🔸चतुर्थोऽध्याय🔸
अनभ्यासे विषं शास्त्रमजीर्णे भोजनं विषम्।
दरिद्रस्य विषं गोष्ठी वृद्धस्य तरुणी विषम्॥१५॥
*🔸शब्दार्थ* :— *अनभ्यासे*= बिना अभ्यास के *शास्त्रम्*= शास्त्र *विषम्*= विष है *अजीर्णे*= अजीर्ण में, भोजन के ठीक प्रकार से पचे बिना *भोजनम्*= भोजन करना *विषम्*= विष के तुल्य हानिकारक है *दरिद्रस्य*= दरिद्र के लिए *गोष्ठी*= सभा *विषम्*= विष के समान है और *वृद्धस्य*= वृद्धपुरुष-वृद्ध मनुष्य के लिए *तरुणी*= युवती स्त्री *विषम्*= विष है।
*🔸भावार्थ* :— आचार्य चाणक्य के अनुसार, अभयास के बिना विद्वान भी शास्त्रों का यथोचित वर्णन नहीं कर पाता और लोगों के बीच उपहास का पात्र बन जाता है। ऐसी स्थिति में अपमान मृत्यु से अधिक कष्टप्रद होता है। इसलिए जो विद्वान निरंतर अभ्यास नहीं करता, उसके लिए शास्त्र विष के समान हो जाते हैं। इसी प्रकार जिन व्यक्तियों की पाचन-शक्ति क्षीण है — अर्थात जो भोजन को ठीक से पचा नहीं सकते, उनके लिए बढ़िया-से-बढ़िया भोज्य पदार्थ भी विष-तुल्य है। चूँकि सभा एवं गोष्ठियों में दरिद्र का सदैव अपमान होता है, इसलिए ऐसा स्थान उसके लिए विष के समान है। वृद्ध के लिए युवा पत्नी विष की भाँति होती है। ऐसी स्थिति में युवा पत्नी का आचरण वृद्ध के लिए अत्यंत कष्टदायक और अपमानग्रस्त होता है।