विनय कपूर मेहरा : हरियाणा लाला लाजपतराय जी की कर्मभूमि रहा है। 28 जनवरी का दिवस लाला लाजपतराय जैसे दूरदृष्टा बहुयामी व्यक्तित्व को नमन करने का व उनके आदर्शो व दृष्टिकोण का अनुकरण करने का अवसर है। हम प्राय: लाला जी का संस्मरण ‘मेरे शरीर पर पड़ी एक एक लाठी ब्रिटिश सरकार के कफ़न में कील का काम करेगी’ के उद्घोष से करते हैं। परन्तु लाला जी न केवल एक सच्चे देशभक्त, समाजसेवक, शिक्षाविद्व, लेखक, ओजस्वी वक्ता, सफल वकील अपितु एक समर्पित समाज सुधारक भी थे। समाज के कमजोर वर्गों हरिजन, मजदूरों व स्त्रियों के बारे में उन्हे विशेष चिंता थी। उनका मानना था कि जब तक समाज के यह सभी वर्ग सबल और समान नहीं होंगे – राष्ट्र निर्माण का कार्य पूरा नहीं हो सकता। एक सशक्त समाज के लिए स्त्रियों का सशक्तिकरण एक आवश्यक शर्त है।
भारतीय स्त्रियों के प्रति लाला जी के मन में एक विशेष सम्मान, संवेदना व चिन्ता थी। उनका यह मानना था कि भारतीय समाज में औरतें भारतीय सभ्यता, संस्कृति, आर्दशों व मूल्यों कि संरक्षक हैं। भारतीय समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का भण्डार हैं। इन संस्कारों को एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी तक ले जाने का सशक्त माध्यम हैं। वह स्वयं के बारे में लिखते हुए रेखांकित करते हैं कि मेरी माता जी गुलाब देवी हमारे परिवार कि एक आर्दश महिला थीं मेरे सफल जीवन का सारा श्रेय मेरी माता जी द्वारा दिए गए प्रशिक्षण व संस्कारों को जाता है। एक अन्य जगह वह लिखते हैं कि मेरे पिता जी जो एक मौलवी अध्यापक के अत्याधिक प्रभाव में थे – मेरी माता जी कि ढृढ़ इच्छाशक्ति व डर के कारण ही मुस्लमान नहीं बन सके।
परन्तु 20वीं शताब्दी के शुरू तक भारतीय समाज में स्त्रियों की दशा से विशेष रूप से चिंतित थे। यह वह समय था जब उनकी स्थिती अत्यंत दयनीय थी। बाल विवाह का प्रचलन था। 1891 के विवाह सम्बन्धी कानून द्वारा लड़कियों की विवाह के लिए न्यूनतम आयु 10 वर्ष से बढ़ा कर 12 वर्ष की गयी थी। यह छोटी छोटी बच्चियाँ जो अल्प आयु में ही गर्भवती हो जाती थीं के लिए घोर अत्याचार था। इनकी दशा सन्तान उत्पति के यंत्र के समान थी। कमजोर व अविकसित होने के कारण माताओं और बच्चों की मृत्युदर भी अत्यधिक थी। 1920 में प्रत्येक पीढ़ी ने 32 लाख से अधिक माताओं की प्रसव के दौरान मृत्यु देखी है। पुरुषों का पुनर्विवाह आम बात थी परन्तु विधवा स्त्रियों की शादी सामाजिक तौर पर प्रतिबंधित थी और वे नरकीय जीवन भोगने पर विवश थीं। इसके साथ साथ ही देवदासी, सती, व बहुपत्नी प्रथा प्रचलित थी – जिसका समाज में बहुत कम प्रतिशोध था। महिलाओं में साक्षरता दर 1911 तक 10 प्रति हजार थी। इस प्रकार हिन्दू समाज का लगभग आधा भाग (महिलाएं) शारीरिक, सामाजिक व आर्थिक दृष्टी से अत्यंत कमजोर व हीन अवस्था में या मैं कहूं तो लकवाग्रस्त था।
लाला जी समाज को एक आंगिक स्वरूप मैं देखते थे जिसमें शरीर के प्रत्येक अंग का स्वस्थ होना अति आवश्यक है, अन्यथा यह रुग्ण या अपंग व्यक्ति के समान है। अत: वह औरतों के अधिकारों व सम्मान के प्रति पूर्ण सजग थे तथा उन्हे उचित स्थान दिलाने के लिए प्रयत्नशील भी। लाला जी के अनुसार “आज सबसे अधिक आवश्यकता हमें अपनी माताओं का सर्वोत्तम ध्यान रखने की है। एक हिन्दू के लिए औरत एक लक्ष्मी है, सरस्वती एवं शक्ति का सामूहिक प्रत्यक्ष रूप है। वह सभी प्रकार जी शक्ति, सुंदरता और आशाओं का आधार है”। माताएं समाज की निर्माता हैं, यदि उनका स्वयं का स्वास्थ्य ठीक नहीं होगा, यदि वे बलिष्ठ नहीं होंगी तो समाज से हम किसी प्रकार की बेहतरी की उम्मीद नहीं कर सकते। उनके अनुसार एक राष्ट्र जो अपनी माताओं के बन्धनों व उन पर होने वाले अत्याचारों को सहन करता है किसी भी प्रकार की स्वतंत्रता के बारे में प्रगति नहीं कर सकता।
