सर्वसमावेशक विकास की अवधारणा को अमल में लाकर भारतीय नागरिकों की उन्नति करना हमारे देश के समक्ष आज की सबसे बड़ी चुनौती है. उच्च वर्ग से लेकर सर्वाधिक पिछड़े व्यक्ति तक सबको एक साथ एक दिशा में आगे बढ़ने की आवश्यकता है. उसी को गांधीजी के शब्दों में ” अन्त्योदय ” कहा जाएगा. यह विचार सबसे पहले उन्होंने ही प्रतिपादित किया था. उसका महत्व वे जानते थे. भारत के अंतिम नागरिक के आंसू पोंछे जाएँगे , तभी हमारा देश सच्चे अर्थों में स्वतंत्र कहलाएगा, यह उन्होंने ही कहा था. महात्मा गांधी के इस दूरदर्शी सोच को वास्तविक रूप में समझकरआत्मसात करने एवं भविष्य की चुनौतियों के बारे में देश एवं विदेश की सरकार को सलाह देने का उत्कृष्ट एवंप्रशंसनीय कार्य किया है-संदीप वासलेकरने, जो ”स्ट्रेटेजिक फोरसाईट ग्रुप‘‘ के अध्यक्ष भी हैं. अभी हाल ही में इनके द्वारा रचित पुस्तक ” नए भारत का निर्माण ” प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित हुई है. यह पुस्तक डेढ़ साल पहले सर्वप्रथम मराठी में प्रकाशित हुई थी . आठ संस्करणों , उर्दू अनुवाद और दृष्टिबाधितों के लिए ऑडियो संस्करण के साथ यह बेस्टसेलर बनी हुई है. अनगिनत लोगों के जीवन को यह पहले ही बदल चुकी है.
भारत में भ्रष्टाचार , आतंकवाद , पर्यावरण -क्षति जैसी चुनौतियों से निपटने की क्या उम्मीद है?हम ऐसा राष्ट्र किस प्रकार बनासकते हैं, जो आम आदमी का जीवन स्तर सुधार सके ? ऐसा राष्ट्र किस प्रकार बनाया जा सकता है, जहाँआतंकवादी और अपराधी अपनी करतूतोको अंजाम देने के बारे में सोच भी न सकें? ऐसा राष्ट्र किस प्रकार बनाया जा सकता है ,जो विश्व में जल्द ही संभावितचतुर्थ औद्योगिक क्रांति में प्रमुख भूमिका निभा सके? सबसे महत्वपूर्ण यह है कि इन 7 -8 बर्षों में किस प्रकार आर्थिक , सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यवार्नीय परिवर्तनला सकते हैं? लाखों भारतीय लोगों के मन में उठाने वाले कई कठिनप्रश्नों के उत्तर इस पुस्तक में है. इन्हें लेखक कि 50 से अधिक देशों के राजनेताओं , सामाजिक परिवर्तकों, व्यवसायियोऔर आतंकवादियों से हुई बातचीत के आधार पर तैयार किया गया है. इस पुस्तक में समस्याओं के समाधान तथा भारत के युवा नागरिकों के लिए रूपरेखा उपलब्ध कराई गई है. यह आश्वस्त करती है कि अगर हम नई दिशा कि तलाश करें , तो भारत का भविष्य उससे भी बेहतर हो सकता है, जितना कि हम सोचते हैं.
आपको जानकर सुखद लगेगा कि संदीप वासलेकर नई नीति अवधारणाएँ तैयार करने के लिएजाने जाते हैं, जिन पर संयुक्त राष्ट्र , भारतीय संसद , यूरोपीय संसद , ब्रिटिश हॉउस ऑफ लॉर्ड्स , हॉउस ऑफ कॉमंस , विश्व आर्थिक मंच और अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में विचार किया जा चुका है. उन्होंने ” ब्लू पीस ” नाम कि अवधारणा तैयार की, जिससे जल को राष्ट्रोंके बीच शांति के साधनों के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. वे ‘विवाद का मूल्य’ प्रणाली के अग्रदूत हैं, जिससे किसी भी विवाद के मूल्यों को करीब 100 मानदंडों पर मापा जा सकता है. संदीप वासलेकर ने कई पुस्तकें और शोधपत्र लिखेंहैं. उन्होंने करीब पचास देशों की यात्राएं की हैं. 1500 से अधिक समाचार-पत्रों , टेलीविजनचैनलों और वेबसाईटों ने उनकेसाक्षात्कार लिए हैं और उनके बारे में लिखा है. उन्होंने इंग्लैण्ड की ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से दर्शनशास्त्र,राजनीति शास्त्र और अर्थशास्त्र की पढ़ाई की है. हाल ही में उन्हें पुणे की सिम्बोसिसइंटरनेशनल यूनिवर्सिटी में भारतीय राष्ट्रपति के हाथों मानद डी.लिट. उपाधि प्रदान की गई.
उनके बहुआयामी अनुभवों को समाहित कर स्वतंत्र पत्रकार एवं आर.टी.आई एक्टिविस्ट गोपाल प्रसाद द्वारा प्रस्तुत आलेखके प्रमुख अंश….
