ू हाथ में उठाना शुरू किया तो सडकों, नालों, गलियों की गन्दगी हमारे लिए नाक (इज्जत) का प्रश्न बन गई लेकिन यहाँ हालत ये थी की हमें देश को अमेरिका भी बनाना है और हमारे पास फंड भी नहीं है मतलब नाक साफ करने के लिए रुमाल भी चाहिए और खरीदने के लिए पैसे भी नहीं हैं।
तो यहाँ भी काका गोपीचंद यानि विश्वबैंक(World Bank) बीच में आये और उन्होंने मदद की घोषणा की। अभी कुछ दिन पूर्व विश्व बैंक के क्षेत्रीय निदेशक ओनो रुल ने जानकारी दी की विश्व बैंक ने महत्वाकांक्षी स्वच्छ भारत अभियान के लिए 1.5 अरब डॉलर यानि लगभग 9914 करोड़ रुपये धनराशी के कर्ज को स्वीकृति दे दी है। विश्व बैंक के अनुसार विश्व भर में कुल 2.4 अरब लोगों के पास स्वच्छ माहौल में रहने की सुविधा नहीं है जिनमे से करीब 75 करोड़ लोग भारत में हैं।इन 75 करोड़ में से लगभग 80% जनसँख्या ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है।ओनो रुल का यह भी कहना है कि, “विश्व बैंक की कर्ज के रूप में इस मदद कामकसद 2019 तकभारतसरकारकेग्रामीणक्षेत्रोंमेंअपनेसभीनागरिकोंकोबेहतरसाफ-सफाईव्यवस्थाउपलब्धकरानेऔरखुलेमेंशौचकोसमाप्तकरनेकेअभियानमेंमददकरनाहै।उन्होंनेकहाकिभारतमेंहर 10वींमौतस्वच्छताकेअभावसेजुड़ीहैऔरअध्ययनयहबताताहैकिकमआयवालेपरिवारसाफ-सफाईकीखराबव्यवस्थासेसर्वाधिकप्रभावितहोतेहैं।”
मैं मोदी जी की स्वच्छ भारत अभियानमुहीम का समर्थन करता हूँ लेकिन मित्रो हमारे देश के ऊपर पहले से ही 465.37 अरब डॉलर का विदेशी कर्ज है जिसके ब्याज के रूप में लगभग 12.6 अरब डॉलर प्रतिवर्ष चुकाना पड़ता है। ऊपर से हम और कर्ज ले लें वो भी बहती नाक साफ करने के लिए तो ये कहाँ की बुद्धिमत्ता है।
मैंने कुछ आंकड़ों का अध्ययन किया तो पता चला की भारत में कोई फिल्मकार जब कोई नई फिल्म बनाते हैं तो फिल्म रिलीज होने के महज पंद्रह से बीस दिनों में ही वो फिल्म सैंकड़ों करोड़ रुपये कमा लेती है, उदाहरण के रूप में पीके, बजरंगी भाईजान, बाहुबली , प्रेम रतन धन पायो, हैपी न्यू ईयर, किक, धूम थ्री, चेन्नई एक्प्रेस आदि। इन फिल्मों से अधिकतर फिल्मों में काम करने वाले अभिनेता भारत मेंअसहिष्णुता यानि Intolerance के शिकार हैं फिर भी करोड़ों कमा रहे हैं। इनका मतलब जो 75 करोड़ गरीब हैं उनको छोड़कर बाकी लोगों के पास अथाह पैसे हैं कि वो इन दो कौड़ी के अभिनेताओं को सैंकड़ों करोड़ कमाने का मौका दे रहे हैं तो फिर क्या सरकार को स्वच्छ भारत अभियान के लिए अलग से पैसा लेने की क्या जरूरत है। जब कोई व्यक्ति थियेटर और मल्टीप्लेक्स में ₹150.00 से लेकर ₹500.00 तक खर्च कर सकता है तो क्या वो स्वच्छ भारत अभियान के लिए ₹50.00 नहीं दे सकता? हाँ सीधे हाथ से नहीं देगा तो सरकार थियेटर और मल्टीप्लेक्स वालों के साथ अग्रीमेंट कर ले कि प्रति टिकट टैक्स के अतिरिक्त ₹50.00 स्वच्छ भारत अभियान के लिए एकत्र करो और सरकार को दो।मित्रो मैं ईमानदारी के साथ कहता हूँ कि यदि पूरे देश में 20 करोड़ लोग थियेटर या मल्टीप्लेक्स में जाते हैं और प्रतिवर्ष तीनों खानों की एक-एक फिल्म यानि कुल तीन फिल्म देखते हों तो कुल मिलाकर साठ करोड़ लोग यानि तीन सौ करोड़ रुपये का कलेक्शन और पांच सालों में पंद्रह सौ करोड़ रुपये का कलेक्शन होता है। अब आप क्रिकेट के खेल के प्रति टिकट ₹50.00 जोड़ दो तो साल भर में करीब- करीब साठ करोड़ टिकट बिकते होंगे मतलब पांच साल के पंद्रह सौ करोड़ यहाँ से आ गए। यानि इस देश को जिसने सबसे ज्याद बरबाद किया है उनसे आप न्यूनतम तीन हजार करोड़ रुपये जुटा सकते हैं। फिर राज्य सरकार और केंद्र सरकार के कुल मिलाकर पांच करोड़ कर्मचारी तो होंगे क्या ये लोग साल भर का सौ रूपया देश की स्वच्छता के नाम पर नहीं दे सकते? न दें तो सेलरी से काट लो अप्रैल माह में तो यहाँ से करीब पांच सौ करोड़ प्रतिवर्ष यानि पांच साल का पच्चीस सौ करोड़ रूपया बनता है। फिर प्राइवेट ऑर्गनाइज सेक्टर में करीब बीस करोड़ लोग होंगे जो सौ रूपया प्रतिवर्ष भारत सरकार के स्वच्छ भारत अभियान को दे सकते हैं यानि प्रतिवर्ष दो हजार करोड़ और पांच साल का कुल दस हजार करोड़ रुपये बनते हैं। शायद स्वच्छ भारत के लिए इनमें से कोई भी मना नहीं करेगा तो कुल मिलाकर ₹15500 करोड़ बनता है अभी मैंने उद्योगपतियों औरदुकानदारों को तो जोड़ा भी नहीं क्योंकि इनकी संख्या का अंदाजा नहीं है मुझे। अब कर्ज के रूप में जो मिला वो 9914 करोड़ रुपये है और 15500 करोड़ के कलेक्शन का इतना आसान तरीका मैंने बता दिया है। अब ये असंभव है क्या? नहीं ये असंभव नहीं है लेकिन सबसे बड़ी दिक्कत है कि सरकारों ने तमाम तरह के टैक्स हम पर लाद रखे हैं और हमारे जो तथाकथित जनप्रतिनिधि हैं वो चांदी की चम्मचों से सोने की थाली में खाना खा रहे हैं इसलिए लोगों में उनके प्रति सद्भावना नहीं है इसलिए लोग ये फंड जुटाना नहीं चाहेंगे।
अब आप सोचिये की देश के ऊपर कुल 465.37 अरब डॉलर का विदेशी कर्ज है और कुछ आतंरिक कर्ज भी शायद होगा । हमारे देश का 75 करोड़ लोग गन्दगी और गरीबी में जी रहा है (विश्व बैंक के अनुसार), बेरोजगारी इस कदर बड़ी है की लोग नक्सलवाद और मवावाद का सहारा ले रहे हैं ताकि लूट-पाट करके खा सकें। पड़-लिखकर युवा उत्पादन में दिमाग लगाने के बजाय लोगों को मूर्ख बनाने में दिमाग लगा रहा है कि कैसे उसके अकाउंट के करोड़ मेरे पास आ जाएँ। हर जगह बदहाली मची है। माँ, बहन और बेटियां अपने ही घरों के अन्दर भी सुरक्षित नहीं रह गयी हैं।राह चलती महिलाओं के साथ इतनी दरिन्दगी की जा रही है कि रूह कांप उठती है सोच-सोचकर। मेरे घर की माँ, बहन, बेटी किसी काम के लिए घर से बाहर जाये तो शाम तक सुरक्षित लौटे इसकी कोई गारंटी नहीं है। लेकिन हमारे तथाकथित जन-प्रतिनिधियों के कान पर जूं तक नहीं रेंगती। देश के महज पांच करोड़ कर्मचारियों के लिए सातवां वेतन आयोग लाने की बात करते हैं, सांसदों का वेतन दोगुना करने का प्रस्ता्व संसद में आया है। संसदीय कार्य मंत्रालय के इस प्रस्तावव में सांसदों का वेतन 50 हजार से एक लाख करने का प्रस्ताव रखा गया है। साथ ही दफ़्तर, संसदीय क्षेत्र का भत्ता भी दोगुना करने का प्रस्ताव है। वेतन और भत्ता मिलाकर 2 लाख 80 हज़ार करने का प्रस्ताव है। इसी सत्र में इस प्रस्ता0व को नहीं लाया जा सका, क्योंलकि सांसदों को लगा कि एक तरफ वह संसद को ठप करें और दूसरी तरफ अपनी तनख्वा ह को बढ़ाएंगे तो जनता को आपत्ति ज्याादा होगी। लिहाजा, यह तय किया गया है कि फरवरी में शुरू होने वाले बजट सत्र में यह प्रस्ताआव लाया जाएगा और यह बात तय मानी जा रही है कि सांसदों का वेतन दोगुना कर दिया जाएगा।
