के के शर्मा : डॉ अंबेडकर का दृढ़ मत था कि मैं हिंदुस्तान से प्रेम करता हूं। मैं जीऊंगा तो हिंदुस्तान के लिए और मरूंगा तो हिंदुस्तान के लिए। मेरे शरीर का प्रत्येक कण और मेरे जीवन का प्रत्येक क्षण हिंदुस्तान के काम आए, इसलिए मेरा जन्म हुआ है।”
एक समय किसी भी महापुरुष को याद करने या श्रदांजलि देने का सच्चा मार्ग यह होता था की हम उसके आदर्शो पर चले परन्तु अब यह प्राचीन मान्यता टूट गयी है .अब हर राजनेता ,सियासी दल अम्बेडकर को इस तरह याद कर रहा है मानो सच्चा अम्बेडकरवादी वो ही हो मतलब साफ़ है की हमारे राजनेताओ को अम्बेडकर में वोट नजर आते है .इन्ही अम्बेडकर को पहले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने इनके सामने अपना उमीदवार उतार कर हरवाया था .कांग्रेस ने करीब छह दशक राज किया लेकिन बाबा साहेब को भारत रत्न के लायक नहीं समझा, जबकी सविधान सभा के अन्य सदस्य गोविन्द वलभ पंत को 1957 में ही भारत रत्न दे दिया गया था जबकी अम्बेडकर उस सभा के अध्यक्ष थे ,बाद में 1990 में वी.पी सिंह सरकार ने इन्हे भारत रत्न दिया .हमारे राजनेता यह कहते हुए नहीं थकते की बाबा साहेब ने सविधान बनाया लेकिन हमारे राजनेता बाबा साहेब को सविधान से अलग उनकी अलग प्रतिभाएं जैसे भारतीय रिज़र्व बैंक और वित् आयोग की स्थापना ,तिरंगे में अशोक चक्र रखना ,रोजगार दफ्तरों की स्थापना ,मजदूरी के घंटे 14 से घटा कर 8 घंटे करना ,जल और ऊर्जा निति बनाना और वहीँ विदेशनीति के दूरद्रष्टा की तरह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में पहले चीन की स्थाई सदयस्ता की नेहरू नीति का विरोध भी अम्बेडकर ने किया था लेकिन हमारे नेता उन्हें दलित नेता की छवि से बाहर आने ही नहीं देना चाहते . आईये जाने क्या थे बाबा साहेब
भीमराव रामजी आंबेडकर (14 अप्रैल, 1891 – 6 दिसंबर, 1956) बाबा साहेब के नाम से लोकप्रिय, भारतीय विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ और समाजसुधारक थे। उन्होंने दलित बौद्ध आंदोलन को प्रेरित किया और दलितों के खिलाफ सामाजिक भेद भाव के विरुद्ध अभियान चलाया। श्रमिकों और महिलाओं के अधिकारों का समर्थन किया। वे स्वतंत्र भारत के प्रथम कानून मंत्री एवं भारतीय संविधान के प्रमुख वास्तुकार थे। आंबेडकर विपुल प्रतिभा का छात्र थे। उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय और लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स दोनों ही विश्वविद्यालयों से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने विधि ,अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञानं के शोध कार्य में ख्याति प्राप्त की जीवन के प्रारम्भिक करियर में वह अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे एवम वकालत की। बाद का जीवन राजनीतिक गतिविधियों में बीता। 1956 में उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया। 1990 में, भारत रत्न, भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान मरणोपरांत अम्बेडकर पर सम्मानित किया गया था।