स्वीडन निवासी आज अत्याधुनिक जीवन जी रहे हैं . उन्हें कोई भी श्रम अथवा भागदौड़ नहीं करनी पड़ती. शिक्षा तथा चिकित्सा सेवा सरकार उपलब्ध कराती है. इसके लिए उन्हें कोई व्यय नहीं करना पड़ता . सफाई कर्मचारी से लेकर वरिष्ठ अधिकारीयों तक सबको अच्छा वेतन मिलता है. किसानों को बड़े पैमाने पर सब्सिडी दी जाती है . अल्पसंख्यक लोग विशेष रूप से सुखी हैं दुनियां के अनेक देशो से लोग स्वीडन में जाकर बसते हैं वहां दंगे हिंसाचार अथवा हड़ताले नहीं होती . सभी लोग स्वप्रेरणा से अनुशासित हैं. कभी कोई गाडी आगे निकालने के लिए दूसरी गाड़ियों का जाम नहीं लगवाता , न ही कोई सिग्नल तोड़ता है. कोई भी न तो सड़क पर थूकता है, न ही कचरा करता है. स्वीडिश लोग मितभाषी हैं. पड़ोसियों से दोस्ती नहीं करते , मगर संकट के समय किसी की भी मदद के लिए सदैव तत्पर रहते हैं. स्वीडन ने अपने विकास की व्याख्या सामजिक , सांस्कृतिक , राजनीतिक और आर्थिक उत्कर्ष के रूप में की है. यह देखकर स्वाभाविक रूप से मन में यह विचार आता है की इतनी कम कालावधि में सर्वसमावेशक तथा सर्वांगीण विकास करना के लिए कैसे संभव हो सका, अर्थात इसका श्री यदि किसी को दिया जा सकता है तो वह विकास की रह दिखानेवाले नेतृत्व को तथा उसपर चलनेवाली सम्पूर्ण जनता को . वास्तविकता यह है की जार्जटाउन अथवा स्टॉकहोम की भंति भारतीय शहरों का भी कायाकल्प सहज संभव है. फिर भी ऐसा नहीं हो रहा तो क्यों? असफलता के लिए स्पष्टीकरण देने में हमारे नेता निपुण हैं. शत्रु राष्ट्रों के उपद्रव एवं भौगोलिक परिस्थितियों के कारण विकास संभव नहीं हो सका, ऐसे स्पष्टीकरण राजनीतिज्ञों द्वारा दिए जाते हैं . मगर ये स्पष्टीकरण कितने आधारहीन हैं यह हमें दुनियां के अन्य देशों के उदाहरण देखकर पता चलता है.
दुर्गम क्षेत्रमें स्थित गांवों का विकास होना चाहिए . उन्हें मुख्य प्रवाह में लाया जानाचाहिए . सर्वसामान्य जनता का जीवन स्तर यूरोपियन लोगों के समकक्षलाया जाना चाहिए. रेसीप अर्दोगान नेपहले अत्याधुनिक तकनीक से शोधकार्य किया . उन्हें पता चला की सामान्य जनता के लिए न्याय तथा विकास इन दो चीजों का महत्त्वसर्वाधिक है. इसलिए उन्होंने पार्टी का नाम न्याय तथा विकास पार्टी रखा . तुर्किस्तान केएसियाई क्षेत्र में अनातोलिया सर्वाधिक पिछड़ाप्रदेश है. वहां के छोटे उद्योगपति , व्यापारी , विद्यार्थीसबका आत्मविश्वास तथा आर्थिक आय बढे इस उद्देश्य सेउन्होंने समाज के कमजोर वर्गोंके लिए लाभकारी उदारीकरण किया . तुलनात्मक दृष्टि से कहें तो , अपने यहाँ विदेशी मुद्रा , आयात-निर्यात और बड़े उद्योग मुक्त अर्थनीति के केंद्र हैं. मगर भारतीय किसान मात्र कृषि उपज मंदी संबंधी कानूनों , सहकारी कृषि की झोलबन्दी तथा निवेश के अभाव के कारण गरीब बना हुआ है . अर्दोगान ने तुर्की के किसानों तथा छोटे उद्योगपतियों के लिए हानिकारक प्रतिबन्ध हटा दिए . उनके विकास के लिए आर्थिक निवेश किया . ग्रामीण स्त्रियों के लिए पारंपरिक वेश में शहरी शिक्षा प्राप्त करना संभव बनाया . सीरिया , आर्मेनिया, ग्रीस आदि सभी शत्रु देशों के साथ समझौते कर वैमनस्य ख़त्म किया और रक्षा पर होनेवाले व्यय कीबची राशि ग्रामीण विकास पर खर्च की. देश का एक नई दिशामें सफर शुरू हुआ , उन्हें दिशा मिल गई और विकास के इस नए सुर में सभी नागरिकों ने भी अपना सुर मिलाया .
उपजाऊ भूमि का आभाव , पानी का अकाल , अरब देशों से बैर होने से इंधन की भी कमी , ऐसी प्रतिकूल परिस्थिति में भी इजराइल ने कृषि और औद्योगिक क्षेत्रों में विकास कर पिछले 60 बर्षों में अधिकांस नागरिकों को विकास की मूलधारा में समाविष्ट कर लिया है. कहावत है की कभी भारत में घरों पर सोने केकवेलू हुआ करते थे . यहाँ की संपत्ति , उपजाऊ जमीन और अनुकूल वातावरण सारी दुनिया के लिए ईर्ष्या का कारण थे. यही कारण है की विदेशी आक्रमणकारियों ने इसे बार- बार लूटा. मगर यह इतिहास है. स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भौगोलिक स्थितिअनुकूल होने , पर्याप्त संसाधन होते हुए और किसी भी प्रकार के मानव संसाधनों की कमी न होने के बाबजूद विकास के क्षेत्र में दुनिया के अनेक देशों से हम आज भी बहुत पीछे हैं, इसका क्या कारण है?
