जिस प्रकार पृथ्वी पर लगभग 68 से 70 प्रतिशत जल है, ठीक उसी प्रकार हमारे शरीर में भी 68 % से 70% तक जल है।
पानी और स्वास्थ्य- पानी की गुणवत्ता पर बहुत अधिक यह निर्भर करता है कि हमारा स्वास्थ्य कैसा होगा। हम जैसा पानी पीयेंगे वैसा हमारा स्वास्थ्य होगा। उसका प्रभाव हमारे शरीर पर और मन पर भी होगा। पर आज स्थिति यह है कि हमको अच्छा पानी लगातार दुर्लभ होता जा रहा है।
यह जल शुद्ध नहीं प्रदूषित है,- शुद्ध जल के नाम पर अनेक वर्षों से हम बोतलबंद, रसायनों से भरा पानी पीरहे हैं; यह कहकर कि यह मिनरल वाटर है। अनेक वर्ष तक यह ठगी चलती रही है। अब जाकर बोतलबंद पानी के ऊपर यह लिखने पर प्रतिबंध लगा है कि यह मिनरल वाटर है। पर फिर भी लोगों को आदत पड़ चुकी है और वे विषैला बोतलबंद पानी आज तक पीये जा रहे हैं।
घरों, संस्थानों व कार्यालयों में जो पानी पीने के लिए मिलता है वह भी पीने योग्य नहीं होता। RO का पानी हमारे स्वास्थ्य को बहुत हानि पहुंचाता है, अब विश्व स्वास्थ्य संगठन भी कहने लगा है। पर फिर भी आरओ का प्रचलन किसी प्रकार कम नहीं हुआ है।
सारे संसर में प्रतिबंधित क्लोरीन वाला पानी हम अभीतक पी रहे हैं। सारी दुनिया जानती है कि इससे भयावह रोग होते हैं। हार्ट फेल, सैल म्यूटेशन, कैंसर, विकृत संन्तानों का जन्म होता है। जिस अमेरीका ने क्लोरीनेशन हम पर थोंपी थी, जनमत के दबाव में अब तो उसने भी जलशोधन में कलोरीन का प्रयोग बन्द कर दिया है। पर हम भारत के लोग बेहोशी में वही विशाक्त जल पीये जारहे हैं।
जल के लिये युद्ध-
अनेक विश्व स्तर के संगठनों ने कहा है कि अगला युद्ध अब पानी के लिए लड़ा जाएगा। यानी मीठे पानी, पीने के पानी का अकाल पड़ने की पूरी तैयारी है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि पानी के लिए केवल विश्वयुद्ध नहीं होंगे, हरगांव, हर गली-मोहल्ले में पानी के लिए युद्ध होंगे।
पर हम इसके बारे में अभी तक जागरुक नहीं हुए हैं। परिणाम काफी गंभीर होने वाले हैं। ऊपर से विडम्बना यह है कि समाधान के लिए हमें जो सुझाव दिए जा रहे हैं, वे सुझाव बहुत विश्वसनीय नहीं लगते।
पानी की कमी प्रयोजित तो नहीं?
पानी समाप्त करने में सरकारी सहयोग??
ऐसा लगता है की धरती पर पानी की कमी मानवीय भूलों के कारण कम है, इसके पीछे मानवीय षड्यंत्र होने की संभावना अधिक है। अनेक कारण हैं जिनसे लगता है कि पानी की कमी प्रायोजित है, योजनाबद्ध है। जानबूझकर पानी की कमी पैदा की जा रही है। हमारी केन्द्रीय व प्रान्त सरकारें बिना सोचे-समझे विदेशों से प्रायोजित उन कार्यक्रमों को लागू कर देती हैं। यह जल सुखाने वाले वृक्षों का रोपण आखिर क्यों.हो रहा है? कौन है इसके पीछे?