माना जा रहा है कि इस पर जल्दm ही फैसला हो जाएगा और मंत्रालय की तरफ से हरी झंडी दे दी जाएगी। लिहाजा, यह साफ है कि आगामी बजट सत्र में सांसदों की तनख्वाफह जरूर बढ़ेगी। दिल्ली सरकार ने तो इससे भी एक कदम आगे जाकर विधायकों की तनख्वाह 2.1 लाख और कैबिनेट मंत्रियों की तनख्वाह 2.4 लाख करने की घोषणा कर दी है। मैं अपने देश के रणनीतिकारों से और पचास के दशक के संविधान निर्माताओं से सवाल करना चाहता हूँ की क्या हमारे देश के आम आदमी का पेट कुछ अलग और सरकारी कर्मचारियों और नेताओं का पेट कुछ अलग है क्या? यदि सबका पेट एक समान है, सबको समान भूख और प्यास लगती है, सबके खून का रंग भी लाल ही है, सबको बीमारियाँ होने पर चिकित्सकों और औषधियों की जरूरत भी है दो फिर ये दोहरा व्यवहार क्यों? बेरोजगारों को रोजगार देने की सरकार की औकात नहीं है, नाक साफ करने के लिए रुमाल लेने की औकात नहीं है, विदेशी संस्थाओं से लिया गया कर्ज चुकाने की भी औकात नहीं है फिर भी देशवासियों के तथाकथित जनप्रतिनिधि अपनी तनख्वाह बढ़ाने में लगे हैं। विचित्र- विचित्र तर्क देते हैं भाई ये लोग भी… दिल्ली के मुख्यमंत्री कहते हैं की विधायक भ्रष्ट्राचार कुछ कम करें इसीलिये हमने सोचा कि पहले ही इतना रूपया दे दो कि भ्रष्ट्राचार की इच्छा भी न हो ……… मतलब नेता घोटाले करते रहेंगे और मुख्यमंत्री साहब उनकी तनख्वाह बढ़ाते जायेंगे। और तो और साहब जब देशवासियों के हित के लिए सरकार कुछ करना चाहती थी तो कोई न कोई मुद्दा पकड़कर साल भर तक संसद नहीं चलने दे इन हराम के पिल्लों ने लेकिन अब आप देखिये फरवरी में जिस दिन ये सांसदों की सैलरी बढ़ाने का बिल संसद में लाया जायेगा सारे के सारे सांसद उपस्थित रहेंगे और कोई भी बिल का विरोध नहीं करेगा कोई वॉक-आऊट नहीं होगा और सुबह प्रस्ताव संसद में लायेंगे तो शाम तक पास भी हो जायेगा। उस दिन न तो मोदी मौत का सौदागर होगा और न सोनिया नागों की मौसी ना ही राहुल फ्यूज बल्ब होगा और ना ही केजरीवाल हरामखोर (ये सारे शब्द एक दूसरे के विपक्षी दलों की देन हैं मेरी नहीं), ना मोदी सांप्रदायिक होगा ना गैर सांप्रदायिक। सांस रोक लो जनाब स्वच्छ भारत भी उस दिन कुछ नहीं होगा। महिला सुरक्षा के वादे करने वाले भी चुप होंगे और भ्रष्ट्रचारी भी चुप होंगे। काले धन को लाने का वादा करने वाले भी खामोश होंगे और काले धन के मुद्दे पर सवाल करने वाले भी खामोश होंगे। कोई किसी का विपक्षी ना रहेगा जैसे सब के सब एक ही पौंधे की जड़ पर लगी मूंगफली के बीज होंगे।शाम होते-होते सैलरी बढ़ाने का प्रस्ताव पारित हो चूका होगा फिर सारे के सारे नेतागण होली और ईद मिलन कर रहे होंगे। रात को कोई मुन्नीबाई के कोठे पर गुलछर्रे उड़ा रहा होगा तो कहीं मुन्नीबाई किसी नेता का बिस्तर गर्म करने उसके बंगले पर मौजूद होगी। मेरे जैसे लोग कहीं खिसियानी बिल्ली की तरह इंटरनेट सोशल मीडिया पर भड़ास निकाल रहे होंगे तो कुछ चौपाल बिछाकर अनुभवी चाचा-ताऊ के साथ चर्चाएँ कर और सुन रहे होंगे। जिनसे मुझे इतना सोचने-समझने की ताकत मिली वो राजीव दीक्षित कहीं वीरान में आंसू बहा रहे होंगे क्योंकि जो भी उनकी तरह उठकर लोगों को उनके दुखों का कारन बताने की कोशिश कर रहा होगा उसे यूँ ही गुमनाम मौत के हवाले कर दिया जायेगा। रह जायेंगी उसकी यादें जो धीरे-धीरे सिमट रही होंगी धरती के आगोश में समां रही होंगी। यही लोकतंत्र है यही लोकतंत्र है यही भारत का संविधान है। लोग रो रहे होंगे की हमारी तो किस्मत ख़राब है, रोजगार नहीं है भोजन नहीं है यही लोकतंत्र है यही भारत का संविधान है।
जय हिन्द स्वराज
वन्दे मातरम्
साभार धन्यवाद
नीरज कुमार जोशी