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय एक नवजात शिशु के सामान रहे इस देश की आयु आज 65 बर्ष से अधिक है. उदार अर्थव्यवस्था स्वीकार किए भी हमें बीस बर्ष हो चुके हैं . हमारे गणित क्यों गलत हो रहे हैं? क्यों जनता को योग्य दिशा देने में हमारे राजनीतिज्ञ असफल हुए हैं? क्या शासकीय व्यवस्थाओं की त्रुटियाँ , कमियां , निष्क्रियता, जनता के दबाब काअभावइसके लिए जिम्मेदार है? इस सबके बारे में आत्मचिंतनकरने पर एक बात तीव्रता से महसूस होतीहै – वह यह की हमें किस दिशा में आगे बढ़ाना है, यह अभी भी स्पष्ट नहीं है. परतंत्रता के दिनों में असंभव प्रतीत होनेवाला स्वतंत्रता का एकमात्र ध्येय सभी भारतीय नागरिकों के समक्ष था. इस ध्येय की प्राप्ति के लिए सारा देश एक दिल से , एकजुटता से , एक दिशा में आगे बढ़ रहा था. उस संघर्ष में हमें स्वतंत्रता की प्राप्ति हुई. उसके बाद अपने देश के विकास का स्वप्न प्रत्येक की आँखों में था. उसके लिए दिशा निर्धारित करने का प्रयत्न भी हुआ . पंडित नेहरु ने बाँधों, इस्पात संयंत्रों तथा उच्च अभियांत्रिकी शिक्षा संस्थानों के निर्माण पर जोर दिया . इंदिरा गांधी ने छोटे – छोटे गाँव तक बैंकों का जाल फैलाया. हरित क्रांति का मार्ग दिखाया. राजीव गांधी ने कंप्यूटर और यातायात के क्षेत्र में क्रांति की. देश आधुनिकता की दिशा में तेजी से आगे बाधा. नरसिंहराव के कार्यकाल में मुक्त अर्थव्यवस्था लागू की गई. जीवनावश्यक वस्तुओं का अभाव कम हुआ . अटल बिहारी वाजपेयी ने ग्राम सड़क योजना के माध्यम से गांवों को आपस में जोड़ा. शहरों को मंडियों से जोड़ा. डा. मनमोहन सिंह ने भी रोजगार योजना , किसानों की कर्ज माफी , ग्रामीण विकास की योजनाएं बनाई. प्रत्येक प्रधानमंत्री के कार्यकाल में प्रयत्न किए जाने पर भी 6 दशकों के बाद भी देश में गिनती के लोग संपन्न हैं. बाकी सारे विपन्न. ऐसी परिस्थिति क्यों है? इस सीधे और सरल प्रश्न का उत्तर खोजना हमारे लिए टेढ़ी खीर साबित हो रहा है. हमें उसी का उत्तर खोजना होगा.
हम बहुत विकसित हो गए हैं आधुनिक हो गए हैं , ऐसा हम समझते हैं. यह केवल विशिष्ट वर्ग की जीवनशैली के कारण. मुट्ठी भर धनिकों का संपत्ति प्रदर्शन , उनकी बड़ाई , उपभोगवाद , ऐश आराम के कारण अपना देश बहुत विकसित हो रहा है, ऐसा कृत्रिम चित्र खड़ा हो रहा है. दिल्ली, मुम्बई , पुणे , नागपुर, इंदौर, बेंगलुरु में दिखने का प्रयत्न किया जाता है. बाजार – हाट का बदला स्वरुप , चमचमाते मॉल्स के रूप में दिखाई देता है. विदेशी ब्रांड्स का प्रदर्शन करते फैशन , पति-पत्नी – बच्चों के लिए अलग-अलग गाड़ियाँ, विदेशों में शिक्षा प्राप्ति के लिए बच्चों को भेजने की होड़ , डिस्को-डंडिया और लाखों रुपयों की दही हंडिया लगाकर आधुनिक पद्धति से माने जानेवाले त्यौहार , अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा और दर्जा बनाए रखने के लिए करनी पद रही कसरत, उसके लिए सिर पर चढ़ाता कर्जा का बोझ , आर्थिक श्रोत जुटाने के लिए , विनियोग और झटपट धन कमाने के लिए शेयर मार्केट जैसे विकल्प या शॉर्टकट्स , बाद में आयकर अधिकारियों से लेकर बैंक प्रबंधकों तक को पटाने के लिए की जानेवाली भागदौड़ और उसके कारण होनेवाले भ्रष्ट व्यव्हार , यह सब विशाल महासागर से भटक रही दिशाहीन नौका की तरह है. विकास का सम्बन्ध विचारों से तथा सकारात्मक कृति से है, केवल संपत्ति से नहीं, यह हम भूल जाते हैं.केवल धनप्राप्ति से जीवन काध्येय प्राप्त हो गया ऐसा मानना जीवन के बारे में अतिशय संकुचित करने जैसा है. अपने यहाँ सॉफ्टवेयर ,बायोटेक कुछ मात्रा में सौर शक्ति जैसे आधुनिक क्षेत्रों में कुछ युवकों ने शैक्षणिक संस्थाएं खड़ी की. , इसके पीछे उनका उद्देश्य हम स्वयं और दूसरों के लिए कुछ अच्छा कार्य करना था. ऐसे सकारात्मक कार्य से उन्हें समाधान मिला , आनंद मिला. सेवा क्षेत्र में बाबा आमटे , अन्ना हजारे , पांडुरंग शास्त्री आठवले, अभय बंग तो उद्योग क्षेत्र में नंदन निलेकणी , किरण मजुमदार जैसे अनेक उदाहरण याद आते हैं. मगर 115 करोड़ के भारतबर्ष में ऐसे व्यक्ति बिरले ही हैं. अधिकांश लोगों को धन संचय बढ़ाने में ही समाधान मिलता है, मगर उन्हें संतुष्टि कभी भी नहीं मिलती. संपत्ति और महत्वाकांक्षाओं की मर्यादाएं नहीं होती .हम इसके बजाय उसके पीछे अंधे होकर दौड़ते रहते हैं तथा अपनी दिशा भूल जाते हैं. जब समाज के बहुसंख्य लोग सकारात्मक विचार करना छोड़कर संपत्ति और लालसाओं के पीछे दौड़ने लगते हैं, तब उनके हाथ तो कुछ आता नहीं समाज भी दिशाहीन हो जाता है.