पानी की कमी के जो कारण गिनाए जा रहे हैं, वे आंशिक रूप से ठीक हो सकते हैं, पर पूरी तरह से सही नहीं लगते। केवल वृक्षों का कटान, ग्लोबल वार्मिंग जैसे कारण पूरा सच नहीं हैं।
पानी तो भरपूर था, सूख गया-
हम बचपन से देखते आ रहे हैं की हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्रों में कई स्थानों पर बहुत पुराने पानी के चश्मे थे। मैदानी क्षेत्रों में जल से भरपूर कूएं, बावड़ियाँ होती थीं। चश्मों, में बहुत स्वादिष्ट पानी रहता था। गर्मियों में भी वह पानी कभी सूखा नहीं। अनेक वर्षों से मैदानी कूएं व नदी, नाले सूखते जारहे हैं। पर पिछले दो-चार साल में अचानक हमारे पहाड़ के अनेक चश्मे सूख गये, सदियों से बहता पानी लुप्त हो गया।
इतनी बड़ी दुर्घटना कभी चर्चा का विषय नहीं बनी, कभी मुद्दा नहीं बनी, मीडिया ने इसके ऊपर कोई स्टोरी नहीं की। हमारा जागरूक मीडिया हमें क्रिकेट और फिल्मी वरांगनाओं के सोने, खाने, नहाने के विवरण परोसता रहा। सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया। समाज सेवी संस्थाएं मौन बैठी हैं।
आखिर यह हो क्या रहा है। हम अपनी बर्बादी की इबारत स्वयं अपने हाथ से लिख रहे हैं और बोल कोई नहीं रहा। कोई जाग नहीं रहा, सभी सोए पड़े हैं।
नगरों में जहाँ पहले हर रोज एक बार पानी आ जाया करता था, अब 5 – 7 दिन तक पानी के दर्शन नहीं होते। गावों में सिंचाई और पीने का पानी गायब होता जा रहा है। लोग खूब परेशान हो रहे हैं पर पानी की कमी के मूल कारणों पर कभी कोई चर्चा नहीं होती।
पहाड़ों में पानी के खजाने-
चूने के पहाड़ों में पानी पर्याप्त मात्रा में होता है। चूने के पत्थर बरसात में पानी का संग्रह कर लेते हैं और पूरे वर्ष धीरे-धीरे पानी को छोड़ते रहते हैं। जिसके कारण पहाड़ों के चश्मों में पानी निरन्तर आता रहता है।
दूसरे पानी का स्रोत बर्फानी नदियाँ होती हैं। शीतकाल में पहाड़ों पर पड़ी बर्फ़ जम जाती है। गर्मियों में यह बर्फ़ धीरे धीरे पिघलती है और वह पानी नदियों में बहता है। इसीलिए पहाड़ी नदियों में गर्मियों के मौसम में पानी भरपूर उपलब्ध रहता है। जितनी गर्मी पड़ती है उतनी बर्फ़ पिघलती है और भरपूर गर्मी में भी नदियों में पानी की मात्रा कभी कम नहीं होती। पर अब पहाड़ी नाले, नदियाँ, चश्मे, कूएं, बावड़ियाँ क्यों सूख रही हैं? पानी क्यों गायब होता जा रहा है?
पानी की कमी के असली कारण-
हमने, हमारी सरकारों ने पिछले 40 साल से भी अधिक समय में वृक्षारोपण के नाम पर ऐसे वृक्ष लगाए हैं जो पर्यावरण की बर्बादी का बहुत बड़ा कारण हैं। उनके कारण तेजी से पानी समाप्त हो रहा है। पहाड़ी क्षेत्रों के जंगलों में वन विभाग द्वारा करोड़ों चीड़ के वृक्ष लगाये गये हैं। चीड़ एक ऐसा वृक्ष है जो बड़ी तेजी से भूमि को सुखा देता है। इसकी विषैली पत्तियों के विषैले प्रभाव से जंगल की लगभग सारी वनस्पतियाँ, पौधे, वृक्ष समाप्त हो जाते हैं।
इन वृक्षों के अत्यधिक ज्वलनशील पत्तों के कारण हर वर्ष हजारों अग्नि कांड होते हैं। कारण करोड़ों जीव मरते हैं, जंगल नष्ट होते हैं, और भूमि जल सूख जाता है। सैंकड़ों-हजारों साल में बना वह ह्यूमस नष्ट हो जाता है जिसमें अनगिनत वृक्ष, पौधे पनपते हैं। करोड़ों एकड़ भूमि बंजर बन गयी है। वनों की वर्षा जल को रोकने की क्षमता लगभग समाप्त हो गयी है। परिणामस्वरूप वर्षाकाल में मैदानों में भयंकर बाढ़ होती है। वनो की जल संग्रह क्षमता समाप्त होने के कारण सूखा पड़ता है, जल संकट होता है। हमारे सदा सलिल रहने वाले नदी, नाले, चश्मे सूख़ने लगे हैं।