गायकवाड शासक ने सन 1913 में संयुक्त राज्य अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय मे जाकर अध्ययन के लिये भीमराव आंबेडकर का चयन किया गया साथ ही इसके लिये एक 11.5डॉलर प्रति मास की छात्रवृत्ति भी प्रदान की। न्यूयॉर्क शहर में आने के बाद, डॉ॰ भीमराव आंबेडकर को राजनीति विज्ञान विभाग के स्नातक अध्ययन कार्यक्रम में प्रवेश दे दिया गया। शयनशाला मे कुछ दिन रहने के बाद, वे भारतीय छात्रों द्वारा चलाये जा रहे एक आवास क्लब मे रहने चले गए और उन्होने अपने एक पारसी मित्र नवल भातेना के साथ एक कमरा ले लिया। 1916 में, उन्हे उनके एक शोध के लिए पीएच.डी. से सम्मानित किया गया। इस शोध को अंततः उन्होंने पुस्तक इवोल्युशन ओफ प्रोविन्शिअल फिनान्स इन ब्रिटिश इंडिया के रूप में प्रकाशित किया। हालाँकि उनकी पहला प्रकाशित काम, एक लेख जिसका शीर्षक, भारत में जाति : उनकी प्रणाली, उत्पत्ति और विकास है। अपनी डाक्टरेट की डिग्री लेकर सन 1916 में डॉ॰ आंबेडकर लंदन चले गये जहाँ उन्होने ग्रेज् इन और लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स में कानून का अध्ययन और अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट शोध की तैयारी के लिये अपना नाम लिखवा लिया। अगले वर्ष छात्रवृत्ति की समाप्ति के चलते मजबूरन उन्हें अपना अध्ययन अस्थायी तौर बीच मे ही छोड़ कर भारत वापस लौटना पडा़ ये प्रथम विश्व युद्ध का काल था। बड़ौदा राज्य के सेना सचिव के रूप में काम करते हुये अपने जीवन मे अचानक फिर से आये भेदभाव से डॉ॰ भीमराव आंबेडकर निराश हो गये और अपनी नौकरी छोड़ एक निजी ट्यूटर और लेखाकार के रूप में काम करने लगे। यहाँ तक कि अपनी परामर्श व्यवसाय भी आरंभ किया जो उनकी सामाजिक स्थिति के कारण विफल रहा। अपने एक अंग्रेज जानकार मुंबई के पूर्व राज्यपाल लॉर्ड सिडनेम, के कारण उन्हें मुंबई के सिडनेम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनोमिक्स मे राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्रोफेसर के रूप में नौकरी मिल गयी। 1920 में कोल्हापुर के महाराजा, अपने पारसी मित्र के सहयोग और अपनी बचत के कारण वो एक बार फिर से इंग्लैंड वापस जाने में सक्षम हो गये। 1923 में उन्होंने अपना शोध प्रोब्लेम्स ऑफ द रुपी (रुपये की समस्यायें) पूरा कर लिया। उन्हें लंदन विश्वविद्यालय द्वारा “डॉक्टर ऑफ साईंस” की उपाधि प्रदान की गयी। और उनकी कानून का अध्ययन पूरा होने के, साथ ही साथ उन्हें ब्रिटिश बार मे बैरिस्टर के रूप में प्रवेश मिल गया। भारत वापस लौटते हुये डॉ॰ भीमराव आंबेडकर तीन महीने जर्मनी में रुके, जहाँ उन्होने अपना अर्थशास्त्र का अध्ययन, बॉन विश्वविद्यालय में जारी रखा। उन्हें औपचारिक रूप से 8 जून 1927 को कोलंबिया विश्वविद्यालय द्वारा पीएच.डी. प्रदान की गयी।
