03 फरवरी : पूरे विश्व को मानवता, सभ्यता, ज्ञान और विज्ञान की शिक्षा भारतवर्ष की देन है लेकिन इसे सही तरीके से पहचान न मिलने के कारण भारत को सपेरों और जादूगरों का देश कहा जाता रहा है। अब वेदों पर वैज्ञानिक शोध संस्थान ने जिस प्रकार खगोलीय संदर्भों के आकाशाीय दृश्यों एवं अन्य वैज्ञानिक प्रमाणों के माध्यम से भारत के पुरातन ज्ञान को साबित किया है उसने भारतवर्ष की अस्मिता व गौरवशाली पहचान पर मुहर लगा दी है।
यह बात हरियाणा के राज्यपाल प्रो. कप्तान सिंह सोलंकी ने आज गुरु जंभेश्वर विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय हिसार के चौधरी रणबीर सिंह सभागार में ऋग्वेद से रोबोटिक्स तक की सांस्कृतिक निरंतरता विषय पर आयोजित दो दिवसीय सेमिनार का शुभारंभ करते हुए कही। सेमिनार का आयोजन गुरु जंभेश्वर विश्वविद्यालय एवं वेदों पर वैज्ञानिक शोध संस्थान द्वारा संयुक्त रूप से किया गया। इस मौके पर इसी विषय पर आधारित एक प्रदर्शनी का भी उद्घाटन राज्यपाल ने किया। उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. टंकेश्वर कुमार ने की। मुख्य संसदीय सचिव डॉ. कमल गुप्ता कार्यक्रम में विशिष्ट अतिथि के रूप में शामिल हुए जबकि वैज्ञानिक शोध संस्थान की निदेशिका सरोजबाला ने मुख्य वक्ता के रूप में अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया।
राज्यपाल प्रो. कप्तान सिंह सोलंकी ने भारतवर्ष की पहचान से जुड़े इस विषय पर आयोजित सेमिनार पर खुशी जाहिर करते हुए कहा कि हर व्यक्ति और समाज की तरह प्रत्येक राष्ट्र की अपनी पहचान और अस्मिता होती है। उन्होंने कहा कि भारत देश की असली पहचान से दूसरे देश अभी तक अनभिज्ञ हैं लेकिन हमारा इतिहास बताता है कि इसी देश ने पूरे विश्व को मानवता, ज्ञान, विज्ञान और चरित्र की शिक्षा दी है। उन्होंने कहा कि जहां महाभारत का इतिहास पांच हजार वर्ष पुराना है वहीं रामायण सात हजार वर्ष तथा ऋग्वेद ग्रंथ नौ हजार वर्ष पुराना है लेकिन भारतवर्ष का इतिहास तो इनसे भी कहीं अधिक प्राचीन रहा है और यहां के पुरातन ज्ञान ने सदियों से दुनिया को अध्यात्म, योग, ज्ञान और विज्ञान का नया मार्ग दिखाया है।
उन्होंने कहा कि नासा द्वारा उपग्रहों की सहायता से सेतु समुद्रम के अस्तित्व को सिद्ध किया गया है। इसी प्रकार आर्यभट्ट जैसे अनेक भारतीय खोजकर्ताओं ने हजारों वर्ष पहले ही भारत के समृद्ध ज्ञान-विज्ञान से दुनिया को अवगत करवा दिया था। भारतवर्ष से ही संस्कृति व सभ्यता की शिक्षा विश्व को मिली और यदि हम देश के पुराने गौरव को पहचान लें और इसे विश्व के सामने प्रस्तुत कर सकें तो फिर से देश को जगतगुरू बना सकते हैं। उन्होंने नए शोधार्थियों को भारत के पुरातन ज्ञान और गौरव पर शोध करने का आह्वान किया।
कुलपति प्रो. टंकेश्वर कुमार ने अपने सम्बोधन में कहा कि इस प्रदर्शनी व सेमिनार के माध्यम से भारत की सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक धरोहर को वैज्ञानिक तथ्यों व शोध की कसौटी पर समझने व जानने का मौका मिला है। उन्होंने कहा कि रामायण और महाभारत में छुपे रहस्य जहां और अच्छे से समझे व जाने जा सके हैं, वहीं वे एक वैज्ञानिक होने के नाते आईंस्टाइन थ्यूरी को भी जन्म चार्ट से जोड़कर देखते हैं। ग्रहों और नक्षत्रों