वैश्वीकरण की प्रक्रिया में अपना स्थान और सहभाग जांचने के उद्देश्य से ” स्ट्रेटेजिक फोरसाईट ग्रुप ” के अध्ययनकर्ताओं ने ‘भारत काभविष्य ‘बिषय पर 2002 में प्रतिवेदन बनाना प्राम्भ किया . उनके द्वारा किए गए अध्ययन केअनुसार 2001 में लगभग 10 करोड़ लोग रोटी , कपड़ा, मकान की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करनेमें सक्षम थे. उनमें कुछ दुपहिया वहां रखने , कभी -कभार छुट्टियाँ मनाने के लिए बाहर जाने जैसी थोड़ी बहुतमौज – मस्ती करने में भी सक्षम थे. दूसरे वर्ग के 80 करोड़ लोग अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने में भी सक्षम नहीं थे. पिछले दशक में हमें कुछ तकगरीबी हटाने में सफलता मिली है. मगर जनसँख्या में वृद्धि के कारण गरीबों की संख्या में कमीनहीं आ सकी है. यही स्थिति आजभी बनी हुई है. यह जानकारी वर्तमान अध्ययन के आंकड़ों से स्पष्ट होती है. आज सन 2010में भारत की जनसँख्या 115 करोड़ है. इसमें से 35 करोड़ लोग उच्च अथवा मध्यमवर्गीय हैं.80 करोड़ लोग दरिद्रता का जीवन जी रहे है.सन 2005 में भारत की जनसँख्या 140 करोड़ होगी . उसमेसे 60 करोड़ लोग सुखमय जीवन जीवन जीने में सक्षम होंगे तो 80 करोड़ लोगों का जीवन कष्टमय बना रहेगा. इस प्रकार 80करोड़ लोगों के निर्धन रहते देश की प्रगतिअसंभव है. आज भले ही उच्च मध्यमवर्गीय लोगों की संख्या 35 करोड़ हो , मगर उनमें से 30 करोड़ लोग अभी भी हासिये पर हैं. माह के अंत में उनके हाथ तंग होते हैं, बच्चों कीपढ़ाई पूरी होने के बाद नौकरीके लिए उन्हें दर-दर भटकना पड़ता है,परेशान होना पड़ता है, अपनी परेशानियों को भुलानेके लिए वे सिनेमा देखकर उसके नायकके संघर्ष के साथ खुद की तुलनाकरते हैं.
भारत में लगभग 35 करोड़ मध्
यमवर्गीय जनसँख्या बताई जाती है
. वास्तव में हमारे यहाँ तीन
वर्ग हैं – गाडीवाले, बाईकवाले
और बैलगाड़ीवाले . इनमें से के
वल 5 करोड़ गाड़ीवाले हैं 30
करोड़ बाईकवाले और शेष 80 करोड़ बैलगाड़ीवाले हैं. हकीकत तो यह है की इनमें से अधिकांश के नसीब में बैलगाड़ी भी नहीं है. पिछले
10 बर्षों में हमारे देश में समृद्धि आई है,
ऐसा कहा जाता है , क्योंकि सन 2001 की 2 -3 करोड़ गाडीवालों तथा 15 करोड़ बाईकवालों की
संख्या आज दोगुनी हुई है. मगर
बैलगाड़ी अर्थव्यवस्था के जंजा
ल में जकडे 80 करोड़ की स्थिति आज भी वही है.
सन 2001 में स्ट्रेटेजिक फोरसाईट ग्रुपने जब भारतीय अर्थव्यवस्था के सम्बन्ध में अपना प्रतिवेदनप्रस्तुत किया , तब ग्रामीण क्षेत्र में परिवर्तन के लिए आने क सुझाव दिए थे . पिछले 10 बर्षों में अनेक बड़े उद्योग समूहों ने कृषि के क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है . इनमें से कुछ लोगों ने इमानदारी से किसानों को अच्छा मूल्य मिले इसलिए अनाज के संग्रहण हेतु उच्च स्तर के गोदाम तथा शहरी ग्राहकों केसाथ सीधे संपर्क हेतु योजनाएंभी दीं. मगर यह बहुत कम मात्रा में ही हुआ.
सामान्य किसान आज भी गरीब ही बना हुआ है. भारत के बीस करोड़ किसानों और कृषि मजदूरों में से मुश्किल से 20 लाख किसानों के पास ट्रैक्टर हैं. कुल 8 -10 करोड़ दुग्ध उत्पादकों में से मुश्किल से 8 हजार के पास दूध निकालने के आधुनिक यंत्र हैं . गांवों में रहनेवाले लोगों के कष्ट देखकर, भारत को आर्थिक महाशक्ति कहनेवाले लोगों को शर्म आनी चाहिए . महाराष्ट्र में पहले मुख्य रूप से ठाणे ,रत्नागिरी , रायगढ़ , पुणे औरसतारा जिले के लोग नौकरी हेतुशहरों में आ बसते थे. मगर वर्तमान में तथाकथित आर्थिक महाशक्ति के पर्व में लातूर, नांदेड , सोलापुर , परभणी, जालना , बीड़,उस्मानाबाद जिलों से भी शहरों की तरफ आने का क्रम बढ़ने लगाहै. इन्हीं जिलों में उग्रवादी संगठनों की जड़ेंभी मजबूत हो रही है, अर्थात गाँव के किसान उमड़ रहे हैं, बड़े शहरों की और तो शहर का उच्च वर्ग उमड़ रहा है-वीजा प्राप्त करनेके लिए अमेरिका, इंग्लैण्ड या ऑस्ट्रेलिया के दूतावासों की ओर .जो ग्रामीण शहर नहीं जा पातेअथवा शहर के जिस अशिक्षित वर्ग को विदेशी दूतावास घास नहीं डालते ,वे शामिल हो जाते हैं गुंडों की टोली में या फिर उग्रवादी संगठनों में. प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अलग दिशा है. ऐसी परिस्थिति में भारत राष्ट्र की दिशा क्या हो? क्या इस दिशा की खोज करना तत्काल जरूरी नहीं है?