भारत सरकार अधिनियम 1918, तैयार कर रही साउथबोरोह समिति के समक्ष, भारत के एक प्रमुख विद्वान के तौर पर अम्बेडकर को गवाही देने के लिये आमंत्रित किया गया। इस सुनवाई के दौरान, अम्बेडकर ने दलितों और अन्य धार्मिक समुदायों के लिये पृथक निर्वाचिका (separate electorates) और आरक्षण देने की वकालत की। उनके दलित वर्ग के एक सम्मेलन के दौरान दिये गये भाषण ने कोल्हापुर राज्य के स्थानीय शासक शाहू चतुर्थ को बहुत प्रभावित किया, जिनका अम्बेडकर के साथ भोजन करना रूढ़िवादी समाज मे हलचल मचा गया। 1927 तक, अम्बेडकर ने अस्पृश्यता के खिलाफ सक्रिय आंदोलन शुरू करने का फैसला किया था।अब तक अम्बेडकर आज तक की सबसे बडी़ अछूत राजनीतिक हस्ती बन चुके थे। उन्होंने मुख्यधारा के महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों की जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति उनकी कथित उदासीनता की कटु आलोचना की। डॉ॰ भीमराव आंबेडकर जी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और उसके नेता मोहनदास करमचंद गांधी की आलोचना की, उन्होने उन पर अस्पृश्य समुदाय को एक करुणा की वस्तु के रूप मे प्रस्तुत करने का आरोप लगाया। डॉ॰ आंबेडकर ब्रिटिश शासन की विफलताओं से भी असंतुष्ट थे, उन्होने अस्पृश्य समुदाय के लिये एक ऐसी अलग राजनैतिक पहचान की वकालत की जिसमे कांग्रेस और ब्रिटिश दोनों का ही कोई दखल ना हो। 8 अगस्त, 1930 को एक शोषित वर्ग के सम्मेलन के दौरान डॉ॰ आंबेडकर ने अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा, जिसके अनुसार शोषित वर्ग की सुरक्षा उसके सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतंत्र होने में है।इस भाषण में अम्बेडकर ने कांग्रेस और मोहनदास गांधी द्वारा चलाये गये नमक सत्याग्रह की शुरूआत की आलोचना की। अम्बेडकर की आलोचनाओं और उनके राजनीतिक काम ने उसको रूढ़िवादी हिंदुओं के साथ ही कांग्रेस के कई नेताओं मे भी बहुत अलोकप्रिय बना दिया, यह वही नेता थे जो पहले छुआछूत की निंदा करते थे और इसके उन्मूलन के लिये जिन्होने देश भर में काम किया था। इसका मुख्य कारण था कि ये “उदार” राजनेता आमतौर पर अछूतों को पूर्ण समानता देने का मुद्दा पूरी तरह नहीं उठाते थे। डॉ॰ भीमराव आंबेडकर की अस्पृश्य समुदाय मे बढ़ती लोकप्रियता और जन समर्थन के चलते उनको १९३१ मे लंदन में दूसरे गोलमेज सम्मेलन में, भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया।(डा॰ भीमराव अंबेडकर ने तीनों गोलमेज सम्मेलनों में भाग लिया था ) उनकी अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने के मुद्दे पर तीखी बहस हुई।1932 में जब ब्रिटिशों ने अम्बेडकर के साथ सहमति व्यक्त करते हुये अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने की घोषणा की, तब मोहनदास गांधी ने इसके विरोध मे पुणे की यरवदा सेंट्रल जेल में आमरण अनशन शुरु कर दिया। मोहनदास गांधी ने रूढ़िवादी हिंदू समाज से सामाजिक भेदभाव और अस्पृश्यता को खत्म करने तथा हिंदुओं की राजनीतिक और सामाजिक एकता की बात की। गांधी के दलिताधिकार विरोधी अनशन को देश भर की जनता से घोर समर्थन मिला और रूढ़िवादी हिंदू नेताओं, कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं जैसे पवलंकर बालू और मदन मोहन मालवीय नेअम्बेडकर और उनके समर्थकों के साथ यरवदा मे संयुक्त बैठकें