फिर भी हम पागलों की तरह वृक्षारोपण के नाम पर चीड़ के वृक्ष लगाते चले गए और अपनी बर्बादी के बीज होते चले गए। अब जाकर कहीं चीड़ लगाने का पागलपन रुका है। इसप्रकार हम कहसकते हैं कि यह पानी का अभाव, सूखा और बाढ़ सरकारों द्वारा प्रयोजित है। पर सच तो यह है कि यह हमारी नासमझियों का परिणाम है। बिना समझे विदेशी आयातीत योजनाओं का या शरारतों का शिकार बन जाना हमारी दुर्दशा का कारण है।
सही मुद्दों पर चर्चा हो-
पर आज भी इन भयंकर भूलों को एक मुद्दे के रूप में नहीं उठा रहा। हम जब तक इन भूलों को ठीक से समझेंगे, तब तक हम इसी प्रकार की और भूलों को करते चले जाएंगे। इसलिए जरूरी है कि वृक्षारोपण की नीतियों, भूलों पर ठीक से परिचर्चा हो और इसके समाधान व समस्याओं के निराकरण के ऊपर विचार किया जाए।
भयावह भूलों का मूल कारण-
मौलिक प्रश्न यह है कि ऐसी भयावह भूलें हमसे होती क्यों हैं? कहीं भारत को दुर्बल बनाने वाले शरारती तत्व जानबूझकर हमको ऐसी गलत योजनाएं, ऐसे गलत कार्यक्रम हम पर थोंप तो नहीं रहे जिनसे हम हर स्तर पर दुर्बल होते चले जाएं,बर्बाद होते जायें, हमारी समस्याएं निरन्तर बढ़ती जाएं? क्या कारण है कि हम हम सही कारणों को समझकर सही समाधान क्यों नहीं कर रहे? कहीं ऐसा तो नहीं कि जिन शरारती तत्वों ने भारत को कमजोर बनाने के लिए गलत प्रकार का वृक्षारोपण करवाया, वे संस्थाएं, वे वैश्विक संगठन नहीं चाहते कि हम पानी की कमी के वास्तविक कारणों को समझें और उसका समाधान करें? वरना कोई कारण नहीं की आसानी से नजर आने वाले इस कारण की उपेक्षा की जाती।
समाधान –
अब सीधा सा समाधान तो यही है कि जिस वन विभाग ने चीड़, पापुलर, युकेलिप्टिस जैसे करोड़ों वृक्ष लगाकर पर्यावरण को बर्बाद किया है पानी की भयंकर कमी पैदा की है, उसी विभाग द्वारा ऐसे वृक्ष लगाए जाए जो पानी को संग्रहित करते हैं, पानी को रोकते हैं। इस प्रकार के वृक्षों में पहाड़ों के लिये बियूंस (विलो), बान, खरशू आदि बहुत कारगर सिद्ध होसकते हैं। इनमें बियूंस बहुत आसानी से लग जाता है। बरसात के मौसम में इसकी टहनियां काटकर गाड़ दी जाएं दी जाएं तो आसानी से जड़ें निकल आती है और वृक्ष बन जाता है। उंचाई पर देवदार, रखाल, बुरास आदि वृक्ष लगसकते हैं। जलसंग्रह इसकी क्षमता बहुत बढ़िया है।
मैदानी क्षेत्रों में पीपल, पिलखन, नीम, आम, जामुन आदि उत्तम हैं। रेतीली भूमि के लिये खेजड़ी, बबूल, कैर आदि हैं।
कुल मिलाकर हमारे स्वदेशी अनगिनत वृक्ष हैं जो जलसंरक्षण व पर्यावरण के लिये अनुकूल हैं।
हमें यदि अपने कल को बचाना है, पानी के लिए नहीं तरसना तो जल संग्रह करने वाले करोड़ों वृक्ष-पौधे लगाने पड़ेंगे।
विषैला वृक्षारोपण – वृक्षारोपण को लेकर भी हमारी पिछली सरकारों की नीतियां बहुत नासमझी पूर्ण, अदूरदर्शी रही हैं। यदि यह कहा जाए की हमने बहुत मूर्खतापूर्ण,आत्मघाती वृक्षारोपण किया है तो गलत ना होगा।