स्त्रीयों की दशा सुधारने के लिए लाला जी ने सर्वप्रथम स्त्री शिक्षा पर बल दिया। अपनी पुस्तक The Problem of National Education in India में न सिर्फ उन्होंने स्त्री शिक्षा बल्कि सह-शिक्षा का भी भरपूर समर्थन किया। आज से 100 वर्ष पूर्व जब लड़कियों को पढ़ने के लिए नहीं भेजा जाता था यह एक क्रांतिकारी सोच थी। उनकी यह मांग थी कि प्रत्येक जिले में लड़कियों के लिए कम से कम एक राष्ट्रीय विद्यापीठ होना चाहिए जिसमें उनके लिए खेलकूद के मैदान के साथ व्यायामशाला भी अवश्य हों ताकि हमारी लड़कियां शिक्षित, स्वस्थ व सुडौल हों। उनका सर्वपक्षीय विकास सुनिश्चित हो। सन 1926 में सर गंगाराम के सहयोग से उन्होंने लाहौर में विधवाओं के लिए भी पाठशाला खुलवाई। जब उनकी अपनी बेटी पार्वती देवी के पति का 1907 में स्वर्गवास हो गया तो उन्होंने उसे भी आत्मनिर्भर और राजनितिक-सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय होने कि प्रेरणा दी।
वह स्त्रीयों के सशक्तीकरण के पक्षधर थे। उनके अनुसार भारत में उनकी दयनीय स्थिती का अन्य कारण उनकी आर्थिक निर्भरता थी। इसके लिए शिक्षा के साथ-साथ वह उनकी सार्वजनिक जीवन में भागीदारी के पक्षधर थे। वह पुरुष व स्त्रीयों के समान अधिकारों व अवसर के कट्टर समर्थक थे। उनके अनुसार यह दोनों आपस में सहयोगी होने चाहिएं न कि उनमें निर्भरता, दासता या तुच्छ होने की भावना हो। उन्होंने स्त्रीयों को सम्बोधित करते हुए उन्हे हीन भावना का त्याग करते हुए प्रगतिशील, तर्कशील होकर समाज के सभी जीवन में अग्रसर होने का आहवान किया। समान योग्यताओं वाली किसी भी स्त्री के लिए वह सभी अवसर एवं अधिकार प्राप्त हों जो किसी भी पुरुष के लिए उपलब्ध हैं।
लाला जी एक व्यवहारिक व्यक्ति थी। वह केवल कथनी नहीं अपितु करनी में अधिक विश्वास रखते थे। अत: उन्होंने अपने लेखों, समाचार पत्रो, पत्रिकाओं के द्वारा जन सभाओं व सरकारी तंत्रों के माध्यम से महिलाओं की समस्याओं के प्रति न सिर्फ जागरूकता पैदा की अपितु उसके उन्मूलन के लिए भी भरसक प्रयास किए। जब भी जहाँ भी उन्हे महिलाओं के सशक्तीकरण की किरण दिखाई थी तुरन्त उसे अपना समर्थन देकर उसे जागरूकता व जन आंदोलन का रूप दोने का प्रयास किया। शिक्षित व प्रतिष्ठित महिलाओं जैसे बड़ोदा की महारानी की अध्यक्षता में पूना में “महिला सम्मेलन”; अहमदाबाद में जे० सी० बोस की पत्नी द्वारा “महिला सम्मेलन” की अध्यक्षता – लाला जी के लिए हर्ष व उत्सव के विषय थे। जब 1928 में स्त्रियों की भलाई संबधी निति निर्माण के लिए Indian Women Educational Conference का आयोजन हुआ तो लाला जी के शब्दों में “यह दिन देवताओं के देखने और ख़ुशी मनाने का दिन है।” अंतत: लाला जी औरतों की समस्याओं के बारे में विशेष रूप से चिन्तित थे। उनका यह पूर्ण विश्वास था की राष्ट्र उत्थान स्त्रियों की दशा में सुधार बिना असम्भव है। वह उनके द्वारा समाज में एक सम्मानपूर्वक, सकारात्मक भूमिका की आंकांक्षा रखते थे। उनके प्रयत्न इस दिशा में आज सकारात्मक स्वरूप में प्रफुल्लित हो रहे हैं।
हरियाणा प्रान्त आज महिलाओं की सर्वपक्षीय विकास, सशक्तिकरण के परिणाम स्वरूप निश्चित रूप से लाला जी के स्वपनों को साकार करने की दिशा में अग्रसर है। यही उस महान आत्मा के प्रति सच्ची श्रद्धांजली है। नमन।
विनय कपूर मेहरा, कुलपति,डॉ० बी० आर० अम्बेडकर-राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय,सोनीपत।