कीं। अनशन के कारण गांधी की मृत्यु होने की स्थिति मे, होने वाले सामाजिक प्रतिशोध के कारण होने वाली अछूतों की हत्याओं के डर से और गाँधी के समर्थकों के भारी दवाब के चलते डॉ॰ भीमराव अंबेडकर जी ने अपनी पृथक निर्वाचिका की माँग वापस ले ली। मोहनदास गांधी ने अपने गलत तर्क एवं गलत मत से संपूर्ण अछूतों के सभी प्रमुख अधिकारों पर पानी फेर दिया। इसके एवज मे अछूतों को सीटों के आरक्षण, मंदिरों में प्रवेश/पूजा के अधिकार एवं छूआ-छूत ख़तम करने की बात स्वीकार कर ली गयी। गाँधी ने इस उम्मीद पर की बाकि सभी सवर्ण भी पूना संधि का आदर कर, सभी शर्ते मान लेंगे अपना अनशन समाप्त कर दिया।इस समझौते को पुणे पैक्ट के रूप में जाना जाता है .उन्होंने अस्पृश्य समुदाय के लोगों को गाँधी द्वारा रचित शब्द हरिजन पुकारने के कांग्रेस के फैसले की कडी़ निंदा की।
1936 में, अम्बेडकर ने स्वतंत्र लेबर पार्टी की स्थापना की, जो 1937 में केन्द्रीय विधान सभा चुनावों मे 15 सीटें जीती। उन्होंने अपनी पुस्तक जाति के विनाश भी इसी वर्ष प्रकाशित की जो उनके न्यूयॉर्क मे लिखे एक शोधपत्र पर आधारित थी.1941 और 1945 के बीच में उन्होंने बड़ी संख्या में अत्यधिक विवादास्पद पुस्तकें और पर्चे प्रकाशित किये जिनमे अंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘थॉट ऑन पाकिस्तान’ और ‘पाकिस्तान, ऑर, पार्टीशन ऑफ इंडिया’ में मुसलमानों के बारे अपने विचार व्यक्त किए हैं। उन्होंने मुस्लिम समस्या को भौतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक बताते हुए मुसलमानों के तीन लक्षणों के संदर्भ में लिखा। पहला, मुसलमान मानववाद या मानवता को नहीं मानता है, वह केवल मुस्लिम भाईचारे तक सीमित है। दूसरा, वह राष्ट्रवाद को नहीं मानता, वह देशभक्ति, लोकतंत्र या धर्मनिरपेक्ष नहीं है। तीसरा, वह बुद्धिवाद नहीं मानता, किसी प्रकार के सुधार- ख़ासकर महिलाओं की हालत, निकाह के नियम, तलाक, संपत्ति के हक़ के संबंध में बेहद पिछड़ा हुआ है।
अम्बेडकर इस्लाम और दक्षिण एशिया में उसकी रीतियों के भी बड़े आलोचक थे। उन्होने भारत विभाजन का तो पक्ष लिया. पर मुस्लिमो मे व्याप्त बाल विवाह की प्रथा और महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की घोर निंदा की। उन्होंने कहा,बहुविवाह और रखैल रखने के दुष्परिणाम शब्दों में व्यक्त नहीं किये जा सकते जो विशेष रूप से एक मुस्लिम महिला के दुःख के स्रोत हैं। जाति व्यवस्था को ही लें, हर कोई कहता है कि इस्लाम गुलामी और जाति से मुक्त होना चाहिए, जबकि गुलामी अस्तित्व में है और इसे इस्लाम और इस्लामी देशों से समर्थन मिला है। इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं है जो इस अभिशाप के उन्मूलन का समर्थन करता हो। अगर गुलामी खत्म भी हो जाये पर फिर भी मुसलमानों के बीच जाति व्यवस्था रह जायेगी।