“सत्य ही धर्म है और सत्य ही न्याय भी ; क्रोध के प्रभाव में मती का भ्रष्ट हो जाना स्वाभाविक है जिससे विवेक अपनी तार्किक क्षमता खो देती है और प्रतिशोध की भावना ही सर्वोपरि हो जाती है;
बचपन में सभी ने कहानी तो सुनी होगी की लकड़ी का गट्ठा तोडना मुश्किल होता है पर जब लकड़ियों को अलग अलग कर दिया जाए तो उसे बहोत सहजता से तोडा जा सकता, पर आज लगता है कहानी याद है पर सभी सीख भूल गए हैं.. तभी तो समाज राजनीति के संतराज का प्यादा बना दीखता है ; ऐसे में गलती किसकी ?
समाज में अपराध के प्रति निरोधक और विकर्षण के संसाधन की आवश्यकता ने विकल्प के रूप में दंड के प्रावधान को जन्म दिया था और विधि व्यवस्था बनाये रखने के लिए न्यायिक प्रक्रिया के लिए मृत्युदंड अनिवार्य व् आवश्यक विकल्प है…. पर प्राण लेने का अधिकार इस दाइत्व के साथ आता है की इसका दुरूपयोग न हो ;
जब राजनीति राष्ट्रहित से अधिक महत्वपूर्ण हो जाए तो संभव है की सत्ता की आकांक्षा शासन तंत्र के दृष्टिकोण को विकृत कर दे ; ऐसे में सत्ता के सामर्थ का दुरूपयोग स्वाभाविक है और यदि ऐसा होता है तो जनतंत्र में शासन तंत्र के पाप के दोष की भागी जनता भी होती है, इसलिए, एक प्रगतिशील समाज में शासन तंत्र पर जनता का अंकुश अनिवार्य है और यह तभी संभव है जब समाज जागृत हो !
निरंकुश शासन किसी भी समाज और राष्ट्र के हित में नहीं ; समाज में जब बहुमत के लिए सत्य , धर्म और न्याय से अधिक मृत्यु व् हत्याएं अधिक महत्वपूर्ण हो जाए तो न केवल यह सिद्ध होता है की वैचारिक पतन ने मनुष्य को पशु तुल्य बना दिया है बल्कि सामाजिक सचेतन निर्णय का स्तर भी चिंता का कारण बन जाता है.
भविष्य के लिए सारे विकल्प खुले हैं और हमारा निर्णय ही हमारी नियति निर्धारित करेगा क्योंकि विकास की प्रक्रिया अपने दिशा के निर्धारण के लिए हम पर आश्रित है; जो भी शक्ति स्वयं को नियंत्रित न कर सके वह स्वयं अपने विनाश का कारन बनती है, ऐसे में, यह हमें सोचना है की हम चाहते क्या हैं; समय के पास हमें कहने के लिए केवल ‘तथास्तु ‘ है !”