नीरज जोशी : मेरा ये लेख मेरे प्यारे देवभूमि उत्तराखंड की दुर्दशा पर आधारित है। ९ नवम्बर २००० को राज्य गठन के बाद पंद्रह वर्षों बाद भी उपेक्षित सा उत्तराखंड अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रहा है।शहरी या मैदानी इलाकों की यदि बात करूँ तो हल्द्वानी, नैनीताल, रुद्रपुर, काशीपुर, कोटद्वार, हरिद्वार और देहरादून ये कुछ ही शहर हैं जहाँ लोग सम्मानजनक स्थिति में जीवन यापन कर रहे हैं। बाकी तो उत्तराखंड अब उजड़ता जा रहा है।
राजनैतिक रूप से उत्तराखंड में करीब ८-१० क्षेत्रीय दलों के बीच केवल बीजेपी और कांग्रेस ही अपना वर्चस्व स्थापित करने में सफल रहीं।हालांकि इन दो दलों में भी इन पंद्रह वर्षों में उत्तराखंड ने ८ मुख्यमंत्रियों का कार्यकाल देखा है जिसमें से केवल एन. डी. तेवारी (कांग्रेस) ही अपना पंचवर्षीय कार्यकाल पूरा करने में सफल रहे थे बाकी सभी मुख्यमंत्री या तो अपने ही पार्टियों के बागियों के कारण या स्वयं के अपने भ्रष्टाचार के कारण अपनी कुर्सी गंवा बैठे।उत्तर-प्रदेश के अंग के रूप में उपेक्षित पड़े उत्तराखंड को जब स्वतंत्र राज्य घोषित किया गया था तो उत्तराखंड BJP के नेताओं ने जोर-शोर से नारे लगाये कि “वादा हमने निभाया है, उत्तराखंड राज्य बनाया है।” इस नारे से सरकार तो बन गयी लेकिन कुछ ख़ास कार्य/ विकास की उम्मीद न देख २००२ के विधानसभा चुनाओं में लोगों ने कांग्रेस पर फिर २००७ में BJP और २०१२ में फिर से कांग्रेस पर भरोसा जताया था।हम हमेशा इन पर भरोसा जताते गए और ये हमेशा हमारे भरोसे को तार-तार करते गए।
आज ३१-०३-२०१६ को मैं जब ये लेख लिखने बैठा हूँ तो बहुत क्रोध, हताशा और उदासी के बीच ये लेख लिख रहा हूँ। बेरोजगारी की मार के कारण मैं और मेरे जैसे हजारों युवा उत्तराखंड से पलायन कर चुके हैं लेकिन उत्तराखंड से बाहर जहाँ कहीं भी हम रह रहे हैं हर आने वाली सरकरों से यही आस लगाते हैं कि शायद वो मेरे पहाड़ को बचने के लिए कुछ करेगी लेकिन सब व्यर्थ जाता है।पहले किसी पार्टी का मुख्यमंत्री मेरे राज्य की इज्जत तार-तार करता है फिर उसे गद्दी से हटाकर दूसरे को बिठाया जाता है तो वो भी वही करता है। सब के सब अपने सात पुस्तों का पूरा करने में लगे हैं बस। मेरी आँखों के सामने मेरा पहाड़ बरबाद हो रहा है, मेरी तरह पहाड़ों से लोग पलायन करते जा रहे हैं। वह दिन दूर नहीं जब इन सरकारों की अदूरदर्शिता के कारण पूरा पहाड़ चायना के कब्जे में आ जायेगा।वैसे तो पहाड़ की दुर्दशा बयान करने के लिए मेरे पास उदाहरण भरे पड़े हैं लेकिन मैं अपनी बात की मजबूती के लिए केवल एक उदहारण यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ और समाज के जागरूक लोगों से निवेदन करता हूँ कि यदि किसी के भी दिल में मेरी तरह तीस उठे तो ये बात सरकारों तक पहुँचाओ। मेरे पहाड़ को बचाओ।
उत्तराखंड के चम्पावत जिले के खटोली पट्टी क्षेत्र में एक गाँव है “वैला”, मेरे ख्याल से इसे इक्कीसवीं सदी का सबसे पिछड़ा गाँव कहा जाएगा तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। अन्धकार युग के गवाह इस गाँव की जनसँख्या दस्तावेजों के आधार पर करीब ४९० के आस-पास है। सन २००६ में राजीव गांधी विद्युतीकरण मिशन के तहत इस गाँव में बिजली के खम्भे पहुँच गए, उनमें तार भी लग गए और सरकारी दस्तावेजों में गाँव को विद्युतीकृत भी दिखा दिया गया लेकिन आज दस साल बाद भी इस गाँव की हर रात अमावस की तरह होती है क्योंकि आज तक उन खम्भों में बंधे तारों में विद्युत् संयोजन नहीं हुआ। गाँव की रात रोशन करने के लिए केरोसीन तेल की ढिबरी ही एकमात्र सहारा है।दो प्राथमिक और एक प्राइवेट जूनियर हाईस्कूल मिलकर इस गाँव में कुल तीन विद्यालय है जहाँ १०५ बच्चे अध्ययनरत हैं। गाँव के अन्धकार की तरह इस बच्चों का भविष्य भी अंधकारमय है क्योंकि न तो वो रात को पुस्तक पड़ सकते हैं और न ही कम्पयूटर जैसी आधूनिक शिक्षा का जरूरी ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। बिजली विहीन गाँव की श्रेणी में करीब पंद्रह वर्ष पहले इस गाँव को चालीस सोलर लाईट मिले थे लेकिन उनमें से अधिकांश अब खराब हो चुके हैं। इस गाँव के निवासी भाई सुरेश वैला के साथ ईमेल और फेसबुक में हुई बातचीत के अनुसार इस गाँव की सड़कमार्ग से दूरी लगभग १० किलोमीटर है और पानी का अकाल इतना कि गर्मियों में गाँव की महिलाओं – बच्चों को ५-१० किलोमीटर दूर से पानी ढोकर लाना पड़ता है। पानी की अनुपलब्धता के कारण गाँव के खेत बंजर होते जा रहे हैं।विकास के नाम पर गाँव में केवल १०-१२ परिवारों के पास शौचालय है बाकी सब आज भी बाहर खुले में शौच को बैठने के लिए मजबूर हैं। गाँव में सिंचाई नहर के विकास के लिए कम से कम एक करोड़ रूपया आ चुका है किन्तु धरातल पर कुछ भी नहीं उतरा है। चूँकि गाँव में पानी न होने से खेती तो असंभव है साथ ही पशुपालन भी असंभव होता जा रहा है। गाँव के लोगों के रोजगार का जरिया एकमात्र पंडिताई है। गाँव के ग्राम प्रधान केशव दत्त मौनी ने और गाँव के कुछ प्रबुद्ध लोगों से जिलाधिकारी, मंत्री, संतरी, विधायक से लेकर मुख्यमंत्री कार्यालय तक ज्ञापन भेज दिया है लेकिन सब के सब प्रयास बेकार हैं। कोई इस गाँव की सुध नहीं ले रहा है। इस कारण लोग गाँव से पलायन करते जा रहे हैं। गाँव में अब वास्तविक जनसँख्या २५० के आस-पास बची है। सरकारें आयीं और गई केवल BJP ही नहीं कांग्रेस भी या केवल कांग्रेस ही नहीं बीजेपी भी किसी को इस गाँव के लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं से कुछ लेना देना नहीं है। सबको अपनी कुर्सी बचाने की पडी है बस। खंडूरी नहीं तो निशंक, निशंक नहीं तो भगत सिंह कोश्यारी, वो नहीं तो बहुगुणा, बहुगुणा नहीं तो हरदा, हरदा नहीं तो इंदिरा हृदियेष बस यही तो चल रहा है उत्तराखंड में और सिर्फ वैला ही नहीं सैंकड़ों गाँव सरकारों की इस तटस्थता का शिकार हो रहे हैं।
इसलिए पाठको आपको लिख रहा हूँ कि आप में जागरूक नागरिक कोई हों तो आओ मेरे पहाड़ को बचने में हाथ बढाओ आओ।
जय हिन्द
मेरा उत्तराखंड देवभूमि उत्तराखंड
वास्तव में दुखद है
हमारी सरकारें एक सांपनाथ तो दूसरी नागनाथ