उन्होंने लिखा कि मुस्लिम समाज मे तो हिंदू समाज से भी कही अधिक सामाजिक बुराइयां है और मुसलमान उन्हें ” भाईचारे ” जैसे नरम शब्दों के प्रयोग से छुपाते हैं। उन्होंने मुसलमानो द्वारा अर्ज़ल वर्गों के खिलाफ भेदभाव जिन्हें ” निचले दर्जे का ” माना जाता था के साथ ही मुस्लिम समाज में महिलाओं के उत्पीड़न की दमनकारी पर्दा प्रथा की भी आलोचना की। उन्होंने कहा हालाँकि पर्दा हिंदुओं मे भी होता है पर उसे धर्मिक मान्यता केवल मुसलमानों ने दी है। उन्होंने इस्लाम मे कट्टरता की आलोचना की जिसके कारण इस्लाम की नातियों का अक्षरक्ष अनुपालन की बद्धता के कारण समाज बहुत कट्टर हो गया है और उसे को बदलना बहुत मुश्किल हो गया है। उन्होंने आगे लिखा कि भारतीय मुसलमान अपने समाज का सुधार करने में विफल रहे हैं जबकि इसके विपरीत तुर्की जैसे देशों ने अपने आपको बहुत बदल लिया है।हालांकि वे मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग की विभाजनकारी सांप्रदायिक रणनीति के घोर आलोचक थे पर उन्होने तर्क दिया कि हिंदुओं और मुसलमानों को पृथक कर देना चाहिए और पाकिस्तान का गठन हो जाना चाहिये क्योकि एक ही देश का नेतृत्व करने के लिए, जातीय राष्ट्रवाद के चलते देश के भीतर और अधिक हिंसा पनपेगी। उन्होंने चेताया कि दो देश बनाने के समाधान का वास्तविक क्रियान्वयन अत्यंत कठिनाई भरा होगा। विशाल जनसंख्या के स्थानान्तरण के साथ सीमा विवाद की समस्या भी रहेगी। भारत की स्वतंत्रता के बाद होने वाली हिंसा को ध्यान मे रख कर यह भविष्यवाणी कितनी सही थी|
वॉट काँग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स (काँग्रेस और गान्धी ने अछूतों के लिये क्या किया) के साथ, अम्बेडकर ने गांधी और कांग्रेस दोनो पर अपने हमलों को तीखा कर दिया उन्होने उन पर ढोंग करने का आरोप लगाया.
अपने सत्य परंतु विवादास्पद विचारों और गांधी व कांग्रेस की कटु आलोचना के बावजूद बी आर अम्बेडकर की प्रतिष्ठा एक अद्वितीय विद्वान और विधिवेत्ता की थी जिसके कारण जब, 15 अगस्त 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, कांग्रेस के नेतृत्व वाली नई सरकार अस्तित्व मे आई तो उसने अम्बेडकर को देश का पहले कानून मंत्री के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। 29 अगस्त 1947 को, अम्बेडकर को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना के लिए बनी संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। अम्बेडकर ने मसौदा तैयार करने के इस काम मे अपने सहयोगियों और समकालीन प्रेक्षकों की प्रशंसा अर्जित की।1951 मे संसद में अपने हिन्दू कोड बिल के मसौदे को रोके जाने के बाद अम्बेडकर ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया इस मसौदे मे उत्तराधिकार, विवाह और अर्थव्यवस्था के कानूनों में लैंगिक समानता की मांग की गयी थी। हालांकि प्रधानमंत्री नेहरू, कैबिनेट और कई अन्य कांग्रेसी नेताओं ने इसका समर्थन किया पर संसद सदस्यों की एक बड़ी संख्या इसके खिलाफ़ थी। अम्बेडकर ने 1952 में लोक सभा का चुनाव एक निर्दलीय उम्मीदवार के रूप मे लड़ा पर हार गये। मार्च 1952 मे उन्हें संसद के ऊपरी सदन यानि राज्य सभा के लिए नियुक्त किया गया और इसके बाद उनकी मृत्यु तक वो इस सदन के सदस्य रहे।
भीमराव लिखित प्रमुख किताबें
हू वेर शुद्रा?
