डॉ विवेक आर्य : जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी अर्थात जिसकी जैसी दृष्टि होती है, उसे वैसी ही मूरत नज़र आती है। तुलसी दास जी द्वारा कथित इस चौपाई का अनुसरण करते हुए हिन्दू समाज ईश्वर कि अलग अलग कल्पना करते हुए ईश्वर के यथार्थ गुण, कर्म और स्वाभाव को भूल ही गया। कोई मूर्तियों को ईश्वर मानने लगा, कोई गुरुओं (ईश्वर का अवतार) को ईश्वर मानने लगा, कोई भोगों (वाममार्ग) से ईश्वर प्राप्ति मानने लगा। इसका अंत परिणाम यही निकला कि मानव ईश्वर भक्ति के स्थान पर अन्धविश्वास में लिप्त होकर दुःखों को प्राप्त हुआ। स्वामी दयानंद तुलसीदास के इस कथन की बड़ी सुन्दर समीक्षा इस प्रकार से लिखते है।
“एक बात तो वे लोग कहते हैं कि पाषणादिक तो देव नहीं है, परन्तु भाव से वे देव हो जाते हैं। उनसे पूछना चाहिये कि भाव सत्य होता है वा मिथ्या? जो वे कहें कि भाव सत्य होता है, फिर उनसे पूछना चाहिये कि कोई भी मनुष्य दुःख का भाव नहीं करता , फिर उसको क्यों दुःख है? और सुख का भाव सब मनुष्य सदा चाहते हैं, उनको सुख सदा क्यों नहीं होता? फिर वे कहते हैं कि यह बात तो कर्म से होती है। अच्छा तो आपका भाव कुछ भी नहीं ठहरा अर्थात मिथ्या ही हुआ, सत्य नहीं हुआ। आप से मैं पूछता हूं कि अग्नि में जल का भाव करके हाथ डाले तो क्या वह न जल जायेगा? किन्तु जल ही जायगा। इससे क्या आया कि पाषाण को पाषाण ही मानना, और देव को देव मानना चाहिए, अन्यथा नहीं। इससे जो जैसा पदार्थ है वैसा ही उसको सज्जन लोग मानें।”
सन्दर्भ- स्वामी दयानंद सरस्वती का पत्र व्यवहार।
स्वामी जी कल्पित ईश्वर के स्थान पर वेद विदित यथार्थ ईश्वर कि स्तुति,उपासना और उपासना करने का सन्देश देते है। आर्यसमाज का द्वितीय नियम इसी अटल सिद्धांत पर आधारित है।
“ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वार्न्त्यार्मी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।”
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