By : GOPAL PRASAD ( RTI Activist)
House No.-210, St. No.-3, Pal Mohalla
Near Mohanbaba Mandir,Mandawali, Delhi-110092
Mobile:09289723144,08743057056
सर्वसमावेशक विकास की अवधारणा को अमल में लाकर भारतीय नागरिकों की उन्नति करना हमारे देश के समक्ष आज की सबसे बड़ी चुनौती है. उच्च वर्ग से लेकर सर्वाधिक पिछड़े व्यक्ति तक सबको एक साथ एक दिशा में आगे बढ़ने की आवश्यकता है. उसी को गांधीजी के शब्दों में ” अन्त्योदय ” कहा जाएगा. यह विचार सबसे पहले उन्होंने ही प्रतिपादित किया था. उसका महत्व वे जानते थे. भारत के अंतिम नागरिक के आंसू पोंछे जाएँगे , तभी हमारा देश सच्चे अर्थों में स्वतंत्र कहलाएगा, यह उन्होंने ही कहा था. महात्मा गांधी के इस दूरदर्शी सोच को वास्तविक रूप में समझकरआत्मसात करने एवं भविष्य की चुनौतियों के बारे में देश एवं विदेश की सरकार को सलाह देने का उत्कृष्ट एवंप्रशंसनीय कार्य किया है-संदीप वासलेकरने, जो ”स्ट्रेटेजिक फोरसाईट ग्रुप‘‘ के अध्यक्ष भी हैं. अभी हाल ही में इनके द्वारा रचित पुस्तक ” नए भारत का निर्माण ” प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित हुई है. यह पुस्तक डेढ़ साल पहले सर्वप्रथम मराठी में प्रकाशित हुई थी . आठ संस्करणों , उर्दू अनुवाद और दृष्टिबाधितों के लिए ऑडियो संस्करण के साथ यह बेस्टसेलर बनी हुई है. अनगिनत लोगों के जीवन को यह पहले ही बदल चुकी है.
भारत में भ्रष्टाचार , आतंकवाद , पर्यावरण -क्षति जैसी चुनौतियों से निपटने की क्या उम्मीद है?हम ऐसा राष्ट्र किस प्रकार बनासकते हैं, जो आम आदमी का जीवन स्तर सुधार सके ? ऐसा राष्ट्र किस प्रकार बनाया जा सकता है, जहाँआतंकवादी और अपराधी अपनी करतूतोको अंजाम देने के बारे में सोच भी न सकें? ऐसा राष्ट्र किस प्रकार बनाया जा सकता है ,जो विश्व में जल्द ही संभावितचतुर्थ औद्योगिक क्रांति में प्रमुख भूमिका निभा सके? सबसे महत्वपूर्ण यह है कि इन 7 -8 बर्षों में किस प्रकार आर्थिक , सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यवार्नीय परिवर्तनला सकते हैं? लाखों भारतीय लोगों के मन में उठाने वाले कई कठिनप्रश्नों के उत्तर इस पुस्तक में है. इन्हें लेखक कि 50 से अधिक देशों के राजनेताओं , सामाजिक परिवर्तकों, व्यवसायियोऔर आतंकवादियों से हुई बातचीत के आधार पर तैयार किया गया है. इस पुस्तक में समस्याओं के समाधान तथा भारत के युवा नागरिकों के लिए रूपरेखा उपलब्ध कराई गई है. यह आश्वस्त करती है कि अगर हम नई दिशा कि तलाश करें , तो भारत का भविष्य उससे भी बेहतर हो सकता है, जितना कि हम सोचते हैं.
आपको जानकर सुखद लगेगा कि संदीप वासलेकर नई नीति अवधारणाएँ तैयार करने के लिएजाने जाते हैं, जिन पर संयुक्त राष्ट्र , भारतीय संसद , यूरोपीय संसद , ब्रिटिश हॉउस ऑफ लॉर्ड्स , हॉउस ऑफ कॉमंस , विश्व आर्थिक मंच और अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में विचार किया जा चुका है. उन्होंने ” ब्लू पीस ” नाम कि अवधारणा तैयार की, जिससे जल को राष्ट्रोंके बीच शांति के साधनों के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. वे ‘विवाद का मूल्य’ प्रणाली के अग्रदूत हैं, जिससे किसी भी विवाद के मूल्यों को करीब 100 मानदंडों पर मापा जा सकता है. संदीप वासलेकर ने कई पुस्तकें और शोधपत्र लिखेंहैं. उन्होंने करीब पचास देशों की यात्राएं की हैं. 1500 से अधिक समाचार-पत्रों , टेलीविजनचैनलों और वेबसाईटों ने उनकेसाक्षात्कार लिए हैं और उनके बारे में लिखा है. उन्होंने इंग्लैण्ड की ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से दर्शनशास्त्र,राजनीति शास्त्र और अर्थशास्त्र की पढ़ाई की है. हाल ही में उन्हें पुणे की सिम्बोसिसइंटरनेशनल यूनिवर्सिटी में भारतीय राष्ट्रपति के हाथों मानद डी.लिट. उपाधि प्रदान की गई.
उनके बहुआयामी अनुभवों को समाहित कर स्वतंत्र पत्रकार एवं आर.टी.आई एक्टिविस्ट गोपाल प्रसाद द्वारा प्रस्तुत आलेखके प्रमुख अंश….