द बुद्धा एंड हिज धम्मा
थॉट्स ऑन पाकिस्तान
अनहिलेशन ऑफ कास्ट्स
आइडिया ऑफ ए नेशन
द अनटचेबल
फिलोस्फी ऑफ हिंदुइज्म
सोशल जस्टिस एंड पॉलिटिकल सेफगार्ड ऑफ डिप्रेस्ड क्लासेज
गांधी एंड गांधीइज्म
ह्वाट कांग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल
बुद्धिस्ट रेवोल्यूशन एंड काउंटर-रेवोल्यूशन इन एनशिएंट इंडिया
द डिक्लाइन एंड फॉल ऑफ बुद्धिइज्म इन इंडिया
आज मूल रूप से संघ के राष्ट्रवाद एवं वामपंथ सहित कांग्रेस के सेक्युलरिज्म के बीच एक वैचारिक बहस चल रही है। लिहाजा इसबात पर विचार जरुरी है कि इन विचारधाराओं पर बाबा साहब किसके सर्वाधिक करीब नजर आते हैं और किसको सिरे से खारिज कर देते हैं। तमाम तथ्य एवं बाबा साहब के भाषणों के आधार पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि बाबा साहब वामपंथ को संसदीय लोकतंत्र के विरुद्ध मानते थे।25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में बोलते हुआ बाबा साहब ने कहा था, “वामपंथी इसलिए इस संविधान को नही मानेंगे क्योंकि यह संसदीय लोकतंत्र के अनुरूप है और वामपंथी संसदीय लोकतंत्र को मानते नही हैं।”बाबा साहब के इस एक वक्तव्य से यह जाहिर होता है कि बाबा साहब जैसा लोकतांत्रिक समझ का व्यक्तित्व वामपंथियों के प्रति कितना विरोध रखता होगा। यह बात अलग है कि बाबा साहब के सपनों को सच करने का ढोंग आजकल वामपंथी भी रचने लगे हैं। खैर, बाबा साहब और कांग्रेस के बीच का वैचारिक साम्य कैसा था इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बाबा साहब जिन मुद्दों पर बाबा साहब अडिग थे कांग्रेस उन मुद्दों पर आज भी सहमत नहीं है। मसलन, समान नागरिक संहिता एवं अनुच्छेद 370 की समाप्ति, संस्कृत को राजभाषा बनाने की मांग एवं आर्यों के भारतीय मूल का होने का समर्थन। बाबा साहब देश में समान नागरिक संहिता चाहते थे और उनका दृढ मत था कि अनुच्छेद 370 देश की अखंडता के साथ समझौता है।बाबा साहेब आंबेडकर समान नागरिक संहिता के प्रबल समर्थक थे, लेकिन कांग्रेस इसका विरोध कर रही थी। उन्होंने संविधान सभा में कहा था, ”मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि समान नागरिक संहिता का इतना विरोध क्यों हो रहा है? यह सवाल क्यों पूछा जा रहा है कि भारत जैसे देश के लिए समान नागरिक संहिता लागू करना संभव है?’’ उन्होंने कहा समान नागरिक संहिता एक ऐसा कानून होगा जो हर धर्म के लोगों के लिए समान होगा और उसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं होगा। इस कानून में परिवार, विवाह, संपत्ति और मूलभूत नागरिक अधिकार के मामलों में बराबरी होगी। राज्य का यह कर्तव्य होगा कि वह लोगों के व्यक्तिगत अधिकार को सुनिश्चित करेगा और समुदाय के नाम पर उनका हनन नहीं होगा।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 जिसमें कश्मीर को कई विशेष अधिकार प्राप्त हैं उनके खिलाफ बाबा साहेब ने काफी मुखर होकर अपने विचार रखे थे। उन्होंने अनुच्छेद 370 के बारे में शेख अब्दुल्ला को लिखे पत्र में कहा था, ”आप चाहते हैं कि भारत जम्मू-कश्मीर की सीमा की सुरक्षा करे, यहां सड़कों का निर्माण करे, अनाज की सप्लाई करे साथ ही कश्मीर के लोगों को भारत के लोगों के समान अधिकार मिले। आप अपनी मांगों के बाद चाहते हैं कि भारत सरकार को कश्मीर में सीमित अधिकार ही मिलने चाहिए। ऐसे प्रस्ताव को भारत के साथ विश्वासघात होगा जिसे भारत का कानून मंत्री होने के नाते मैं कतई स्वीकार नहीं करुंगा।”.गौरतलब है कि जिस दिन यह अनुच्छेद बहस के लिए आया उस दिन बाबा साहब ने इस बहस में हिस्सा नहीं लिया ना ही उन्होंने इस अनुच्छेद से संबंधित किसी भी सवाल का जवाब दिया।
