रजत सिंह : गुजरात में पाटीदार समाज के आरक्षण मांगने और लाखों की संख्या में जुटने से आज देश भर में आरक्षण चर्चा का विषय बन गया है। पाटीदार समाज की अगुवाई कर रहे 22 साल के हार्दिक पटेल पर अरविन्द केजरीवाल का हाथ होने की बात कही जा रही है। लेकिन ये कोई विषय नही है। असली बात यही है की
आखिर गुजरात के अमीर माने जाने वाले पाटीदार समाज को ये आंदोलन क्यों करना पड़ा ? इसका जवाब भी सभी जानते है की हमारे राजनेताओ की सत्ता की भूख ने इसे दिन प्रतिदिन बढ़ाया। चाहे बीजेपी हो या कांग्रेस या कोई अन्य दल सभी आरक्षण की रेवडिया बांटकर देश में जातिवाद को बढ़ावा दिया और जातिवाद
वोटबैंक की गन्दी राजनीती की। अगर ऐसा ही चलता रहा तो वो दिन दूर नही जब देश में आरक्षण के कारण गृहयुद्ध की आग में धकेल दिया जायेगा। और इसके एकमात्र दोषी हमारे देश के राजनेताओ की आरक्षणवादी नीति होगी। और जब कुछेक आरक्षण विरोधी अहिंसात्मक तरीके से आवाज़ उठाते है तो
राजनेताओ के जू नही रेंगती। इस मौके पर एक हरयाणवी गाना बिलकुल सही लगता है। … “या जनता जब आवाज़ उठाव ,लाग स जण नयूई भोखरी। ” ए. परियाकरुप्पन मामले में स्वयं सर्वोच्च न्यायालय ने ही कहा था कि आरक्षण किसी के निहित स्वार्थ के लिए नहीं होना चाहिए।
शोषित कर्मचारी संघ मामले में भी न्यायालय ने कहा था कि आरक्षण नीति की सफलता की कसौटी यही होगी कि कितनी जल्दी आरक्षण की आवश्यकता को समाप्त किया जा सकता है। “सेवायोजन, शिक्षा, विधायी संस्थाओं में लागू आरक्षण नीति की हर पांच वर्ष में एक बार समीक्षा की जानी चाहिए।” वसंत कुमार मामले में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश वाई.वी. चंद्रचूड ने सुझाव दिया था। लेकिन आज स्थिति यह
है कि यदि आप केवल इतना ही पूछ लें कि आरक्षण कब खत्म होगा, तो तुरंत आपको दलित-विरोधी की उपाधि से लाद दिया जाएगा।
क्या केवल कुछ उपजातियां ही अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए आरक्षित सीटोंपदों पर कब्जा जमा रही हैं? क्या जातियों को पिछडे वर्ग की सूची में इसलिए शामिल किया जा रहा है कि वे सचमुच पिछड़ी और वंचित हैं? या इसलिए कि उनकी शक्ति और प्रभावशीलता को देखते हुए राजनेताओं को ऐसा करना
पड़ रहा है? सर्वोच्च न्यायालय ने कार्यपालिका को निर्देश दिया था कि वह बराबर नजर रखें कि आरक्षण का वास्तविक लाभ किसे मिल रहा है। यह पैंतीस वर्ष पहले की बात है, लेकिन आज भी यदि आप पूछें कि “सामान्य श्रेणी की कितने प्रतिशत सीटें उन जातियों को मिल रही हैं, जिनके लिए पहले ही आरक्षण की व्यवस्था की गई?” तो उत्तर नहीं मिलेगा। बल्कि एक आरोप और मढ़ दिया जाएगा, “यह सबकुछ पूरी आरक्षण नीति को संदेह के घेरे में डालने और इस प्रकार पिछड़े वर्गों द्वारा अंतहीन संघर्ष के बाद प्राप्त किए
थोड़े-बहुत लाभों को भी हथिया लेने के एक षडयंत्र का हिस्सा है।”
इस प्रकार हम लगातार निम् से निम्तर स्तर पर उतरते जा रहे हैं। सरकारी कार्य-प्रणाली का कुशलता स्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है,जिसका अन्य वर्ग के लोगों के साथ-साथ इन पिछड़े एवं वंचित वर्ग के लोगों पर भी पड़ रहा है। सार्वजनिक बहस का स्तर और पैमाना भी गिरता चला जा रहा है और ये स्थितियां जिस प्रकार अपरिहार्य बन गई हैं, उसी प्रकार इनका परिणाम भी परिहार्य है, जो निम्लिखित रूपों में हमारे सामने है –
* विधायिकाओं को सुविधा और आवश्यकता के अनुसार संचालित करनेवाले व्यक्ति
की प्रकृति और प्रवृत्ति के रूप में।
* शिक्षण संस्थानों और सिविल सेवाओं में गिरते कुशलता-गुणवत्ता स्तर के रूप में।
* मतदान प्रणाली और विधायिकाओं के साथ-साथ सेवाओं का भी जाति के आधार पर
विभाजन के रूप में।
* कुशलता-उत्कृष्टता पर एक संगठित हमले के रूप में।
ऑर्टेगा गैसेट की बात सच साबित होती है; पैमाने हटा दिए गए हैं; औसत दर्जा ही मानक पैमाना बन गया है। अभद्रता ही प्रमाणिकता बन गई है; अभित्रास (धमकी) ही दलील बन गई है. अगर आरक्षण इसी तरह आर्थिक आधार पर नही होकर जाति आधारित रहा तो वाकई देश एक भयानक गर्त की और जा रहा है।