स्वीडन निवासी आज अत्याधुनिक जीवन जी रहे हैं . उन्हें कोई भी श्रम अथवा भागदौड़ नहीं करनी पड़ती. शिक्षा तथा चिकित्सा सेवा सरकार उपलब्ध कराती है. इसके लिए उन्हें कोई व्यय नहीं करना पड़ता . सफाई कर्मचारी से लेकर वरिष्ठ अधिकारीयों तक सबको अच्छा वेतन मिलता है. किसानों को बड़े पैमाने पर सब्सिडी दी जाती है . अल्पसंख्यक लोग विशेष रूप से सुखी हैं दुनियां के अनेक देशो से लोग स्वीडन में जाकर बसते हैं वहां दंगे हिंसाचार अथवा हड़ताले नहीं होती . सभी लोग स्वप्रेरणा से अनुशासित हैं. कभी कोई गाडी आगे निकालने के लिए दूसरी गाड़ियों का जाम नहीं लगवाता , न ही कोई सिग्नल तोड़ता है. कोई भी न तो सड़क पर थूकता है, न ही कचरा करता है. स्वीडिश लोग मितभाषी हैं. पड़ोसियों से दोस्ती नहीं करते , मगर संकट के समय किसी की भी मदद के लिए सदैव तत्पर रहते हैं. स्वीडन ने अपने विकास की व्याख्या सामजिक , सांस्कृतिक , राजनीतिक और आर्थिक उत्कर्ष के रूप में की है. यह देखकर स्वाभाविक रूप से मन में यह विचार आता है की इतनी कम कालावधि में सर्वसमावेशक तथा सर्वांगीण विकास करना के लिए कैसे संभव हो सका, अर्थात इसका श्री यदि किसी को दिया जा सकता है तो वह विकास की रह दिखानेवाले नेतृत्व को तथा उसपर चलनेवाली सम्पूर्ण जनता को . वास्तविकता यह है की जार्जटाउन अथवा स्टॉकहोम की भंति भारतीय शहरों का भी कायाकल्प सहज संभव है. फिर भी ऐसा नहीं हो रहा तो क्यों? असफलता के लिए स्पष्टीकरण देने में हमारे नेता निपुण हैं. शत्रु राष्ट्रों के उपद्रव एवं भौगोलिक परिस्थितियों के कारण विकास संभव नहीं हो सका, ऐसे स्पष्टीकरण राजनीतिज्ञों द्वारा दिए जाते हैं . मगर ये स्पष्टीकरण कितने आधारहीन हैं यह हमें दुनियां के अन्य देशों के उदाहरण देखकर पता चलता है.
दुर्गम क्षेत्रमें स्थित गांवों का विकास होना चाहिए . उन्हें मुख्य प्रवाह में लाया जानाचाहिए . सर्वसामान्य जनता का जीवन स्तर यूरोपियन लोगों के समकक्षलाया जाना चाहिए. रेसीप अर्दोगान नेपहले अत्याधुनिक तकनीक से शोधकार्य किया . उन्हें पता चला की सामान्य जनता के लिए न्याय तथा विकास इन दो चीजों का महत्त्वसर्वाधिक है. इसलिए उन्होंने पार्टी का नाम न्याय तथा विकास पार्टी रखा . तुर्किस्तान केएसियाई क्षेत्र में अनातोलिया सर्वाधिक पिछड़ाप्रदेश है. वहां के छोटे उद्योगपति , व्यापारी , विद्यार्थीसबका आत्मविश्वास तथा आर्थिक आय बढे इस उद्देश्य सेउन्होंने समाज के कमजोर वर्गोंके लिए लाभकारी उदारीकरण किया . तुलनात्मक दृष्टि से कहें तो , अपने यहाँ विदेशी मुद्रा , आयात-निर्यात और बड़े उद्योग मुक्त अर्थनीति के केंद्र हैं. मगर भारतीय किसान मात्र कृषि उपज मंदी संबंधी कानूनों , सहकारी कृषि की झोलबन्दी तथा निवेश के अभाव के कारण गरीब बना हुआ है . अर्दोगान ने तुर्की के किसानों तथा छोटे उद्योगपतियों के लिए हानिकारक प्रतिबन्ध हटा दिए . उनके विकास के लिए आर्थिक निवेश किया . ग्रामीण स्त्रियों के लिए पारंपरिक वेश में शहरी शिक्षा प्राप्त करना संभव बनाया . सीरिया , आर्मेनिया, ग्रीस आदि सभी शत्रु देशों के साथ समझौते कर वैमनस्य ख़त्म किया और रक्षा पर होनेवाले व्यय कीबची राशि ग्रामीण विकास पर खर्च की. देश का एक नई दिशामें सफर शुरू हुआ , उन्हें दिशा मिल गई और विकास के इस नए सुर में सभी नागरिकों ने भी अपना सुर मिलाया .
उपजाऊ भूमि का आभाव , पानी का अकाल , अरब देशों से बैर होने से इंधन की भी कमी , ऐसी प्रतिकूल परिस्थिति में भी इजराइल ने कृषि और औद्योगिक क्षेत्रों में विकास कर पिछले 60 बर्षों में अधिकांस नागरिकों को विकास की मूलधारा में समाविष्ट कर लिया है. कहावत है की कभी भारत में घरों पर सोने केकवेलू हुआ करते थे . यहाँ की संपत्ति , उपजाऊ जमीन और अनुकूल वातावरण सारी दुनिया के लिए ईर्ष्या का कारण थे. यही कारण है की विदेशी आक्रमणकारियों ने इसे बार- बार लूटा. मगर यह इतिहास है. स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भौगोलिक स्थितिअनुकूल होने , पर्याप्त संसाधन होते हुए और किसी भी प्रकार के मानव संसाधनों की कमी न होने के बाबजूद विकास के क्षेत्र में दुनिया के अनेक देशों से हम आज भी बहुत पीछे हैं, इसका क्या कारण है?