की दिशा से जन्म के समय का प्रामाणिक ज्ञान मिलता है। स्पेस और टाइम के संयोग को जहां वैज्ञानिक आईंस्टाईन ने जहां चार डायमेंशंज स्पेस कहा था इन्हीं चार डायमेंशंस को लगभग सात हजार साल पहले हमारे ऋषि वैज्ञानिकों ने खगोलीय ग्रह दशाओं को केवल तीन डायमेंशंस में ही स्थापित कर दिया था। उन्होंने कहा कि सृष्टि के आरंभ से ही भारत का ये भूभाग ज्ञान का आधार माना जाता रहा है। ज्ञान और विज्ञान को अलग नहीं किया जा सकता है। ऐसे में ज्ञान के साथ-साथ विज्ञान की भी ये धरती रही है।
उन्होंने कहा कि अब वक्त आ गया है कि अब भारत के पुरातन ज्ञान व विज्ञान को पुनर्जीवित किया जाए। वैज्ञानिक तुला पर तोलकर वर्तमान व आने वाली पीढ़ी को इसके के बारे में समझाया व बताया जाए। भारत की वैदिक संस्कृति को ठीक से समझा व जाना जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि यहां आयोजित प्रदर्शनी व सेमिनार के माध्यम से सदियों पुराने अनेक ऐसे अनसुलझे रहस्यों पर से पर्दा उठेगा जो मानव मन में समय-समय पर उठते रहे हैं।
वेदों पर वैज्ञानिक शोध संस्थान की निदेशिका सरोज बाला ने मुख्य वक्ता के रूप में भारत की ऐतिहासिक घटनाओं को सूर्यग्रहण व चंद्रगहण की दशाओं के आधार पर प्रमाणित करते हुए इसके समर्थन में साक्ष्य प्रस्तुत किए। उन्होंने कहा कि यह संस्थान 15 वर्ष से इस विषय के शोध में लगा हुआ है और प्लोनेटेरियम सोफ्टवेयर के माध्यम से खगोलिय घटनाओं की पुष्टि की गई है। उन्होंने हस्तिनापुर को वर्तमान मेरठ बताते हुए बताया कि 20 अक्तूबर 3139 ईसा पूर्व महाभारत का युद्ध शुरू हुआ। इसके 36 साल बाद विशाल सूर्यग्रहण के प्रभाव से द्वारिका नगरी समुद्र में डूब गई थी। इसी प्रकार उन्होंने बताया कि गृहों-नक्षत्रों की स्थिति के अनुसार भगवान श्रीराम का जन्म 10 जनवरी 5114 ईसा पूर्व हुआ था जिसे उस समय की खगोलिय पिंडों की स्थिति के आधार पर सिद्ध किया गया है। उन्होंने कहा कि हम घटनाओं के इतिहास लिखने की बात तो करते हैं लेकिन आज जरूरत है विज्ञान का इतिहास लिखने की। इससे हम समझ पाएंगे कि विज्ञान का प्रादुर्भाव भी हजारों साल पहले भारत से ही हुआ था।
धन्यवाद प्रस्ताव विश्वविद्यालय के कुलसचिव प्रो. एम.एस. तुरान ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि इस प्रदर्शनी का विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों तथा शोधार्थियों के साथ-साथ आम जनता को भी बहुत फायदा होगा। भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक धरोहर को और अधिक समझने व जानने का मौका मिलेगा।
इस मौके पर सरस्वती उद्गम के शोधार्थी डा. अंकित अग्रवाल, महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय रोहतक के कुलपति डॉ. बी.के. पूनिया, हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय हिसार के कुलपति डा. के.एस. खोखर, लाला लाजपत राय पशु एवं चिकित्सा विश्वविद्यालय हिसार के कुलपति मेजर जनरल (रिटायर्ड) श्रीकांत शर्मा, बीपीएस महिला विश्वविद्यालय खानपुर कलां की कुलपति प्रो. आशा कादयान, कुलसचिव प्रो. एम.एस. तुरान, पूर्व मंत्री प्रो. छत्तरपाल, जिला उपायुक्त डॉ. चंद्रशेखर खरे व पुलिस अधीक्षक अश्विन शैणवी सहित अन्य गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे।