अल्मोरा : स्याही देवी विकास समिति (स्याही देवी विकास मंच शीतलाखेत) वर्ष 2004-05 से जंगल बचाओ, पानी बचाओ अभियान चलाया जा रहा है। वर्तमान समय में उत्तराखण्ड के अधिकांष नदी-नालों तथा गधेरों में जलस्तर लगातार घटता जा रहा है।
समिति का मानना है कि बांज, बुरांष, काफल आदि चौड़ी पत्ती के वृक्षों के अनियंत्रित, अवैधानिक दोहन के कारण ही जल स्रोत सूख रहे हैं। समिति द्वारा विकल्पहीन ग्रामीणों को कृषि उपकरणों तथा जलौनी लकड़ी के विकल्प देने की मांग उठाने के साथ-साथ इस दिषा में स्वयं प्रयास भी किये गये। समिति ने अपने प्रयासों से वर्ष 2005-06 के दौरान पांच दर्जन के करीब लौह निर्मित हल ग्रामीणों को वितरित किये, मगर कई सारी तकनीकी खामियां होने के कारण वे हल स्वीकार्य नहीं हो पाये। संस्था ने अपनी मांग को लगातार कई मंचों पर रखा।
2012 में विवेकानन्द पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान एवं समिति के संयुक्त प्रयासों से वी0एल0स्याही नामक लौह हल का लोकार्पण 24 मार्च को पद्श्री चण्डी प्रसाद भट्ट जी के हाथों से हुआ। पुनः इस हल में आवश्यक संषोधन कर हल को खेत में उतारा गया। 11 गांवों के 65 किसानों द्वारा इस हल को परम्परागत लकड़ी से बने हल के विकल्प के रूप में स्वीकार कर लिया गया है।
संस्था का प्रयास है कि यह हल उत्तराखण्ड के हर गांव के किसान के खेत तक पहुँचे ताकि हल के निर्माण के लिये हर साल कटने वाले बाँज वृक्षों को बचाया जा सके। रू0 1400/- की लागत वाले इस हल को कृषि विभाग द्वारा 50 प्रतिषत अनुदान पर दिया जा रहा है। मात्र 11 किलो वजन वाले इस हल से जुताई के साथ-साथ पाटा भी आसानी से लगता है।
संस्था द्वारा वर्ष 2004-05 से जंगल बचाओ-पानी बचाओ अभियान भी चलाया जा रहा है। जिसके तहत संस्था के पदाधिकारी गांव-गांव जाकर ग्रामीण महिलाओं को वनों की रक्षा के लिये प्रेरित करते हैं। वनों में अवैध कटान को रोकते हैं। आग लगने पर आग बुझाने में मदद करते हैं, साथ ही स्कूली बच्चों को भी वनों के संरक्षण एवं संवर्धन से जोड़ रहे हैं।
यहां पर यह स्पष्ट करना समीचीन होगा कि उत्तराखण्ड में वर्तमान में लगभग 30 लाख परिवार निवास करते हैं। उत्तराखण्ड में कुल एल0पी0जी0 कनैक्षनों की संख्या 18 लाख है। शेष 12 लाख परिवार अपनी जलौनी लकड़ह तथा कृषि उपकरणों की आवष्यकता हेतु वनों पर निर्भर हैं। लगभग 12 लाख ग्रामीण परिवारों की वनों पर ईंधन तथा कृषि उपकरणों की निर्भरता हेतु वनों का अनियंत्रित एवं अवैज्ञानिक दोहन हो रहा है जिस कारण वनों में स्थित जल स्रोत सूख रहे हैं। जैव विविधता नष्ट हो रही है। वन्य जीवों के आवास एवं आहार नष्ट होने से मानव-वन्य जीव संघर्ष बढ़ रहा है। संस्था का मानना है कि वनों पर ग्रामीणों की निर्भरता खत्म कर ही वनों को बचाया जा सकता है। लकड़ी निर्मित परम्परागत हल के विकल्प के लिये संस्था द्वारा वर्ष 2003 से प्रयास आरम्भ किये गये तथा वर्ष 2012 में संस्था को इस पर सफलता मिली है।
संस्था पूर्णतया व्यैक्तिक प्रयासों से कार्य कर रही है। वन विभाग द्वारा आग बुझाने के बदले दी गयी प्रोत्साहन राषि का उपयोग ग्रामीणों की बैठक के जलपान तथा अभियान के प्रचार-प्रसार में किया जाता है। संस्था का सोसाइटीज रजिस्ट्रेषन एक्ट में वर्ष 2006 मंे पंजीकरण कराया गया है, मगर आज तक संस्था द्वारा कोई अनुदान नहीं लिया गया है।