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय एक नवजात शिशु के सामान रहे इस देश की आयु आज 65 बर्ष से अधिक है. उदार अर्थव्यवस्था स्वीकार किए भी हमें बीस बर्ष हो चुके हैं . हमारे गणित क्यों गलत हो रहे हैं? क्यों जनता को योग्य दिशा देने में हमारे राजनीतिज्ञ असफल हुए हैं? क्या शासकीय व्यवस्थाओं की त्रुटियाँ , कमियां , निष्क्रियता, जनता के दबाब काअभावइसके लिए जिम्मेदार है? इस सबके बारे में आत्मचिंतनकरने पर एक बात तीव्रता से महसूस होतीहै – वह यह की हमें किस दिशा में आगे बढ़ाना है, यह अभी भी स्पष्ट नहीं है. परतंत्रता के दिनों में असंभव प्रतीत होनेवाला स्वतंत्रता का एकमात्र ध्येय सभी भारतीय नागरिकों के समक्ष था. इस ध्येय की प्राप्ति के लिए सारा देश एक दिल से , एकजुटता से , एक दिशा में आगे बढ़ रहा था. उस संघर्ष में हमें स्वतंत्रता की प्राप्ति हुई. उसके बाद अपने देश के विकास का स्वप्न प्रत्येक की आँखों में था. उसके लिए दिशा निर्धारित करने का प्रयत्न भी हुआ . पंडित नेहरु ने बाँधों, इस्पात संयंत्रों तथा उच्च अभियांत्रिकी शिक्षा संस्थानों के निर्माण पर जोर दिया . इंदिरा गांधी ने छोटे – छोटे गाँव तक बैंकों का जाल फैलाया. हरित क्रांति का मार्ग दिखाया. राजीव गांधी ने कंप्यूटर और यातायात के क्षेत्र में क्रांति की. देश आधुनिकता की दिशा में तेजी से आगे बाधा. नरसिंहराव के कार्यकाल में मुक्त अर्थव्यवस्था लागू की गई. जीवनावश्यक वस्तुओं का अभाव कम हुआ . अटल बिहारी वाजपेयी ने ग्राम सड़क योजना के माध्यम से गांवों को आपस में जोड़ा. शहरों को मंडियों से जोड़ा. डा. मनमोहन सिंह ने भी रोजगार योजना , किसानों की कर्ज माफी , ग्रामीण विकास की योजनाएं बनाई. प्रत्येक प्रधानमंत्री के कार्यकाल में प्रयत्न किए जाने पर भी 6 दशकों के बाद भी देश में गिनती के लोग संपन्न हैं. बाकी सारे विपन्न. ऐसी परिस्थिति क्यों है? इस सीधे और सरल प्रश्न का उत्तर खोजना हमारे लिए टेढ़ी खीर साबित हो रहा है. हमें उसी का उत्तर खोजना होगा.
हम बहुत विकसित हो गए हैं आधुनिक हो गए हैं , ऐसा हम समझते हैं. यह केवल विशिष्ट वर्ग की जीवनशैली के कारण. मुट्ठी भर धनिकों का संपत्ति प्रदर्शन , उनकी बड़ाई , उपभोगवाद , ऐश आराम के कारण अपना देश बहुत विकसित हो रहा है, ऐसा कृत्रिम चित्र खड़ा हो रहा है. दिल्ली, मुम्बई , पुणे , नागपुर, इंदौर, बेंगलुरु में दिखने का प्रयत्न किया जाता है. बाजार – हाट का बदला स्वरुप , चमचमाते मॉल्स के रूप में दिखाई देता है. विदेशी ब्रांड्स का प्रदर्शन करते फैशन , पति-पत्नी – बच्चों के लिए अलग-अलग गाड़ियाँ, विदेशों में शिक्षा प्राप्ति के लिए बच्चों को भेजने की होड़ , डिस्को-डंडिया और लाखों रुपयों की दही हंडिया लगाकर आधुनिक पद्धति से माने जानेवाले त्यौहार , अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा और दर्जा बनाए रखने के लिए करनी पद रही कसरत, उसके लिए सिर पर चढ़ाता कर्जा का बोझ , आर्थिक श्रोत जुटाने के लिए , विनियोग और झटपट धन कमाने के लिए शेयर मार्केट जैसे विकल्प या शॉर्टकट्स , बाद में आयकर अधिकारियों से लेकर बैंक प्रबंधकों तक को पटाने के लिए की जानेवाली भागदौड़ और उसके कारण होनेवाले भ्रष्ट व्यव्हार , यह सब विशाल महासागर से भटक रही दिशाहीन नौका की तरह है. विकास का सम्बन्ध विचारों से तथा सकारात्मक कृति से है, केवल संपत्ति से नहीं, यह हम भूल जाते हैं.केवल धनप्राप्ति से जीवन काध्येय प्राप्त हो गया ऐसा मानना जीवन के बारे में अतिशय संकुचित करने जैसा है. अपने यहाँ सॉफ्टवेयर ,बायोटेक कुछ मात्रा में सौर शक्ति जैसे आधुनिक क्षेत्रों में कुछ युवकों ने शैक्षणिक संस्थाएं खड़ी की. , इसके पीछे उनका उद्देश्य हम स्वयं और दूसरों के लिए कुछ अच्छा कार्य करना था. ऐसे सकारात्मक कार्य से उन्हें समाधान मिला , आनंद मिला. सेवा क्षेत्र में बाबा आमटे , अन्ना हजारे , पांडुरंग शास्त्री आठवले, अभय बंग तो उद्योग क्षेत्र में नंदन निलेकणी , किरण मजुमदार जैसे अनेक उदाहरण याद आते हैं. मगर 115 करोड़ के भारतबर्ष में ऐसे व्यक्ति बिरले ही हैं. अधिकांश लोगों को धन संचय बढ़ाने में ही समाधान मिलता है, मगर उन्हें संतुष्टि कभी भी नहीं मिलती. संपत्ति और महत्वाकांक्षाओं की मर्यादाएं नहीं होती .हम इसके बजाय उसके पीछे अंधे होकर दौड़ते रहते हैं तथा अपनी दिशा भूल जाते हैं. जब समाज के बहुसंख्य लोग सकारात्मक विचार करना छोड़कर संपत्ति और लालसाओं के पीछे दौड़ने लगते हैं, तब उनके हाथ तो कुछ आता नहीं समाज भी दिशाहीन हो जाता है.