हम ध्यान दें कि हमने हरियाली, पर्यावरण की रक्षा के नाम पर कौन से वृक्ष व पौधे लगाए हैं? रोबीनिया, लुसीनिया, एलस्टोनिया, सिल्वर ओक, पॉपुलर, नकली अशोक, यूकेलिप्टिस, बाटलब्रश जैसे नकारा वृक्ष और पौधे लगाए हैं। ये सब जल और वायु प्रदूषण करने वाले हैं, प्राणियों के स्वास्थ्य पर गंभीर दुष्प्रभाव करने वाले हैं। पर हम बिना सोचे समझे इन पेड़-पौधों को अभी तक लगाते चले जा रहे हैं।
हमने बंगाल से लेकर हिमाचल तक सर्वेक्षण किया और पाया है कि जितने भी ऐक्ज़ाटिव वर्ग के पौधे हैं, वे सब के सब नकारात्मक ऊर्जा वाले व हानिकारक हैं। हो सकता है कि कोई अच्छे हों पर हमे जितने भी ऐक्ज़ाटिव पौधे/वृक्ष मिले वे सब नकारात्मक प्रमाव वाले थे। उनसे हवा, पानी, भूमि प्रदूषित होती है, प्रणियों के स्वस्थ्य, शरीर, मन पर गम्भीर दुष्प्रभाव होते हैं। सभी विदेशी पौधे विषैले नहीं होते। अनेकों वनस्पतियाँ उपयोगी भी हैं। पर उनकी जाँच तो ठीक से होनी चाहिये।
नकली और हानिकारक पौधे-
स्मरणीय है कि तुलसी, पीपल, नीम, धतूरा, हारसिंगार आदि के नकली वृक्ष, पौधे बन चुके हैं और भारत में लगवाए जा चुके हैं। इनका प्रभाव पर्यावरण व स्वास्थ्य पर हानिकारक होता है। हम इन्हे बीटी या जीऐम कह सकते हैं।
इस पर ध्यान देना बहुत जरूरी है। हम जो भी विदेशी पौधे अच्छे समझ कर लगा रहे हैं वास्तव में उनमें से अधिकाँश अच्छे नहीं हैं। हमारे वनस्पति वैज्ञानिकों को विधिवत प्रयोगशाला में इनकी जांच करनी चाहिये और उसके बाद ही कोई पौधा भारत की धरती पर लगाने की अनुमति देनी चाहिये।
नासमझी है कि मुसीबतों के बीज हम बोते हैं-
बहुत आश्चर्य की बात है कि हम अपनी मुसीबतों के बीज स्वयं बो रहे हैं। कारण केवल एक ही समझ आता है कि हमें अपनी बुद्धि से सोचने की आदत नहीं रही है। विदेशी शक्तियां जो शरारतपूर्ण योजनाएं हमारे सामने परोसती हैं, हम आंखें बंद करके उसे अपना लेते हैं और उसके भयानक परिणाम होने पर भी जागते नहीं। न सरकार जाती है न समाज सेवी संस्थाएं ध्यान देती हैं। परिणाम बुरे से बुरे होते चले जा रहे हैं। हम एक जाल से निकलते हैं और दूसरे में फ़ंस जाते हैं। शरारती ताकतें एक के बाद एक जाल फैलाकर बैठी हैं। अतः जरूरत है कि हम अपनी समस्याओं को, उनके कारणों को अपनी आंखों से देखें, समझें और उसके समाधान के प्रयास करें।
समस्याओं का समाधान अपनी सोच से-
केवल विदेशियों के दावों को जैसे का तैसा स्वीकार करने का कोई कारण नहीं है। हमें भूलना नहीं चाहिये कि हरितक्रांति, श्वेतक्रांति, विदेशी ऐसीना फोएटीडा केंचुआ से बनी विषैली खाद, विश्वभर में प्रतिबंधित पॉलीहाउस और विदेशी विषैली गोवंश, विषाक्त वृक्षारोपण की योजनाएं विदेशियों के द्वारा हमें दी गईं। इनके द्वारा दुष्परिणाम देश आज तक भुगत रहा है। नासमझ पूर्व सरकारों ने जो मूर्खताएं कीं, अब तो वे रुकनी चाहियें। कम से कम अब तो उसकी ओर हमें ध्यान देना होगा।
हम जब अपनी समस्याओं को अपनी नजर से देखेंगे और अपने तरीकों से उनका समाधान करेंगे, तभी हमारी समस्याएं सुलझेंगी। अन्यथा हम समस्याओं के मकड़ जाल में फ़ंसते ही जाएंगे। पर मैकाले की शिक्षा के उत्पाद ये आईएऐस प्रशासक, ये पशचिमी सोच के योजनाकार भारत और भारत की समस्याओं को समझेंगे व उनका समाधान करेंगे, यह संम्भव नहीं हो सकता। सबसे पसले तो समस्याओं को पश्चिमी चश्मे से देखने वाले प्रशासकों की.सोच को सुधारने का काम करना होगा। यह कैसे होगा, आज की बहुत बड़ी, मूल समस्या यही है।