विचारधारा के धरातल पर अगर बात करें हर बिंदु पर बाबा साहब और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचार समान हैं। जिनको यह लगता है कि बाबा साहब को संघ आज याद कर रहा है उन्हें नब्बे के शुरुआती दौर का पाञ्चजन्य पढ़ना चाहिए जिसमें बाबा साहब को आवरण पृष्ठ पर प्रकाशित किया गया था।संघ भी अखंड राष्ट्रवाद की बात करता है और बाबा साहब भी अखंड राष्ट्रवाद की बात करते थे। संघ भी अनुच्छेद 370 को समाप्त करने की बात करता है और बाबा साहब भी इस अनुच्छेद के खिलाफ थे। समान नागरिक संहिता लागू करने पर संघ भी सहमत है और बाबा साहब भी सहमत थे। हिन्दू समाज में जाति-गत भेदभाव हुआ है और इसका उन्मूलन होना चाहिए इसको लेकर संघ भी सहमत रहा है और बाबा साहब भी। जाति से मुक्त अविभाजित हिन्दू समाज संघ भी चाहता है और बाबा साहब की भी चाहत यही थी।बाबा साहब की जीवनी लिखने वाले सी। बी खैरमोड़े ने बाबा साहब के शब्दों को उदृत करते हुए लिखा है कि मुझमें और सावरकर में इस प्रश्न पर न केवल सहमति है बल्कि सहयोग भी है कि हिंदू समाज को एकजुट और संगठित किया जाये, और हिंदुओं को अन्य मजहबों के आक्रमणों से आत्मरक्षा के लिए तैयार किया जाए।राजभाषा संस्कृत को बनाने को लेकर भी उनका मत स्पष्ट था। 10 सितंबर 1949 को डॉ बी.वी. केस्कर और नजीरूद्दीन अहमद के साथ मिलकर बाबा साहब ने संस्कृत को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव रखा था, लेकिन वह पारित न हो सका। संस्कृत को लेकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का विचार भी कुछ ऐसा ही है जैसा बाबा साहब का था।
बाबा साहेब के प्रति यह झूठी श्रद्धा प्रदर्शन की यह होड़ असली दलित मुद्दों से दूर कर रही है और दलितों की दशा और दिशा में इसलिए सुधार नहीं हो पा रहा है और दलितों का आरक्षण सिर्फ 4% सम्पन दलितों तक सिमट कर रह गया है . जब भी कोई इसके विस्तार की बात करता है तो 4%लोग इसे दलित अस्मिता का सवाल बना देते है .दलितों की सियासत करने वाले राजनेताओ ने अपनी जाति के लोगो से राजनीती के अलावा हर क्षेत्र में एक दुरी बनाकर रखी,सामाजिक रीति-रिवाज में भी यह बिरादरी के अस्पृश्य ,उपेक्षित और गरीब लोगो से बराबरी से नहीं मिले ,जब भी मिले मतलब से मिले और इसी वजह से भी दलितों की दशा में कोई सुधार नहीं हुआ और दलित हमेशा सियासती चौसर की गोटीआं बनकर रह गए .अम्बेडकर को रास्ता बनाकर सत्ता प्राप्ति की कोशिश की जा रही है .दलित हितो पर चर्चा अब वैसे ही है फैशन बन गयी है जैसे पांच सितारा होटल में बोतलबंद पानी सजा कर पानी के संकट पर चर्चा की जाती है .बाबा अम्बेडकर की बात करने वालो को अपने गिरेबा में झांकर यह देखना होगा की पिछले सालों में उन्होंने कितने दलितों को गले लगाया है ,कितने दलितों की दशा ,उनकी सरकार रहते हुए दलितों का कितना भला हुआ ??? दलित मतलब हिंदुस्तान में फैली 1108 दलित जातियां या मुठीभर लोग या चेहरे ???
डॉ अम्बेडकर सम्पूर्ण वांग्मय के खंड 5 में लिखा है, “डॉ अंबेडकर का दृढ़ मत था कि मैं हिंदुस्तान से प्रेम करता हूं। मैं जीऊंगा तो हिंदुस्तान के लिए और मरूंगा तो हिंदुस्तान के लिए। मेरे शरीर का प्रत्येक कण और मेरे जीवन का प्रत्येक क्षण हिंदुस्तान के काम आए, इसलिए मेरा जन्म हुआ है।”
यह विचार लेखक के अपने है