वैश्वीकरण की प्रक्रिया में अपना स्थान और सहभाग जांचने के उद्देश्य से ” स्ट्रेटेजिक फोरसाईट ग्रुप ” के अध्ययनकर्ताओं ने ‘भारत काभविष्य ‘बिषय पर 2002 में प्रतिवेदन बनाना प्राम्भ किया . उनके द्वारा किए गए अध्ययन केअनुसार 2001 में लगभग 10 करोड़ लोग रोटी , कपड़ा, मकान की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करनेमें सक्षम थे. उनमें कुछ दुपहिया वहां रखने , कभी -कभार छुट्टियाँ मनाने के लिए बाहर जाने जैसी थोड़ी बहुतमौज – मस्ती करने में भी सक्षम थे. दूसरे वर्ग के 80 करोड़ लोग अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने में भी सक्षम नहीं थे. पिछले दशक में हमें कुछ तकगरीबी हटाने में सफलता मिली है. मगर जनसँख्या में वृद्धि के कारण गरीबों की संख्या में कमीनहीं आ सकी है. यही स्थिति आजभी बनी हुई है. यह जानकारी वर्तमान अध्ययन के आंकड़ों से स्पष्ट होती है. आज सन 2010में भारत की जनसँख्या 115 करोड़ है. इसमें से 35 करोड़ लोग उच्च अथवा मध्यमवर्गीय हैं.80 करोड़ लोग दरिद्रता का जीवन जी रहे है.सन 2005 में भारत की जनसँख्या 140 करोड़ होगी . उसमेसे 60 करोड़ लोग सुखमय जीवन जीवन जीने में सक्षम होंगे तो 80 करोड़ लोगों का जीवन कष्टमय बना रहेगा. इस प्रकार 80करोड़ लोगों के निर्धन रहते देश की प्रगतिअसंभव है. आज भले ही उच्च मध्यमवर्गीय लोगों की संख्या 35 करोड़ हो , मगर उनमें से 30 करोड़ लोग अभी भी हासिये पर हैं. माह के अंत में उनके हाथ तंग होते हैं, बच्चों कीपढ़ाई पूरी होने के बाद नौकरीके लिए उन्हें दर-दर भटकना पड़ता है,परेशान होना पड़ता है, अपनी परेशानियों को भुलानेके लिए वे सिनेमा देखकर उसके नायकके संघर्ष के साथ खुद की तुलनाकरते हैं.
भारत में लगभग 35 करोड़ मध्
यमवर्गीय जनसँख्या बताई जाती है
. वास्तव में हमारे यहाँ तीन
वर्ग हैं – गाडीवाले, बाईकवाले
और बैलगाड़ीवाले . इनमें से के
वल 5 करोड़ गाड़ीवाले हैं 30
करोड़ बाईकवाले और शेष 80 करोड़ बैलगाड़ीवाले हैं. हकीकत तो यह है की इनमें से अधिकांश के नसीब में बैलगाड़ी भी नहीं है. पिछले
10 बर्षों में हमारे देश में समृद्धि आई है,
ऐसा कहा जाता है , क्योंकि सन 2001 की 2 -3 करोड़ गाडीवालों तथा 15 करोड़ बाईकवालों की
संख्या आज दोगुनी हुई है. मगर
बैलगाड़ी अर्थव्यवस्था के जंजा
ल में जकडे 80 करोड़ की स्थिति आज भी वही है.
सन 2001 में स्ट्रेटेजिक फोरसाईट ग्रुपने जब भारतीय अर्थव्यवस्था के सम्बन्ध में अपना प्रतिवेदनप्रस्तुत किया , तब ग्रामीण क्षेत्र में परिवर्तन के लिए आने क सुझाव दिए थे . पिछले 10 बर्षों में अनेक बड़े उद्योग समूहों ने कृषि के क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है . इनमें से कुछ लोगों ने इमानदारी से किसानों को अच्छा मूल्य मिले इसलिए अनाज के संग्रहण हेतु उच्च स्तर के गोदाम तथा शहरी ग्राहकों केसाथ सीधे संपर्क हेतु योजनाएंभी दीं. मगर यह बहुत कम मात्रा में ही हुआ.
सामान्य किसान आज भी गरीब ही बना हुआ है. भारत के बीस करोड़ किसानों और कृषि मजदूरों में से मुश्किल से 20 लाख किसानों के पास ट्रैक्टर हैं. कुल 8 -10 करोड़ दुग्ध उत्पादकों में से मुश्किल से 8 हजार के पास दूध निकालने के आधुनिक यंत्र हैं . गांवों में रहनेवाले लोगों के कष्ट देखकर, भारत को आर्थिक महाशक्ति कहनेवाले लोगों को शर्म आनी चाहिए . महाराष्ट्र में पहले मुख्य रूप से ठाणे ,रत्नागिरी , रायगढ़ , पुणे औरसतारा जिले के लोग नौकरी हेतुशहरों में आ बसते थे. मगर वर्तमान में तथाकथित आर्थिक महाशक्ति के पर्व में लातूर, नांदेड , सोलापुर , परभणी, जालना , बीड़,उस्मानाबाद जिलों से भी शहरों की तरफ आने का क्रम बढ़ने लगाहै. इन्हीं जिलों में उग्रवादी संगठनों की जड़ेंभी मजबूत हो रही है, अर्थात गाँव के किसान उमड़ रहे हैं, बड़े शहरों की और तो शहर का उच्च वर्ग उमड़ रहा है-वीजा प्राप्त करनेके लिए अमेरिका, इंग्लैण्ड या ऑस्ट्रेलिया के दूतावासों की ओर .जो ग्रामीण शहर नहीं जा पातेअथवा शहर के जिस अशिक्षित वर्ग को विदेशी दूतावास घास नहीं डालते ,वे शामिल हो जाते हैं गुंडों की टोली में या फिर उग्रवादी संगठनों में. प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अलग दिशा है. ऐसी परिस्थिति में भारत राष्ट्र की दिशा क्या हो? क्या इस दिशा की खोज करना तत्काल जरूरी नहीं है?
By : GOPAL PRASAD ( RTI Activist)
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