दीपक आर्या : आज सुबह से सोच रहा हूँ गांधी जी के विषय में कुछ ब्राह्य लेकिन समझ नही आ रहा है आखिर गांधी जी की किस विचारधारा या दर्शन से में सबसे ज्यादा प्रभावित रहा हूँ। एक विचार मेरे दिल के अत्यधिक करीब है जो उन्होंने सन 1915 मैं अपने ऋषिकेश प्रवास के दौरान प्रकट किये थे और जिसे उन्होंने अपनी किताब ” माई एक्सपीरिएंस विद ट्रुथ” सत्य के साथ मेरे प्रयोग में भी प्रकट किया है की “जब तक अलग-अलग धर्म मौजूद हैं, तब तक प्रत्येक धर्म को किसी विशेष ब्राह्य चिन्ह की आवश्यकता हो सकती है। लेकिन जब ब्राह्य संज्ञा केवल आडंम्बर बन जाती है अथवा अपने धर्म को दुसरे धर्म से अलग बताने के काम आती है, तब वह त्याज्य हो जाती है।”
ये बात आज भी उसी रूप से कायम है। किसी विशेष धर्म में आस्था रखने का मतलब ये नही हैं के हम दूसरे धर्म के प्रति द्वेष भाव रखें या अन्य धर्मों को अपेक्षाकृत कमजोर या निम्न कोटि का समझें। इसी प्रकार का धार्मिक आडंम्बर का वर्णन एक अन्य जगह पर मिलता है जब लिखते है “गांधी हरिद्वार प्रवास के विषय में लिखते है ” यहाँ मैंने पाँच पैरों वाली एक गाय देखी। मुझे तो आश्चर्य हुआ, किन्तु अनुभवी लोगों ने मेरा अज्ञान तुरंत दूर कर दिया। पाँच पाँव दुष्ट और लोभी लोगों के लोभ का बली रूप था। गाय के कंधे चीरकर उसमें जिंदे बछड़े का काटा हुआ पैर फँसाकर कंधे को सिल दिया जाता था। और इस दोहरे कसाईपन का उपयोग लोगों को ठगने के लिए किया जाता था। इस प्रकार के अनेकों उदहारण आजकल मिल जाते है जहां धर्म को आडम्बर रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
मनुष्य को सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखना चाहिए एवम् सभी धर्मों के मूल को समझकर ही आचरण करना चाहिए। इस प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान या आचरण का कदापि अनुसरण जो किसी अन्य धर्म की मान्यताओं और विचारों पर आघात करतें हों। धर्म के प्रति आचरण व्यक्ति की व्यक्तिगत आस्था और विस्वास का परिणाम है। एवम् प्रत्येक व्यक्ति इसके लिए स्वतंत्र है की वह उस धर्म की मान्यताओं को स्वीकार करे अथवा नहीं किन्तु जिसमें भी आस्था रखे उनकी मान्यताओं का वैज्ञानिक एवं ठोस अध्ध्यन कर ले तथा रूढ़िवादी तथा अनावश्यक बातों को अस्वीकार करते हुए कट्टरवाद को समाप्त करके एक उदारवादी धार्मिक आचरण को अपने जीवन में अनुशरण करे।